
हरिनारायण अनाज का व्यापार करता था और खूब कमाता था। वह दानी भी था और भगवान में उसका अटूट विश्वास था। उसने एक धर्मार्थ सराय का निर्माण करवाया; और सराय में अन्नदान भी करता था। मंदिर में अक्सर धार्मिक प्रवचनों का प्रबंध भी करता था।
एक दिन जब वह भोजन कर रहा था, तब उसकी पत्नी सरस्वती ने कहा, ‘‘हमारे तीनों लड़के अब वयस्क हो गये हैं। व्यापार का पूरा भार आप कब तक संभालते रहेंगे? तीनों में से किसी एक को व्यापार की जिम्मेदारी सौंप दें तो अच्छा होगा।''
‘‘मैं भी यही सोच रहा हूँ। साथ ही सोच में हूँ कि किसको यह व्यापार सौंपने से वह दक्षता से संभालेगा और हमारी परंपरा को क़ायम रखेगा।'' हरिनारायण ने कहा।
‘‘तीनों बेटे अच्छे स्वभाव के हैं। किसी को भी सौंपिये। वह जिम्मेदारी के साथ उसे संभालेगा'', सरस्वती ने अपनी राय दी।
‘‘अपने बेटों के बारे में तुम्हारी राय सही है। पर, व्यापार करने के लिए अच्छे गुण मात्र का होना पर्याप्त नहीं है। अ़क्लमंदी के साथ-साथ व्यापार के प्रति रुचि भी होनी चाहिये। यह जानने के लिए हमारे तीनों बेटों की परीक्षा लेनी होगी। उनकी योग्यता तुम्हीं देखोगी।'' हरिनारायण ने कहा।
दूसरे दिन हरिनारायण ने अपने तीनों बेटों को बुलाया। तीनों को एक-एक रुपया दिया और कहा, ‘‘इस एक रुपये से शाम तक कोई अच्छा काम करके आओ। इससे मालूम हो जायेगा कि तुम तीनों में से कौन दक्ष हो।''
शाम को जब वह घर लौटा, तब उसने देखा कि उसके तीनों बेटे उसी की प्रतीक्षा में हैं।

उसने बड़े बेटे सोमशेखर से पूछा,‘‘तुमने उस एक रुपये से क्या अच्छा काम किया?''
‘‘मैंने राम के मंदिर के पास एक भूखी औरत को देखा। वह रुपया मैंने उसे दे दिया'', सोमशेखर ने कहा। हरिनारायण ने मुस्कुराते हुए दूसरे बेटे कमल की ओर देखा।
‘‘हमारे व्यापार की अच्छी वृद्धि हो, इसके लिए मैंने मंदिर में पूजा करवायी और वह रुपया पुजारी की थाली में डाल दिया,'' कमल ने कहा।
हरिनारायण ने उसी प्रकार की मुस्कान लिये छोटे बेटे नारायण से पूछा, ‘‘तुमने क्या किया?''
नारायण ने चुपके से अपनी जेब से एक रुपये का सिक्का निकाला और अपने पिता के सामने रख दिया। ‘‘रुपया खर्च किये बिना तुमने उसे ऐसे ही सुरक्षित रखा?'' हरिनारायण ने पूछा।
‘‘नहीं पिताजी, आपने जो रुपया दिया, उसे लेकर बगीचे में गया और उससे चार नींबू खरीदे। बाज़ार में बैठकर मैं लोगों से कहने लगा कि यह एक विशेष प्रकार का नींबू है और उन्हें दो रुपयों में बेच दिया। एक रुपये का जो फायदा हुआ, उसमें से आधे रुपये की मिठाई खरीदी और उसे एक भूखे बच्चे को दिया। बाकी आधा रुपया भगवान की हुँडी में डाल कर प्रार्थना की वे सब पर दया करें। शेष बचा पूंजी का रुपया ले आया हूँ।'' नारायण ने धीरे-से कहा।
हरिनारायण उसकी होशियारी और दयालुता पर बड़ा ही मुग्ध हुआ और निर्णय कर लिया कि व्यापार नारायण को ही सौंपूँगा। फिर दोनों बेटों की ओर मुड़कर कहा, ‘‘किसी भी अच्छे काम को करने के लिए धन की ज़रूरत होती है। विशेषकर व्यापार के लिए यह नितांत आवश्यक है। इसलिए जिसे व्यापार करना है, उसे पहले लाभ कमाना चाहिये। नारायण ने यह काम किया। कमाने के बाद फिर करो दान धर्म। तुममें से एक संभालो, हमारा अपना धर्मार्थ सराय, दूसरा संभाले, हमारे राममंदिर की जिम्मेदारियों को। नारायण व्यापार संभालेगा और दोनों उसे सहयोग देकर व्यापार की और वृद्धि करेंगे।''
दोनों भाइयों ने सहर्ष स्वीकार किया। पति के इस निर्णय पर सरस्वती बहुत ही खुश हुई।

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