
केदार जयपुर का निवासी था। उसकी बड़्री आशा थी कि कोई अच्छा व्यापार करूँ और खूब कमाऊँ। विविध व्यापारों में अनुभवी व्यक्तियों से उसने सलाहें माँगीं। उनमें से बहुतों ने कहा कि जयपुर में अच्छा भोजनालय नहीं है। जिनके घर नहीं हैं, उनके भोजन के लिए कोई अच्छा भोजनालय है ही नहीं। इसलिए उन्होंने अच्छा भोजनालय चलाने का प्रोत्साहन दिया।
जयपुर के बीचों बीच केदार ने एक बड़्रा घर भाड़्रे पर लिया और व्यापार शुरू कर दिया। पर व्यापार में कोई वृद्धि नहीं हुई। दो-तीन रसोइयों को भी बदलकर देखा। फिर भी व्यापार में प्रगति नहीं हुई। वह सोच में पड़्र गया कि क्या किया जाए, तब मैलवर से सुनंद नामक रसोइया काम दूँढ़्रते हुए उसके पास आया।
जब से सुनंद ने रसोइये का काम संभाला तब से रसोई स्वादिष्ट लगने लगी और भोजन करने के लिए आनेवालों की संख्या में भी विशेष वृद्धि होने लगी। क्रमशः वह शहर में सबसे अच्छा भोजनालय माना जाने लगा। रुचि व शुचि दोनों भरपूर थे, इसलिए व्यापार ज़ोर पकड़्रता गया। साथ ही केदार का भोजनालय प्रसिद्ध होता गया।
एक दिन सुनन्द ने केदार से सौ अशर्फियों का कर्ज माँगा। केदार ने मन ही मन सोचा कि इस बार कर्ज दे दूँ तो हो सकता है, अगली बार हजार अशर्फियाँ माँगे। इसलिए उसने कर्ज देने से इनकार कर दिया।
उस दिन से रसोई में स्वाद कम होता गया, किसी भी भोजन पदार्थ में रुचि नहीं रही। आगतों की संख्या भी कम होती गयी।
महीपति नामक एक अध्यापक भी वहीं खाने आते थे। उन्हें भी भोजन रुचिहीन लगने लगा। एक दिन उन्होंने केदार से कहा, "आजकल रसोई पहले की तरह स्वादिष्ट नहीं है। इसका क्या कारण है?"

"यही मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है। रसोई के लिए आवश्यक चीज़ें भी उसी दुकान में खरीद रहे हैं। वही रसोइया सुनंद ही रसोई का काम संभाल रहा है", परेशान केदार ने कहा।
महीपति ने पूछा, "सुनंद ने क्या तुमसे कोई सहायता माँगी?" केदार ने याद करते हुए "हाँ, अध्यापक महोदय, थोड़्रे दिनों पहले सुनंद ने सौ अशर्फियों का कर्ज मांगा। मैंने नहीं दिया।"
"क्यों नहीं दिया?" महीपति ने पूछा।
"एक बार दे दूँ तो हो सकता है, यह आदत बन जाए। इसीलिए मैंने कर्ज़ देने से इनकार कर दिया", केदार ने कहा।
"ऐसा क्यों सोचते हो? सब के विषय में एक ही सूत्र को अमल में क्यों ले आते हो? पद्धतियाँ एक समान नहीं होतीं। व्यापार के अनुरूप उसके योग्य सूत्रों का पालन करना चाहिये। पता नहीं, उसकी ज़रूरत क्या थी, उसे तुमसे कर्ज़ किस हालत में माँगना पड़्रा? इसी वजह से शायद वह रसोई बनाने में मन लगाता नहीं होगा। या उसका मन काम में स्वयं ही नहीं लगता होगा। जब वह तुम्हारे यहाँ काम कर रहा है, तब भला किसी और से कैसे कर्ज़ माँगा सकता है? आख़िर उसने तुमसे दान नहीं माँगा, कर्ज़ माँगा। तुरंत उसे सौ अशर्फ़ियाँ देकर देख लेना। फल क्या होगा, तुम्हें मालूम हो जायेगा। जो लोग हमारे यहाँ काम करते हैं, उनकी देखभाल करना हमारा कर्तव्य है। इसी में हमारी भलाई है, इसी से हम तरक्की कर पायेंगे। वे भी मन लगाकर काम करेंगे और हम भी उनसे अच्छा काम करा पायेंगे।" महीपति ने सलाह दी।
केदार ने, उसी दिन सुनंद को सौ अशर्फ़ियाँ दीं। उस क्षण से सुनंद के मुख पर खुशी ही खुशी थी। कामों में भी वह उत्साह दिखाने लगा। अब भोजन करने जो लोग वहाँ आते वे उसकी प्रशंसा करते हुए थकते नहीं थे। अब व्यापार पहले से भी अधिक होने लगा। यों केदार की परेशानी भी दूर हो गयी।

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