
दस साल की उम्र में पशुपति हरिधाम की पाठशाला में वेद सीखने के लिए प्रविष्ट हुआ। जब वह बीस साल की उम्र का हो गया, तब किसी गाँव में पुरोहित बनने के लिए गुरुओं का आशीर्वाद पाकर निकल पड़ा।
पशुपति जब राजवर नामक गाँव के पास आया, तब उसने देखा कि एक व्यक्ति अपने हाथ में शिवलिंग लिये पानी में उतर रहा है । पशुपति ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘महाशय, आप क्या करने जा रहे हैं?''
‘‘हमारे गाँव के शिव का मंदिर शिथिल हो गया था। उसका पुनःनिर्माण करके उसमें पुराने शिवलिंग की जगह नये शिवलिंग को प्रतिष्ठापित करने के लिए, काशी से यह शिवलिंग ले आया हूँ। पर, प्रतिष्ठापन के समय तक मैं नहीं आ पाया। इसलिए गाँववालों ने पुराने शिवलिंग का ही प्रतिष्ठापन कर दिया। इसी कारण से इस शिवलिंग का जल-निमज्जन कर रहा हूँ'', चिंता-भरे स्वर में उस आदमी ने कहा।
‘‘महाशय, काशी से लाया हुआ शिवलिंग सर्वथा पूजा करने योग्य है। एक ही मंदिर में कितने भी लिंग हो सकते हैं। वेदों का भी यही कहना है। पुराने लिंग के साथ इसका भी प्रतिष्ठापन कीजिये। दो शिवलिंगों के मंदिर के नाम से यह गाँव प्रख्यात होगा। शायद यही दैव संकल्प भी होगा। आपके ग्रामीणों को मैं समझाऊँगा। चलिये, गाँव में चलते हैं'', पशुपति ने कहा।
पशुपति की राय को सब ग्रामीणों ने स्वीकार किया। दो शिवलिंगों के प्रतिष्ठापन के बाद नया मंदिर बहुत ही आकर्षक लगने लगा। प्रतिष्ठापन के समय पशुपति ने वेद मंत्रों का उच्चारण किया। जनता को उसके पढ़ने की पद्धति बहुत ही अच्छी लगी।
उन सबने चाहा कि वह उसी गाँव में रह जाए। काशी से जो व्यक्ति शिवलिंग ले आया था, उसका नाम भूषण था और वह बहुत बड़ा भूस्वामी था। उससे लाये गये शिवलिंग को गाँव के मंदिर में ही प्रतिष्ठापित करने में सफलता मिली, पशुपति के कारण। इसलिए उसने एक एकड़ का उपजाऊ खेत उसे दान में दिया जिससे वह उसी गाँव में बस जाए। पशुपति का अपना कोई नहीं था, इसलिए उसने भी उसी गाँव में बस जाने का निर्णय किया।

शिवलिंग के प्रतिष्ठापन के बाद पाँच दिनों तक उत्सव हुए। उस दौरान शिवालय के पुजारी की बेटी दुर्गा ने शिव लीलाओं को लेकर कथा गान किया, जो भक्तों को बेहद पसंद आया। अंतिम दिन उसने नंदीश्वर की कथा सुनायी। उसे सुनकर बसवेश्वर नामक गाँव के एक प्रमुख व्यक्ति ने कहा, ‘‘कहते हैं कि कथा सुननेवाले को दूध देनेवाली गाय, और जो कथा सुनाते हैं, उन्हें एक गाभिन गाय दान में देनी चाहिये। इसलिए पुजारी की बेटी को एक गाभिन गाय दान में दे रहा हूँ।''
दान में दी गयी गाय ने थोड़े ही समय के बाद जुड़वें बछड़ों को जन्म दिया। यह जानकर लोग कहने लगे कि नंदीश्वर ने बछड़ों के रूप में जन्म लिया और बछड़ों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। लोगों ने नंदीश्वर के प्रतिरूपों के इन बछड़ों को शिवार्पण करके दागकर सांड बनाकर मुक्त कर दिया, जिससे वे गाँव में जहाँ चाहें, जा सकें।
जब नादियावालों को यह बात मालूम हुई, तब गाँव के प्रमुखों को नमस्कार करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘महाशय, शिव नृत्य-प्रिय हैं। हमारे नादिया खेल पर वे प्रसन्न हुए होंगे। अपने एक बछड़े को हमारे सुपुर्द कीजिये। इसे खेल सिखाएँगे और हर शिवरात्रि उत्सव के समय इसे यहाँ ले आयेंगे।''
परंतु, वहाँ उपस्थित पशुपति ने कहा, ‘‘यह तो चार साल के बाद की बात है। तभी जाकर ये बछड़े बड़े होंगे। तिसपर ये पुजारी के हैं। उनकी भी राय तो लेनी चाहिये न?'' सबने पशुपति की बात का समर्थन किया।
दूसरे दिन शाम को पशुपति जब नदी के किनारे बैठा हुआ था, तब पास के गाँव में जाते हुए नादियावाले दिखायी पड़े। उनके साथ चार-पाँच नादिया सांड भी थे। उनके साथ एक बछड़ा भी था, जो लंगड़ाते हुए जा रहा था। उस बछड़े को देखकर उसका मन खिन्न हो उठा। पशुपति को लगा कि वह उसी की ओर बड़ी ही दीनता के साथ देख रहा है। थोड़ी देर बाद उसने एक सांड को खेत में चरते हुए देखा। वह उसके पास गया और उसे ग़ौर से देखते हुए उसकी पीठ को थपथपाया। फिर वह नदी के किनारे पर आ गया। वह सांड उसके पीछे-पीछे चला आया।

नदी के किनारे एक बड़ा बरगद का पेड़ था। चूँकि वह शनिवार का दिन था, पुजारी की बेटी दुर्गा बरगद के पेड़ की पूजा करने वहाँ आयी हुई थी। पुजारी की बेटी ने देखा कि उस सांड के शरीर पर चोटें हैं । उसने पशुपति से पूछा, ‘‘ऐसा कैसे हुआ?''
‘‘कहने के लिए क्या रखा है? यह सब तो हम लोगों का ही काम है। देवलोक के लिए यह कामधेनु है तो यह भूलोक की पशु संपदा है। यह फसलों का मूल आधार है। हमारे पूर्वज इन्हें दैव समान मानते थे। इनकी पूजा करते थे। कुछ लोग तो भगवान को गायों में देखते हैं। दागकर छोड़ा गयासांड इसी संप्रदाय का है। दाग कर छोड़े गये बछड़े को सब लोग नंदीश्वर समझते थे। घर के आंगन में आ जाए तो छाज में चावल भरकर देते थे। वह फसल चरे भी तो उसे मारते नहीं थे। किन्तु अब स्थिति भिन्न होती जा रही है। पशुओं से अपने स्वार्थ वश अधिक से अधिक काम लेते हैं और उसकी देखभाल ठीक से नहीं करते। सांडों के प्रति धार्मिक भावना भी खत्म होती जा रही है। हमलोग बहुत निर्दय हो गये हैं। लगता है, उस सांड को किसी ने खूब पीटा। नादियावाले भी खेल सिखाने के लिए उसे खूब सताते हैं, उसे मारते-पीटते हैं। जब तक बछड़ा खेल नहीं सीखता, तब तक उसे भूखा रखते हैं। इनकी दयनीय दशा को देखकर दया आती है।'' दुखी स्वर में पशुपति ने कहा।
‘‘हाँ, आपने बिलकुल ही ठीक कहा। आप तो वेद पंडित हैं। इस दुःस्थिति से इन्हें उबारने के लिए आपने अवश्य ही कुछ सोचा होगा'', कहती हुई दुर्गा वहाँ से निकली।

पशुपति सोच में पड़ गया। सवेरे तक वह एक निर्णय पर आया और गाँव के प्रमुखों से मिलकर कहा, ‘‘भूषणजी ने दान में जो खेत दिया, उसे पशु पोषण के लिए उपयोग में ले आना चाहता हूँ। गाँव में घूमते रहनेवाले सांडों की ज़रूरतों की देखभाल करते हुए गोशाला का प्रबंध करना चाहता हूँ और उस किसान को वह खेत दे देना चाहता हूँ जो पशुओं की देखभाल अच्छी तरह से करेगा।''
‘‘तब अपनी जीविका के लिए क्या करोगे?'' गाँव के एक प्रमुख ने पूछा।
‘‘मैंने नहीं सोचा था कि वह खेत मुझे दिया जायेगा। यह भगवान की दया से प्राप्त हुआ है, जिसकी मुझे आशा नहीं थी। उस खेत को नंदीश्वर की सेवा में समर्पित करूँगा। मैंने जो वेद विद्या सीखी, वही मेरे जीवन-निर्वाह का कोई मार्ग दिखायेगा। इसलिए मैंने निर्णय किया है कि मैं उस खेत को समर्पित कर इस गाँव को छोड़ आज ही मैं कोई और गाँव चला जाऊँगा'', पशुपति ने कहा।
उसका यह निर्णय सुनकर लोगों को बहुत दुःख हुआ। वे लोग नहीं चाहते थे कि पशुपति उनका गाँव छोड़कर कहीं जाये।
वहाँ उपस्थित शिवालय के पुजारी ने उसकी बातें सुनकर कहा, ‘‘पुत्र पशुपति, वेद मंत्रों के साथ-साथ पशु संपदा पर तुम्हारा जो प्रेम और श्रद्धा है, वह बहुत ही प्रशंसनीय है। तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो तुम जैसे उत्तम व्यक्ति से अपनी इकलौती बेटी दुर्गा का विवाह कराना चाहता हूँ। यदि तुम्हें स्वीकार हो तो इसे अपना सौभाग्य समझूँगा। तुम्हें कहीं और जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हमारे ही साथ रहो, पुरोहित का काम संभालो और सुखी जीवन बिताओ।''
‘‘आपकी पुत्री को यह स्वीकार हो तो अपना भाग्य समझूँगा, क्योंकि उसे सरस्वती की कृपा प्राप्त है।'' पशुपति ने मुस्कुराते हुए कहा।
अच्छे मुहूर्त पर गाँव के प्रमुखों के समक्ष दुर्गा-पशुपति का विवाह निराडंबर संपन्न हुआ।
वधू-वर ने निश्चय किया कि बसवेश्वर के दिये गये गाय-बछड़ों की देखभाल का भार स्वयं उठायेंगे। उनके निर्णय की प्रशंसा गाँववालों ने की। पशु-पोषण के लिए उसने जो निष्कर दिया, इसलिए पशुपति निष्कर कहलाने लगा।

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