
सौतेली माँ की देखभाल में कृष्णवेणी ने नाना प्रकार की यातनाएँ सहीं। जब वह बीस साल की थी, तब उसका पिता किसी विष ज्वर के कारण मर गया। उसकी सौतेली माँ सुमित्रा उसका विवाह कराने को क़तई तैयार नहीं थी। विवाह के बाद अगर वह ससुराल चली गई तो घर का काम-काज कौन संभालेगा? अगर उसकी शादी न करे और अपनी बेटी की शादी कर दे तो गाँव के लोग थोड़े ही चुप रहेंगे। उसपर ताने कसेंगे और कोसेंगे।
इसीलिए गाँव के लोग अगर इसके बारे में पूछते तो वह उनसे कहा करती थी, ‘‘ज्योतिषियों का कहना है कि कृष्णवेणी की शादी के एक ही साल के अंदर उसका पति उसे छोड़कर भाग जायेगा। ऐसी स्थिति में उससे शादी करने कौन आयेगा?''
फिर भी, सत्तर साल का एक बूढ़ा कृष्णवेणी से शादी करने आगे आया। उसने खांसते हुए कहा, ‘‘मुझे जन्म-कुंडली पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं है। लड़की मुझे अच्छी लगी और मैं उससे शादी करने को तैयार हूँ।''
उस बूढ़े के साथ एक दूसरा आदमी भी आया था। उसने सुमित्रा को बग़ल में ले जाकर कहा, ‘‘यह शादी कराओगी तो साहब दो लाख रुपये देंगे। शादी का खर्च अलग ।''
‘‘फिर देरी क्यों? दस ही दिनों के अंदर शादी कर दूँगी। सारी तैयारी हो जाए तो आपको ख़बर भेजूँगी।'' सुमित्रा ने खुश होते हुए कहा।
‘‘जन्म भर कुँवारी ही रहूँगी। मुझे अपने ही पास रहने देना। मैं यह शादी करना नहीं चाहती,'' हाथ जोड़ते हुए कृष्णवेणी ने विनती की।
‘‘क्या बकती हो! तुम्हारी शादी नहीं होगी तो मेरी बेटी की शादी कैसे हो सकती है, तुम्हें यह शादी करनी ही होगी। ज़्यादा कुछ और बोलोगी तो तुम्हें ज़िन्दा नहीं छोडूँगी'' सुमित्रा ने कठोर स्वर में अपना निर्णय सुनाया।
कृष्णवेणी को लगा कि इस बूढ़े से शादी करने से अच्छा यही होगा कि मर जाऊँ । रात को जब सब सो रहे थे, तब चुपचाप बाहर चली आयी और जंगल की तरफ़ चली गयी।

श्रावण मास था। भारी वर्षा के कारण मार्ग कीचड़ से भरा हुआ था। वह कांटों की झाड़ियों से होती हुई आगे बढ़ती गई । बहुत दूर तक पैदल चलते रहने के कारण वह थक गयी और एक उजड़े कुएँ के किनारे बैठ गयी।
उसे वहाँ देखकर एक भूत और एक भूतनी कहने लगे, ‘‘वाह, कितनी सुंदर लड़की है। इतनी रात में अकेले ही यहाँ आने का दुस्साहस किया। चलो, जानें कि यह है कौन और यहाँ क्यों आयी?'' कहते हुए दोनों पेड़ पर से कूद पड़े और उसके सामने खड़े हो गये।
कृष्णवेणी बिना भय के उन्हें देखती रही और मुस्कुराने लगी। इसपर आश्चर्य प्रकट करते हुए भूत व भूतनी ने उससे पूछा, ‘‘हमारे इस भयंकर रूप को देखकर तुम्हें डर नहीं लगता?''
‘‘मरने के लिए तैयार घर छोड़कर आनेवाले को भला भय क्या होगा?'' कहती हुई कृष्णवेणी एक और बार मुस्कुरा पड़ी।
भूतों ने एक दूसरे को देखा और कहा, ‘‘मरने आयी हो? कौन-सा ऐसा कष्ट आ गया, जिसके कारण तुम प्राण छोड़ने के लिए तैयार हो?''
कृष्णवेणी ने अपनी सौतेली माँ के बारे में बताते हुए कहा, ‘‘वह हर पल मुझे सताती रहती है। उस बीमार बूढ़े से मैं शादी करना नहीं चाहती, भले ही मर क्यों न जाऊँ ।''
भूतनी ने उसपर दया दिखाते हुए कहा, ‘‘बेचारी की बड़ी बुरी हालत है।''
भूत ने भूतनी का समर्थन किया, ‘‘तुमने ठीक कहा। हमें इसकी मदद करनी चाहिये।''
फिर दोनों भूतों ने आपस में बातें कर लीं और कृष्णवेणी से कहा, ‘‘चिंता मर कर। तुम्हारी शादी एक योग्य और सुंदर युवक से करायेंगे। यह जिम्मेदारी हम पर छोड़ दो। पर, तुम्हें एक काम करना होगा। हम चाहे, किसी से बात करें, तुम्हें चुप रहना होगा। मंजूर है?''
कृष्णवेणी ने ‘हाँ' के भाव में सिर हिलाया। भूतों ने तुरंत मानव रूप धारण कर लिया, उन दोनों ने उसी समय एक बैलगाड़ी की सृष्टि की और उसमें चार गठरियाँ रख दीं। ‘‘देखो, कृष्णवेणी, इस गाड़ी में बैठ जाओ। हम तुम्हारे माँ-बाप हैं, यह भूलना मत।''

गाड़ी निकल पड़ी। बाढ़ के कारण पानी तेज़ी से बह रहा था। गाड़ी एक जगह रुक गयी। एक दूसरी गाड़ी भी वहीं रुकी हुई थी। एक युवक उसके पास ही खड़ा था। इतने में गाड़ी से तीन लोग उतरे। युवक से हो रही उनकी बातचीत से पता चला कि वे उसके माँ-बाप और बहन हैं।
भूत उनसे बात करने ही जा रहे थे कि इतने में युवक के पिता ने उनसे पूछा, ‘‘आप लोग कहाँ जा रहे हैं। हम दुर्गापुर के निवासी हैं। हमें कल ही मालूम हुआ कि कनकपुर में हमारे बेटे सूरज के योग्य एक अच्छा रिश्ता है। लाखों रुपये दहेज में देने कितने ही लोग आगे आये। परंतु हमारे सूरज को कोई लड़की पसंद नहीं आयी।''
इसपर भूतों को आश्चर्य हुआ। भूतनी ने कहा, ‘‘हमारी बेटी कृष्णवेणी भी ऐसी ही समस्या का सामना कर रही है। उसकी सुंदरता पर मुग्ध होकर कितने ही युवक उससे विवाह रचाने आगे आये। उन्होंने साफ-साफ बताया भी कि उन्हें दहेज चाहिये ही नहीं। पर हमारी बेटी को उनमें से कोई भी पसंद नहीं आया। हाल ही में हमें जानकारी मिली कि प्रतापगढ़ में एक सुंदर युवक है। उसी विषय में हम वहाँ जा रहे हैं। इस बाढ़ के कारण बीच रास्ते में ही अटक गये।''
‘‘क्या इस दुनिया में अब भी ऐसे लोग हैं, जो दहेज बिना शादी करने को तैयार हैं?'' सूरज की माँ ने दांतों तले उंगली दबाते हुए कहा।
सूरज उनकी बातें ध्यान से सुन रहा था। वह माँ-बाप के पास जाकर दबे स्वर में उनसे कुछ बोला। उसके पिता ने, तुरंत भूतों से कहा, ‘‘हम आपकी बेटी को देखने के इच्छुक हैं।''
भूतों के बुलाने पर कृष्णवेणी गाड़ी से उतरी। सूरज उसकी सुंदरता देखता ही रह गया। चांदनी में, सूरज की सुंदरता, शारीरिक बल और स्वस्थ शरीर को देखकर कृष्णवेणी ने लज्जा के मारे सिर झुका लिया।
भूतों ने यह देखते हुए उत्साह के साथ कहा, ‘‘इतनी लंबी अवधि के बाद एक ऐसा वर मिल ही गया, जिसे हमारी कृष्णवेणी ने पसंद किया।''
‘‘कन्या के अच्छे लगने मात्र से क्या शादी हो जायेगी? हम भी चाहते हैं कि हमारे बेटे की शादी एक सुंदर कन्या से हो। पर हमें मुँह माँगा दहेज चाहिये,''

सूरज की माँ ने कहा। सूरज, कृष्णवेणी के निकट आया और माता-पिता से बोला, ‘‘यह लड़की मुझे बहुत अच्छी लगी है।''
सूरज की माँ ने फ़ौरन कहा, ‘‘यह तो ठीक है, तुम्हें बहुत अच्छी लगी। पर, यह भी जानें, दहेज में मिलेगा क्या?''
‘‘कल भाद्रपद मास है। दो और महीनों तक विवाह का मुहूर्त नहीं है। हमारे गाँव के पुरोहित ने भी यही कहा था,'' सूरज ने माँ-बाप की ओर मुड़कर कहा।
‘‘फिर देरी किस बात की? मुख्य हम सब लोग यहाँ मौजूद हैं। अभी, यहीं यह विवाह हो जाए तो सब कुछ ठीक हो जायेगा,'' भूतों ने जल्दबाजी दिखाते हुए कहा।
सूरज की माँ ने स्पष्ट रूप से कड़वे स्वर में कहा, ‘‘दहेज आँखों के सामने दिखे, तभी यह शादी होगी।''
भूत तुरंत गाड़ी में से चार गठरियाँ ले आये और उनमें भरी अशर्फ़ियों को दिखाते हुए सूरज की माँ से कहा, ‘‘इसमें आपको जितना दहेज चाहिये, उतना तो है ही, साथ ही गाँववालों के भोज के लिए जितना खर्च होगा, उससे अधिक धन-राशि भी है।''
सूरज की माँ ने तुरंत वे गठरियाँ अपनी गाडी में रखवा दीं।
सूरज और कृष्णवेणी ने वहीं एक दूसरे की उँगली में अंगूठी भी पहना दी। यह सब होते-होते सबेरा होने जा रहा था।
नदी के पार के पर्वत पर स्थित मंदिर को दिखाते हुए कृष्णवेणी ने सूरज से कहा, ‘‘पहले वहाँ जाकर भगवान के दर्शन करेंगे। फिर, आपके गाँव जायेंगे।''
‘‘तुम पति-पत्नी जाओ और भगवान के दर्शन करके आओ। गाँव में भोज का प्रबंध भी तो करना है। हम गाँव पहुँचकर इस काम में लग जायेंगे।'' सूरज के पिता ने कहा।
‘‘ठीक है, किसी और किराये की बैलगाड़ी में हम लौट आयेंगे।'' सूरज ने कहा।
पानी भरा हुआ था। सूरज, कृष्णवेणी का हाथ पकड़कर उसे धीरे-धीरे ले जाने लगा। कृष्णवेणी को यह भय होने लगा कि अगर सूरज को मालूम हो जाए कि भूतों ने यह शादी करवायी तो क्या परिणाम होगा।

उसे लगा कि यह बात सूरज से छिपानी नहीं चाहिये। उसने धीमे स्वर में उससे कहा, ‘‘क्षमा कीजिये। मेरी शादी मेरे माता-पिता ने नहीं, भूतों ने करवायी है ।'' साथ ही कृष्णवेणी ने अपने बारे में सब कुछ बता दिया।
इतने में पीछे से बड़ा कोलाहल सुनायी पड़ा।
‘‘धोखा, बड़ा धोखा, उन गठरियों में सोने की अशर्फियाँ नहीं, राख ही राख और हड्डियाँ ही हड्डियाँ हैं।'' कहकर चिल्लाती हुई सूरज की माँ राख को नीचे गिरा रही थी।
यह सुनते ही भूत और भूतनी ने सूरज की माँ से कहा, ‘‘माँ जी, हमारी बहू दहेज नहीं लाई थी, इसलिए हमने उसे बहुत सताया। इसी वजह से हम मर कर भूत बन गये। आप भी ऐसा पाप मत कीजिये। नहीं तो हो सकता है, आप भी हमारी ही तरह भूत बन जाएँ। आप ही को निर्णय लेना होगा कि आपको भूत बनना है या अपनी बहू के साथ प्रशांत जीवन बिताना है। साथ ही यह भी याद रखियेगा, अगर आपने बहू को कोई हानि पहुँचायी तो हम आपको ऐसा पाठ सिखायेंगे, जिसे आप जीवन भर याद रखेंगे।'' यों कहकर वे गायब हो गये।
सूरज के माँ-बाप, बहन एक क्षण के लिए भय के मारे थरथर कांप उठे।
‘‘उनका रूप केवल भूतों का रूप है। पर, उनमें परोपकार बुद्धि भरी हुई है। आप लोग तो दहेज के पीछे पागल होकर पिशाच बन गये। वे भूत आपसे कहीं अच्छे हैं,'' कहता हुआ सूरज, पत्नी सहित वहाँ आया।
‘‘सूरज, अब हम संभल गये। हमारी बुद्धि ठिकाने आ गयी। अब जन्म-भर दहेज की बात ही नहीं उठायेंगे। हमें माफ़ करना। महालक्ष्मी जैसी बहू मिल गयी। फिर हमें और क्या चाहिये?'' माता-पिता ने कहा।
अपने माँ-बाप में आये परिवर्तन को देखकर सूरज बहुत खुश हुआ। उसने कृष्णवेणी के हाथों को बड़े प्यार से पकड़ लिया।

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