Thursday, June 30, 2011

राम की चाह

राम लक्ष्मीपुर का निवासी है। मज़दूरी करते हुए अपना और अपने परिवार के सदस्यों का पेट भर रहा है। उस गाँव में हर रोज़ मज़दूरी नहीं मिलती और अगर मिल भी जाए तो उसकी आमदनी नहीं के बराबर होती है।
इस आमदनी से वह अपने और अपने परिवार का पेट भर नहीं पाता और न उन्हें ठीक से कपड़े पहना पाता। यों वे इस दुःस्थिति में अपना जीवन गुज़ार रहे हैं। एक दिन रात को राम ने सपने में देखा कि वह वडा खा रहा है, जो उसे बहुत प्रिय है। नींद में ही उसके मुँह में पानी भर आया।
सवेरे उठते ही उसने सपने के बारे में पत्नी सीता से कहा। सीता ने लंबी साँस खींचते हुए कहा, ‘‘मांड का पानी पीने को हम तरस रहे हैं और तुम्हें वडा खाने की इच्छा हो रही है । बहुत खूब !'' इसके बाद मिट्टी के एक बरतन में वह मांड ले आयी और पति के सामने रखती हुई बोली, ‘‘मैं तुमसे कितनी ही बार कह चुकी हूँ कि शहर जाना और कोई काम ढूँढ़ना। पर तुम मेरी बात सुनते ही नहीं। इस व में ही रहेंगे तो हमारी ज़िन्दगी ऐसी ही होगी।''
राम गाँव छोड़कर जाना चाहता नहीं। इससे वह डरता भी है। इसलिए जब-जब पत्नी यह बात उठाती है, वह टाल देता है और कहता है, ‘‘देखेंगे''। इस बार भी उसने यही जवाब दिया और हाथ मुँह धोने के लिए पिछवाड़े में चला गया। इतने में पड़ोसी किसान मंगल के सात महीनों का बेटा रेंगता हुआ वहाँ आया और मांड के बरतन को नीचे गिरा दिया।
राम ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वजह से मांड का पानी भी पी नहीं पाया। मेरे नसीब में शायद यही लिखा है।'' ‘‘जाने दो न! बेचारा मासूम बच्चा है। उसे क्या मालूम! अभी-अभी तो वह रेंगना सीख रहा है। ग़लती हमारी है। हमें सावधान रहना था।'' सीता ने कहा। भूखा ही वह मज़दूरी ढूँढ़ने गाँव में गया।

वहाँ उसे कहीं भी कोई मज़दूरी नहीं मिली। पटवारी के घर से होते हुए जब वह गुज़रने लगा तब वडों के पकने की सुगंध आयी। राम के मुँह में पानी भर आया। तभी घर से बाहर आते हुए पटवारी से उसने कहा, ‘‘मालिक, कोई काम हो बताइये। करूँगा।'' ‘‘आज हमारे पिताजी का श्राद्ध है। सब व्यस्त हैं। ठीक है, तुम कुएँ से पानी खींचकर उस हौज को भर देना।'' कहते हुए वह बाहर चला गया। पानी कुएँ में बहुत नीचे था ।
फिर भी अपनी पूरी ताक़त लगाकर उसने हौज को पानी से भर दिया। एक घंटे के बाद पटवारी की पत्नी ने उसे दो रुपये दिये और जाने को कहा। ‘‘मालकिन, दो वडा हो तो दीजियेगा।'' राम ने माँगा।
‘‘वडे सबके सब ख़त्म हो गये। जो आये थे, पूरा खा लिया। हमारे लिए भी नहीं बचा।'' पटवारी की पत्नी ने अपनी लाचारी जताते हुए कहा। राम निराश होकर दलिया खरीदने सेठ की दुकान में गया।
‘‘अरे राम, मेरी पत्नी वडे बनाने के लिए चक्की चला रही है, चार-पाँच वडे खाकर जाना। इतने में उन अनाज के बोरों को अंदर रख देना।'' राम खुशी से फूल उठा। बोरे ढोकर अंदर डाल दिया।
इतने में लोई पीसती हुई सेठ की पत्नी को ओखली के नीचे से आये बिच्छू ने डंक मारा। वह रोने-बिलखने लगी। सेठ ताला लगाकर तुरंत उसे वैद्य के पास ले गया।


अपने नसीब को कोसता हुआ राम दलिया लेकर घर पहुँचा। सीता बादाम के पत्ते में छे वडे लाकर उसके सामने रखती हुई बोली, ‘‘लो, तुम्हारा सपना साकार हो गया।'' राम उन्हें देखते ही खुशी से फूल उठा और पूछा, ‘‘किसने दिये? कहाँ से मिल गये?''
‘‘पड़ोसी मंगल का बेटा घुटनों के बल चल रहा है न। हमारी परिपाटी के अनुसार जब बच्चा देहली पार करता है, तब वडे पकाये जाते हैं। उनका इकलौता बेटा जो है। इसीलिए मंगल की पत्नी ने इस खुशी में हमें भी दिया।'' सीता ने कहा।
‘‘मैं सब खा लूँ तो फिर हमारे बच्चों का क्या होगा?'' राम ने पूछा। ‘‘तुम बहुत चाहते हो, इसीलिए मैंने छिपा रखा। उनके आने के पहले ही खा लेना।'' सीता ने कहा। राम की आँखों में आँसू भर आये। वडे पत्नी को वापस देते हुए उसने कहा, ‘‘नहीं, उन्हें भी आने दो। सब मिलकर खायेंगे।'' इतने में मंगल का बेटा रेंगता हुआ आया और राम को देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ा।
राम ने उसे उठा लिया और उसे चूमते हुए कहा, ‘‘नन्हा बच्चा रेंगता हुआ जब देहली पार करता है, तो उसका आनंद ही कुछ और होता है। जिस मर्द को कमाना है, वह अगर देहली पार नहीं करता तो उससे अनिष्ट होता है। अधिक संतान पैदा करके मैं तकलीफें झेल रहा हूँ। इन बच्चों के भविष्य के लिए कुछ न करूँ और इसी गॉंव में रह जाऊँ तो यह मेरी बेवकूफी ही होगी। इससे बढ़कर अविवेक और क्या होगा ! जैसा तुमने कहा है, मैंने शहर जाने का निश्चय कर लिया है। सवेरे ही मुझे जगा देना। और हाँ, मार्ग में कुछ खाने के लिए रात में ही दलिया उबाल देना।''
पति की बातें सुनकर सीता फूला न समायी। उसने मन ही मन भगवान से प्रार्थना की कि उसके पति को शहर जाते ही कुछ अच्छा काम मिल जाये जिससे बच्चों को ठीक से खाना-कपड़ा मिल सके और ऐसे बुरे दिन फिर न देखने पड़ें।



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