Thursday, June 30, 2011

राजोचित आचरण का सर्वोत्तम रूप

सुवर्णपुर का राजा सुवल देव वीर और महत्वाकांक्षी था। उसके पड़ोसी राज्य व्रतशिला से उसकी खान्दानी दुश्मनी थी। यद्यपि व्रतशिला के वर्तमान राजा से उसे कोई ख़तरा नहीं था,फिर भी यह निश्चित नहीं था कि भविष्य में शत्रु आक्रमण नहीं करेगा।

क्योंकि उसके पास एक शक्तिशाली सेना थी, उसने शत्रु पर आक्रमण कर उसे सदा के लिए खत्म कर देना चाहा।
सुवल देव की रानी को यह अच्छा नहीं लगा। ‘‘मेरे स्वामी, जबकि अभी शान्ति बनी हुई है तब हम युद्ध क्यों करें? हमने सुना है कि व्रतशिला का राजा अस्वस्थ है। हमारे गुप्तचरों का कहना है कि अभी जिस परिस्थिति में वे हैं, वे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। फिर जब हम मित्र बन कर रह सकते हैं, तब शत्रुता क्यों मोल लें?’’

मंत्री ने रानी का समर्थन किया, ‘‘प्रभु, यह सही है कि वहॉं के पूर्व राजा ने हमारे प्रति विश्वासघात किया था, परन्तु आज की स्थिति भिन्न है। वर्तमान राजा भद्र और शान्तिप्रिय है। युद्ध की आशंका से हम पूर्ण रूप से कभी भी आश्वस्त नहीं हो सकते, यह सच है। लेकिन व्रतशिला का राजा रुग्ण है और उसकी प्रजा उसे बहुत चाहती है। उसके पुत्र युवराज को प्रजा और भी अधिक प्यार करती है। हम उसकी सेना को हरा भी दें, तब भी व्रतशिला की प्रजा विद्रोह कर सकती है और हमें कभी शान्ति से रहने नहीं देगी।’’


‘‘कौन जानता है कि राजा की मृत्यु के पश्चात लोकप्रिय राजकुमार हमारे लिए संकट नहीं बनेगा। अच्छा यही होगा कि हम अभी आक्रमण कर उस राज्य को अपने राज्य में मिला लें क्योंकि अभी हम वैसा करने की परिस्थिति में हैं। यदि वे विद्रोह करेंगे तो उसे दवा दिया जायेगा। बस।’’ राजा सुवल देव ने कहा।

अतः सुवर्णपुर की सेना ने व्रतशिला राज्य पर आक्रमण कर दिया। सुवलदेव यह देख कर चकित रह गया कि व्रतशिला के राजा ने अस्वस्थ रहते हुए भी न केवल सेना का स्वयं नेतृत्व किया वरन सामने से, उसके ऊपर आक्रमण कर उसे घायल कर दिया। किन्तु फिर भी अपने शत्रु को मारने में सुवलदेव सफल हो गया। युद्ध में उसकी विजय हुई। व्रतशिला राज्य सुवर्णपुर राज्य में मिला लिया गया। जो भी हो, इस जीत से सुवल देव को खुशी नहीं मिली, क्योंकि उसका जख्म दिन व दिन बिगड़ता गया और एक साल तक असह्य पीड़ा झेलने के बाद परलोक सिधार गया।

उसके सिर्फ एक बेटी थी। रानी ने किसी उदात्त चरित्र के बालक को गोद लेने का निश्चय किया। मंत्री और कुछ दरबारी राज्य में किसी योग्य युवक की तलाश में घूमने लगे।

एक सप्ताह के पश्चात मंत्री ने सोचा कि निकट के जंगल में स्थित सुविख्यात ऋषि के गुरुकुल में अध्ययन करनेवाले छात्रों पर नजर रखने में बुद्धिमानी होगी। एक दिन सूर्यास्त के समय वह अपने साथियों के साथ यात्रियों के वेश में एक शिला पर बैठ कर उपवन के निकट खेलते हुए गुरुकुल के विद्यार्थियों को देखने लगा। उनमें से एक बालक सबके प्रेम और आदर का पात्र था और गौरवान्वित भी प्रतीत होता था। जब वे खेल रहे थे तब अचानक उसके ललाट पर कहीं से एक पत्थर आकर लग गया। और खून बहने लगा। उसके कुछ साथी रस निकालने के लिए कुछ जड़ी-बूटियों की तलाश करने लगे तथा कुछ अन्य साथी पत्थर फेंकनेवाले को ढूँढने के लिए विभिन्न दिशाओं में भागे। वे उपवन के दूसरी ओर से एक व्यक्ति को पकड़ लाये और अपने नेता के सामने उसे प्रस्तुत किया।
‘‘इसे अवश्य सजा मिलनी चाहिये।’’ एक ने कहा।

‘‘निश्चय ही, चलें, हमसब इसके ललाट पर पत्थर से मारें।’’ दूसरे ने कहा।


लेकिन उसके नेता ने शान्त होकर पूछा, ‘‘तुमने पत्थर किसलिए फेंका?’’ ‘‘मैं बहुत भूखा था। मैंने एक पेड़ की ऊँची शाखा पर एक पका हुआ अमरूद देखा। मैं इसे तोड़ना चाहता था।’’ उस व्यक्ति ने अपराध भाव से कहा।

‘‘क्या तुम्हें अमरूद मिल गया?’’ छात्रों के नेता ने पूछा।

‘‘हॉं, बिलकुल मिल गया। लेकिन दुःख है कि मैं इसे खा चुका।’’ उस व्यक्ति ने कहा।

‘‘उम्मीद है, अब तुम्हारी भूख मिट गई होगी।’’ युवक ने फिर पूछा।

उस व्यक्ति ने हिचकिचाते हुए कहा, ‘‘जी, जी, हॉं, अब मैं किसी तरह जंगल पार कर गॉंव तक चल सकता हूँ और वहॉं के मन्दिर में जाकर भोजन ले सकता हूँ। यदि मैं फल न खाता तो सम्भवतः अचेत हो जाता।’’

‘‘आ जाओ, हम तुम्हें आश्रम भोजनालय में खाना खिलायेंगे। अन्धेरा छाने लगा है। जंगल से होकर अब जाना खतरे से खाली नहीं है। तुम सवेरे चले जाना।’’ अपनी कुटिया में उस व्यक्ति को ले जाते हुए युवक ने कहा।

‘‘यह क्या मित्र? जिसने तुम्हें चोट पहुँचाई क्या उसे तुम मदद करोगे?’’ उसके साथियों ने पूछा।

‘‘मेरे मित्र, जब इसने वृक्ष को पत्थर से मारा तब वृक्ष ने इसके साथ क्या किया? क्या उसने इसे अपना फल नहीं दिया? यदि वृक्ष ऐसा कर सकता है तब वैसे ही चोट खाने पर मुझे मनुष्य होने के नाते क्या उससे अच्छा व्यवहार नहीं करना चाहिये? यदि वृक्ष ने उसे एक अमरूद दिया तब मुझे भोजन अवश्य देना चाहिये।’’ युवक ने उत्तर दिया।

‘‘यह राजोचित आचरण का सर्वोत्तम रूप है। विलक्षण! यह बालक कौन हो सकता है?’’ मंत्री ने, जो उनके वार्तालाप को सुन रहा था, अपने साथियों से धीरे से कहा।
चकित मंत्री अपने साथियों के साथ बालकों के पीछे-पीछे गुरुकुल में गया और उस विलक्षण बालक के बारे में जानने के लिए ऋषि से मिला। वह बालक व्रतशिला का राजकुमार था।

रानी के इच्छानुसार मंत्री व्रतशिला की रानी से मिला और फिर दोनों रानियों ने परस्पर बातचीत की। सुवर्णपुर की राजकुमारी और व्रतशिला के राजकुमार परिणय बन्धन में बन्ध गये। कहना न होगा कि राजकुमार दो सम्मिलित राज्यों का राजा बन गया और सचमुच वह एक बुद्धिमान और दयालु शासक सिद्ध हुआ।


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