Thursday, June 30, 2011

शिल्प योद्धा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास लौट आया और शव को पेड़ से उतारकर अपने कंधे पर ड़ाल लिया । फिर यथावत् वह श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा । तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, क्या तुम भूल गये कि तुम एक महान सम्राट हो । तुम्हारी कितनी ही जिम्मेदारियॉं हैं, जिन्हें निभाना तुम्हारा परम कर्तव्य है ।

जनता तुमसे कितनी ही आशाएँ रखती है । अपने कर्तव्यों को भुलाकर क्यों नाहक श्मशान में इतनी तकलीफ़ झेलते जा रहे हो । तुम्हारी इस दशा को देखकर मुझे आश्र्चर्य हो रहा है । लगता है, तुम्हारा कोई बड़ा लक्ष्य है, जिसकी पूर्ति के लिए इतने कष्ट झेल रहे हो ।


परंतु मुझे डर है कि सफलता मिल जाने पर कहीं उससे हाथ न धो बैठो । बहुत पहले मयूर नामक एक महा शिल्पी ने भी ऐसी ही ग़लती की थी । उसकी कहानी मुझसे सुनो और सावधान हो जाओ ।’’ फिर वेताल कहानी सुनाने लगा ।’’


बहुत पहले की बात है। कनकगिरि साम्राज्य के सम्राट के अधीन कितने ही सामंत राज्य थे । कई सामंत राज्यों में से एक था, शोणपुरी । उस राज्य का शासक था, वीरवर्धन । वह चेन्नकेशव- स्वामी का परम भक्त था।


एक बार वह जंगल में शिकार करने गया । वहॉं के प्राकृतिक सौंदर्य पर वह रीझ गया । हरियाली के बीचों बीच, ऊँचा पहाड तथा उससे लग कर प्रवाहित होती सुवर्ण नदी ने उसे मंत्रमुग्ध कर दिया ।


दोपहर तक आखेट करने के बाद राजा एक वृक्ष के नीचे विश्र्राम लेने लगा और धीरे-धीरे निद्रा की गोद में चला गया । सपने में उसने राजवंशजों के कुलदैव चेन्नकेशवस्वामी को देखा । देव ने राजा से कहा, ‘‘पर्वत पर मेरा एक मंदिर हुआ करता था । कालक्रम में वह विलीन हो गया । पर्वत की पश्र्चिमी दिशा में एक अश्र्वथ वृक्ष है । वहॉं खोदने पर एक मूर्ति दिखायी देगी । वहॉं तुम एक मंदिर का निर्माण करो और उसमें उस मूर्ति को प्रतिष्ठित करो । इससे तुम्हारा और तुम्हारे राज्य का कल्याण होगा । इस मंदिर के निर्माण का भार नगर के समीप के ग्रमवासी मयूर नामक शिल्पी को सौंपो ।’’ दैव ने यों आदेश दिया।


वीरवर्धन जैसे ही नींद से जागा, उसे सपने की याद आयी । वह बेहद खुश हुआ । नगर में लौटते ही उसने शिल्पी मयूर को ख़बर भिजवायी। उससे पर्वत पर मंदिर के निर्माण की बात बतायी और उससे यह भी कहा कि मंदिर के निर्माण के बाद अश्र्वथ वृक्ष के नीचे की मूर्ति का प्रतिष्ठापन उसमें हो ।
राजा की आज्ञा के अनुसार मयूर ने मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू किया । उस अश्र्वथ वृक्ष के नीचे वह मूर्ति भी प्राप्त हुई । मंदिर के निर्माण के लिए व्यय का जो अंदाज़ा लगाया गया, उससे बहुत अधिक धन निर्माण - कार्य में खर्च हुआ । खर्च इतना बढ़ गया कि खज़ाना भी खाली हो गया । राजा, सम्राट को कर चुकाने की स्थिति में भी नहीं था ।


वृद्ध सम्राट की आकस्मिक मृत्यु के बाद उसका पुत्र धीरसेन सम्राट बना । वह अव्वल दर्जे का लोभी था । सामंतों से अधिकाधिक कर वसूल करता था । उसने राजा वीरवर्धन पर तुरंत कर चुकाने के लिए दबाव ड़ाला। वीरवर्धन ने अपनी विवशता धीरसेन से बतायी ।


यह जानकर धीरसेन आग-बबूला हो गया और अपनी सेना को शोणपुरी पर आक्रमण करने के लिए भेजा । सेना शोणपुरी की सरहदों पर पहुँची और निर्मित नये मंदिर के पास रुकी । क्रूर सेनापति ने पर्वत पर के मंदिर को देखते हुए अपने सैनिकों को आज्ञा दी, ‘‘इसके मूल में है, यह मंदिर । जाओ और उसे गिरा दो ।’’


सैनिक पर्वत पर गये और राजगोपुर से होते हुए मंदिर के अंदर गये । शिल्प सौंदर्य से भरपूर द्वारपालकों की मूर्तियों को उन्होंने देखा तो वे देखते रह गये । सैनिक उन शिल्पों का ध्वंस करने ही वाले थे कि एक चमत्कार हो गया । द्वारपालों की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं ।
सैनिक भयभीत हो गये । वे पर्वत से उतरकर नीचे आ गये । यह बात सेनापति के द्वारा, सम्राट को भी मालूम हुई । सम्राट को लगा कि कोई अशुभ होने जा रहा है, इसलिए उसने सेना वापस बुला ली ।


यह जानते ही शोणपुरी की जनता बहुत हर्षित हुई । राजा ने शिल्पी मयूर को बुलवाया और क्रोध-भरे स्वर में उससे कहा, ‘‘तुम भी कैसे शिल्पी हो । तुम्हें तो ऐसे शिल्पों का निर्माण करना चाहिये था, जो शत्रुओं का सामना तलवार से करें, न कि आंसू बहानेवाले शिल्पों का निर्माण । युद्ध में शत्रुओं के छक्के छुडानेवाली मूर्तियों का निर्माण करते तो हमें ये दिन देखने न पड़ते !’’


मयूर चुप ही रहा । इसके दूसरे ही दिन पर्वत के नीचे दस हज़ार पांवों के मंडप के निर्माण का काम उसने शुरू कर दिया । हर स्तंभ पर अश्र्वारूढ़ होकर तलवार हाथ में लिये युद्धक्षेत्र में कूदने को तैयार योद्धा के शिल्प छीले गये । उस मंडप के निर्माण के लिए उसने राजा से प्राप्त अपना पारितोषिक खर्च कर दिया । जब और धन-राशि की ज़रूरत पड़ी, दाताओं से वसूल किया । यों दस हज़ार पांवोंवाला मंडप पूरा हो गया । फिर शिल्पी मयूर, राजा से मिला और कहा, ‘‘राजन, भविष्य में हम किसी के दास होकर नहीं रहेंगे।’’


राजा ने शोणपुरी को स्वतंत्र राज्य घोषित किया । सम्राट को यह बात मालूम हुई । उसने फ़ौरन बहुत बडी सेना शोणपुरी पर हमला कर देने के लिए भेजी।
मयूर बेंत जैसी वस्तु हाथ में लिये दस हज़ार पैरवाले मंडप के पास चला आया । एक स्तंभ के शिल्प योद्धा को बेंत से छूकर उसने कहा, ‘‘योद्धा, निकल पड़ो, तलवार चमकाओ, युद्धक्षेत्र में कूद पड़ो । राजा को विजय प्रदान करो ।’’


बस, शिल्प योद्धा सजीव होकर एक के पीछे एक युद्धक्षेत्र में कूद पड़े और साधारण सेना में हिलमिल गयें । उनके पराक्रम के सामने शत्रु सेना टिक नहीं पायी। राजा वीरवर्धन विजयी हुए । वीरवर्धन की खुशी का ठिकाना न रहा । उसने शिल्पी मयूर के सम्मान हेतु सभा का प्रबंध किया, पर वह ग़ायब था । उसे बहुत ढूँढ़ा गया, पर उसका कहीं भी पता नहीं चला ।


वेताल ने इस कहानी को सुनाने के बाद कहा, ‘‘राजन्, मुझे मयूर का व्यवहार बड़ा ही विचित्र लगता है । वह या तो मूर्ख होगा या अंहकारी । अपनी कला से उसने राजा को विजय दिलायी और चुपचाप ग़ायब हो गया । हो सकता है, राजा की व्यवहार - शैली उसे अच्छी न लगी हो, तो फिर उसने मंडप के निर्माण में अपना पारितोषिक खर्च क्यों किया? उसने राजा की इतनी भलाई की, पर प्रतिफल की आशा किये बिना क्यों ग़ायब हो गया? मेरे संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे ।’’ इसके उत्तर में विक्रमार्क ने कहा, ‘‘महाशिल्पी मयूर मूर्ख नहीं हैं, अहंकारी भी नहीं । निस्संदेह ही वह प्रज्ञावान है ।


आस्थान में शिल्पी का पद बिना चाहे ही, उसे मिल गया । आंसू बहानेवाले शिल्पों ने उसे प्रसिद्ध किया, पर उसने जान-बूझकर ऐसा नहीं किया । उसकी शिल्प कला व नैपुण्य पर व उसकी समर्पित भावना पर मुग्ध होकर कला की देवी ने उसे यह वर प्रसादा । और यह सच्चाई मयूर को भी भली-भांति मालूम थी ।


पर, राजा ने उसके कला-कौशल की भरसक प्रशंसा नहीं की, उसका अभिनंदन नहीं किया । उल्टे उसने इसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग में लाना चाहा । कोई भी कलाकार मन ही मन चाहेगा कि उसकी प्रतिभा की पहचान हो। पर मयूर को ये प्राप्त नहीं हुए । इससे मयूर के कोमल हृदय को धक्का लगा । परंतु उसने अपनी यह पीडा व्यक्त नहीं होने दी और राज्य की प्रजा का उसने कल्याण चाहा । उसने शिल्प योद्धाओं की सृष्टि की और राजा को विजयी बनाया । प्रजा को स्वतंत्र किया । अब रहा, ग़ायब हो जाने का कारण । राजा ने चाहा कि राज्य को स्वतंत्र करने के लिए योद्धाओं की सृष्टि हो, जो कुछ हद तक ठीक भी है ।

इसमें न्याय भी है, इसीलिए मयूर ने शिल्प योद्धाओं की सृष्टि की । आज जो राजा शिल्प योद्धाओं की सृष्टि चाहता है, हो सकता है, वह कल आकांक्षाओं के बहकावे में आकर कल्पवृक्ष चाहे या कामधेनु की मॉंग पेश करे । एक शिल्पी होने के नाते विलक्षण शिल्पों को पत्थरों पर छीलना ही उसका एकमात्र काम है । मंदिर का निर्माण करके उसने यह काम पूरा कर दिया । सजीव शिल्पों को निरंतर छीलते रहने का काम उस सृष्टिकर्ता का है । जो काम अपने से नहीं हो सकता, उस काम को अपने ऊपर लेनेवाले किसी न किसी से हार कर रहेंगा । इस कारण मयूर सम्मान के लोभ में नहीं फंसा और काम पूरा होते ही, किसी से बताये बिना कहीं चला गया ।’’ राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा । (आधारः सुचित्रा की रचना)


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