
सोमशर्मा धनी परिवार का था। जब से उसने विद्याभ्यास शुरू किया, तब से वह काव्यों का पठन करता था और दूसरों को उनकी कहानियाँ बताता रहता था। कहानियों को बताने की उसकी पद्धति बड़ी ही निराली थी, इसलिए उसके मित्रों ने उसे महाकवि की उपाधि प्रदान की। वे उससे कहा करते थे, ‘‘तुम भी कोई महाकाव्य रचो, महाकवि की उपाधि को सार्थक करो।''
‘‘पांडवों के अज्ञातवास की कहानी मुझे बेहद पसंद है। उस कहानी को काव्य के रूप में रचूँगा। वह भी, शिक्षा की पूर्ति के बाद,'' सोमशर्मा ने उन्हें आश्र्वासन देते हुए कहा।
थोड़े ही समय में सोमशर्मा की शिक्षा पूरी हुई। मित्रों ने उसे काव्य रचने के लिए प्रोत्साहन दिया। उसने उनसे कहा, ‘‘तालपत्रों पर रचित कहानी को पढ़ने से मुझमें उत्साह पैदा होता है। परंतु स्वयं लेखनी हाथ में लेकर अक्षर लिखना मुझसे नहीं हो पाता। मुझपर सुस्ती हावी हो जाती है। इसलिए अच्छा यही होगा कि मैं कविता सुनाते जाऊँगा और तुममें से कोई उसे लिख लेना।''
सोमशर्मा के दो मित्र यह काम करने को आगे आये। सोमशर्मा ने उनसे कहा, ‘‘मन में उत्साह हो, तभी मैं कविता बता पाता हूँ। जब चाहो, तब कविता बताना मेरे बस की बात नहीं है। इसलिए तुम दोनों मेरे घर आ जाना, हमेशा मेरे ही साथ रहना और जब मैं कुछ कहूँ, उसे लिख लेना।''
‘‘यह हमसे नहीं हो सकता। सुस्ती तजो और खुद लिखने का अभ्यास करो। नहीं तो, यथाशीघ्र विवाह कर लो। चूँकि तुम्हारी पत्नी सदा तुम्हारे ही संग रहेगी, वह तुम्हारी बतायी कविता लिपिबद्ध करती रहेगी।''
कुछ समय बाद सोमशर्मा का विवाह सुचला नामक युवती से संपन्न हुआ। उसके मित्र सुचला से मिले और कहा, ‘‘तुम्हारा पति महाकवि है। उससे काव्य रचाना तुम्हारी जिम्मेदारी है।''
सुचला ने यह जिम्मेदारी स्वीकार कर ली । परंतु दिन भर वह घरेलू कामों में लगी रहती थी। अंधेरा हो जाने के बाद सोमशर्मा सो जाना पसंद करता था और कविता पर उसकी दृष्टि होती नहीं थी। फिर भी कभी-कभार वह एक दो कविताएँ बता देता था और यों एक साल के अंदर वह केवल बीस कविताएँ बता पाया।

मित्रों ने उन कविताओं को सुनकर कहा,‘‘तुम्हारी कविता श्रेष्ठ है। सुस्ती को त्याग कर काव्य को पूरा करो।''
उनकी प्रशंसाओं ने सोमशर्मा का उत्साह बढ़ाया और उसने यथाशीघ्र काव्य रचने का निश्चय किया। परंतु उसी दिन सुचला को मायका ले जाने उसके सास-ससुर आये। सोमशर्मा ने सुचला से कहा, ‘‘जब तक तुम नहीं लौटोगी, तब तक मेरे काव्य को लिपिबद्ध कौन करेगा?''
इसपर सुचला ने हँसते हुए कहा, ‘‘लौटने के बाद भी मैं समय नहीं दे सकती, क्योंकि नवजात शिशु की देखभाल करनी होगी। इसलिए सुस्ती छोड़ अपना काव्य स्वयं लिखिये।''
सुचला थोड़े ही दिनों में मॉं बनकर लौटी। परंतु सोमशर्मा बीस कविताओं तक ही सीमित रहा। इसपर उसे दुख हुआ, पर पति की कविता लिखने के लिए समय नहीं दे पायी।
जब मित्रों को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने सोमशर्मा से कहा, ‘‘हर किसी में कविता बताने की शक्ति व योग्यता नहीं होती। हमारी बात मानो, सुस्ती छोड़ो और काव्य को पूरा करो।''
‘‘तुम लोग मेरे निकट दोस्त हो। तुम्हारे कहने मात्र से मैं बड़ा कवि बन नहीं जाता। कोई महान कवि जब तक नहीं कहता, तब तक मुझमें उत्साह पैदा नहीं होगा।'' सोमशर्मा ने कहा।
तब उसके दोस्तों ने, राजा से सम्मानित सारस्वत नामक कवि को निमंत्रित किया और उसे सोमशर्मा के घर ले आये। उन्होंने सोमशर्मा की कविताओं को पढ़ने के बाद कहा, ‘‘सरस्वती तुमपर प्रसन्न हैं। जल्दी ही काव्य पूरा करवाऊँगा और राज सम्मान दिलाऊँगा, यह मेरी जिम्मेदारी है।'' यों कहकर वह चला गया।
सोमशर्मा ने मित्रों से कहा, ‘‘सरस्वती की कृपा अगर मुझ पर हो तो समय आने पर वे ही मेरी सुस्ती भगायेंगी और मुझसे कविता लिखवायेंगी। तब तक प्रतीक्षा करूँगा।''
इतने में तेज नामक एक योगी उस गाँव में आया और वहीं रहने लगा। उस योगी का कहना था कि सुस्ती और शिथिलता मनुष्य के लिए शाप हैं। गाँव भर में इसका खूब प्रचार हुआ कि वह योगी सुस्ती व शिथिलता को दूर भगाता है और इसके लिए आवश्यक उपाय सुझाता है। सोमशर्मा के मित्र उसे उसके पास ले गये।


तेज ने सोमशर्मा से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे और सुस्ती भगाने के कई नुस्खे दिये।
सोमशर्मा ने योगी से बताया कि वह इन सबका प्रयोग कर चुका है और इनमें से किसी भी नुस्खे ने उसपर कोई प्रभाव नहीं दिखाया।
तेज ने यह सुनकर निराश होते हुए कहा, ‘‘युवक, मैं अब तक यही समझता रहा कि मेरे लिए कोई भी काम असंभव नहीं है। लेकिन तुम्हारी सुस्ती को मिटाना मुझसे संभव नहीं है।''
सोमशर्मा मुस्कुराकर वहाँ से चलता बना, परंतु उसके मित्र उसके साथ नहीं गये। उन्होंने तेज से कहा, ‘‘स्वामी, विचित्र बात यह है कि आपने इतनी आसानी से अपनी हार मान ली।''
तेज ने मंदहास करते हुए कहा, ‘‘पुत्रो, जो अपनी सुस्ती को लेकर बहुत शर्मिंदा थे और सुस्ती को दूर भगाना चाहते थे, उनपर मेरे नुस्खों ने बड़ा ही प्रभाव डाला। सोमशर्मा अपनी सुस्ती पर शरमाता नहीं उल्टे उसे उसपर गर्व है। कविता करने से ज़्यादा सुस्त कहलाना ही उसे अधिक पसंद है। इसी वजह से मेरे नुस्खे कोई प्रभाव दिखा नहीं रहे हैं।''
‘‘तो क्या उससे काव्य की रचना कराने का हमारा सपना इस जन्म में पूरा नहीं होगा?'' मित्रों ने योगी से पूछा।
तेज ने कहा, ‘‘सच्चे कवि काव्य की रचना करने में सुस्ती नहीं दिखाते। सोमशर्मा में अपने को कवि कहलाने की अदम्य इच्छा है, पर उसमें काव्य रचने की योग्यता नहीं है। इसलिए सुस्ती की आड़ में वह अपनी कमज़ोरी को छिपा रहा है। कुछ महान कवियों ने काव्य लिखने के लिए उसे प्रोत्साहित भी किया, पर वह टस से मस न हुआ। भला, वह महाकवि कैसे हो सकता है? आगे से उसे महाकवि मत कहिये, महासुस्त कहिये। आज ही मैं तीर्थ यात्रा पर निकल रहा हूँ। तीन-चार महीनों में यहाँ लौटकर आऊँगा।''
तेज ने सोमशर्मा के बारे में जो कहा, उसका गाँव भर में खूब प्रचार हुआ। उस दिन से लोग सोमशर्मा को महाकवि नहीं, महासुस्त कहकर संबोधित करने लगे। यह सुनकर सोमशर्मा अपमान के भार से झुक गया। जो एक दिन महाकवि कहलाता था, आज वह महासुस्त कहलाया जाने लगा। कैसी विडंबना!
सोमशर्मा में भावोद्वेग उमड़ पड़ा। अपने को सचमुच ही महाकवि साबित करने की प्रबल इच्छा उसमें जगी। उसने स्वयं लेखनी हाथ में ली और रात-दिन काव्य रचना के काम में तल्लीन हो गया। एकाग्रता के साथ उसने परिश्रम किया और यों तीन महीनों के अंदर ही उसने काव्य रच डाला। उसका राज सम्मान हुआ। अब लोग मुक्तकंठ से उसे महाकवि कहने लगे। अब कोई भी उसे सुस्त कहने का साहस नहीं करता।
चार महीनों के बाद तेज उस गाँव में फिर आया। सोमशर्मा के मित्रों ने उसके बारे में बताने के बाद कहा, ‘‘योगिवर, आपके जिन नुस्खों ने काम नहीं किया, वह काम हमारे मित्र के आग्रह ने कर दिखाया।'' गर्व-भरे स्वर में उन्होंने कहा।
तेज ने हँसते हुए सिर हिलाया और कहा, ‘‘पुत्रो, अटल संकल्प से सब कुछ साधा जा सकता है। संकल्प व आग्रह के अभाव में कुछ भी साधा नहीं जा सकता। मेरे नुस्खे मनुष्य में हठ उत्पन्न करने के लिए उपयोग में आते हैं। तुम लोगों ने परिश्रम किये बिना सोमशर्मा को महाकवि बनाया। तुम लोगों के द्वारा मैंने प्रचार किया कि वह महाकवि नहीं, महासुस्त है। इससे उसके आत्माभिमान को ठेस लगी, उसमें तीव्र क्षोभ पैदा हुआ, उसे अपने ऊपर ग्लानि हुई और भावोद्वेग के वश में आकर अन्त में उसने संकल्प किया। उसकी सोई हुई शक्ति जाग गई। फलस्वरूप उसकी प्रतिभा उभर आयी और उसने उसे काव्य रचने का प्रोत्साहन दिया। मेरे उपाय ने ही सच पूछो तो अप्रत्यक्ष रूप से काम किया और उसकी सुस्ती भगा दी और एक अच्छा काव्य रचवाया। जो भी हुआ, अच्छा ही हुआ।''

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