
शवनागसेन धर्मपुरी राज्य का शासक था। वह रानी मणिचंद्रिका को बेहद चाहता था। मणिचंद्रिका में सुगुणों की भरमार थी। बस, एकमात्र उसकी कमज़ोरी थी, किसी भी रहस्य को छिपा न पाना।
विवाह के प्रारंभिक दिनों में ही शिवनागसेन ने उसकी इस कमज़ोरी को भांप लिया और उससे कहा, ‘‘विश्वसनीय किसी सहेली मात्र से ये रहस्य बताना। उसे अपने साथ अंतःपुर में ही रख लेना। इससे किसी और को इन रहस्यों का पता नहीं चलेगा।''
तब मणिचंद्रिका ने कहा, ‘‘ऐसी विश्वसनीय किसी सहेली को भी आप ही चुनिये।'' फिर उसने चंद सहेलियों का नाम बताया। शिवनागसेन ने उसकी सहेलियों के बारे में गुप्तचरों के द्वारा जानकारी प्राप्त की और मंजरी को इस काम के लिए चुना।
तब से लेकर महाराज अपने मन की बातें खुलकर रानी से कहते रहते थे। इनमें अंतःपुर के रहस्य भी शामिल थे। मंजरी किसी भी परिस्थिति में महारानी के बताये गयेरहस्यों को किसी दूसरे से कहती नहीं थी। महारानी उसकी ईमानदारी पर बहुत खुश होती थी और समय-समय पर उसे भेंट दिया करती थी। महाराज को भी इस बात पर आनंद हुआ कि उनका चुनाव सही निकला।
यों कुछ साल बीत गये। मंजरी अब वृद्धावस्था में पहुँच गयी। एक बार वह सख्त बीमार पड़ गयी। राजवैद्यों ने उसकी चिकित्सा की, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अकस्मात् एक दिन वह मर गयी। मंजरी की मृत्यु पर महारानी को बड़ा दुख हुआ। अपने मन की बातें अब वह भला किससे कहे? महाराज ने देखा कि महारानी इस विषय को लेकर बहुत परेशान और दुखी है। उन्होंने उससे कहा भी, ‘‘जब तक मंजरी जैसी सहेली नहीं मिलेगी, तब तक यह परेशानी दूर नहीं होगी।''
‘‘हाँ महराज, विवाह के प्रारंभिक दिनों में अपने मन की बातें बताने के लिए आप ही ने मंजरी को चुना। ऐसी सहेली ढूँढ़ने पर भी कोई नहीं मिलेगी।''

‘‘कोशिश करने पर यह कोई कठिन कार्य नहीं। तुम्हारे मन में ऐसी कोई सहेली हो तो बताना,'' महाराज ने कहा। ‘‘मंजरी की एक बेटी है। उसे दासी बनाकर अंतःपुर में रख लेंगे तो ठीक होगा। मेरी दृष्टि में वह भी अपनी मॉं की ही तरह विश्वासपात्र है,'' रानी ने कहा।
राजा ने मंजरी की बेटी चंद्रिका के बारे में तहकीकात की। मालूम हुआ कि चंद्रिका स्वभाव से काफी अच्छी लड़की है। पर, वह छोटी बात को भी दूसरे से बताये बिना चुप नहीं रह सकती। उसे जो विषय मालूम है, उसे बताने के लिए वह लोगों को इकठ्ठा भी करती है। तब तक उसे नींद ही नहीं आती।
महाराज को चंद्रिका के बारे में मालूम हुआ। वह महारानी से यह बताये, इसके पहले ही रानी ने चंद्रिका को बुलाकर कहा, ‘‘तुम्हें अंतःपुर में दासी बना रही हूँ।'' फिर साथ रहने के लिए उसने आवश्यक इंतज़ाम भी किया।
महाराज यह नहीं चाहते थे कि वे चंद्रिका के स्वभाव के बारे में रानी से कहें और उसका मन दुखावें, इसलिए वे चुप रह गये। पर, चंद्रिका की चर्चाओं पर निगरानी रखने के लिए एक गुप्तचर को यह काम सौंपा।
एक रात को महाराज ने बातों-बातों में महारानी से कहा, ‘‘अपनी परिचारिका चंद्रिका से क्या-क्या रहस्य बताया?''
‘‘मैंने उससे कहा कि जयपुर के राजा हम पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। आप तो जानते ही हैं कि अपने मन की बात किसी से बताये बिना चुप नहीं रह सकती।'' रानी ने कहा।
यह जानकर राजा परेशान हो उठे। उन्हें इस बात पर भय हुआ कि लोगों को यह रहस्य मालूम हो जाए तो वे भयभीत हो जायेंगे और राज्य भर में खलबली मच जायेगी। उन्होंने रानी के सामने यह परेशानी नहीं दिखायी। दूसरे दिन सवेरे उन्होंने उस गुप्तचर को बुलाया और उससे पूछा कि चंद्रिका कहाँ-कहाँ गयी और किस-किस से मिली।

‘‘महाराज, चंद्रिका के घर के सब लोग एक विवाह में उपस्थित होने के लिए लक्ष्मीपुर गये हैं। चंद्रिका रात भर नहीं सोयी और बहुत देर तक घर ही में घूमती रही। फिर वह अन्नपूर्णा देवी मंदिर गयी और वहीं बहुत समय तक ध्यानमग्न रही।'' गुप्तचर यह बताकर चला गया।
थोड़ी देर बाद अंतःपुर में आयी चंद्रिका ने महारानी से कहा, ‘‘मंदिर हो आयी हूँ। यह प्रसाद स्वीकार कीजिए।''
महाराज ने तभी अंतःपुर में प्रवेश किया और यह दृश्य भी देखा। उन्होंने पूछा, ‘‘तुमने देवी से क्या माँगा?'' चंद्रिका ने विनयपूर्वक महाराज को प्रणाम किया और कहा, ‘‘महाराज, मैं कोई भी बात छिपा नहीं सकती। पहले से ही यह मेरी आदत है। यह मेरी कमज़ोरी है। अंतःपुर में परिचारिका बनने से पहले किसी से कुछ कह भी देती तो उससे कोई नु़क्सान नहीं पहुँचता। मैं अब अंतःपुर की दासी हूँ। दिवंगत मेरी माँ मुझसे बारंबार कहा करती थी कि अंतःपुर का कोई रहस्य प्रकट हो जाए तो अनर्थ हो जायेगा। वह मुझे सिखाती भी थी कि उसके मर जाने के बाद मैं उस जगह पर महारानी की दासी बनूँगी तो मुझे कितनी सावधानी बरतनी होगी। इसीलिए जब महारानी ने छिड़नेवाली लड़ाई के बारे में मुझसे बताया तो मुझसे चुप रहा नहीं गया। परंतु मैंने अपने को नियंत्रण में रखा और जाकर फौरन माणँ की समाधि के सामने झुक गयी और मन की बात बता दी। साथ ही मैंने देवी से प्रार्थना भी की कि यह युद्ध न हो।''
महाराज ने यह सुनकर चंद्रिका का अभिनंदन किया और अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर उसे दी। फिर उन्होंने रानी से कहा, ‘‘अपने मन की बात बताने के लिए तुम्हें एक अच्छी सहेली मिल गयी। अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं।''
इसके बाद, जो कोई भी चंद्रिका से पूछे कि महाराज ने यह अंगूठी क्यों दी तो वह सबसे यही कहती, ‘‘यह तो अंतःपुर का रहस्य है।'' असली बात उसने किसी से भी नहीं कही।

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