Thursday, June 30, 2011

सावरकर की दुस्साहसपूर्ण वीरता

सन् 1909 में पहली जुलाई को लंदन नगर स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। ब्रिटिश भारतीय सरकार के सर कर्जन विलि को गोली से मार दिया गया। मारनेवाला था, इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त कर रहा गुप्त भारतीय क्रांतिकारी संस्था का कार्यकर्ता मदनलाल धिंग्र।
फ़ौरन ही प्रमुख अंग्रेजों तथा लन्दनवासी भारतीयों ने एक सभा आयोजित कर इस हत्या की भर्त्सना करते हुए प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव का विरोध किया, केवल एक व्यक्ति ने। सबने उस ओर मुड़कर देखा। वहाँ खड़ा था, दुबला-पतला सावरकर। वहाँ उपस्थित लोग चिल्ला पड़े, ‘‘उसे लात मारो और बाहर निकालो''। इतने में एक क्रोधित व्यक्ति उसके पास गया और उसने सावरकर के मुँह पर जोर से घूँसा मारा। इससे उसकी आँखों के पास चोट लगी और खून बहने लगा। फिर भी सावरकर ने अपना दायाँ हाथ उठाया और दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘अब भी मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ।''
विनायक दामोदर सावरकर 1883 में मई 28 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर नामक गॉंव में जन्मे। उनके पिता पंडित थे। वे दामोदर सावरकर को बचपन से ही ऐतिहासिक कथाएँ और राणा प्रताप व शिवाजी की वीरगाथाएँ सुनाया करते थे।
बहुत ही कम उम्र में उनके हृदय में कविता के प्रति रुचि उत्पन्न की गई और देशभक्ति के बीज बोये गये। पाँच साल की उम्र में ही वे अपनी मातृभाषा मराठी में गीत रचने लगे। बारह साल की उम्र में ही उनके लिखे लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। सहविद्यार्थी उन्हें पंडित, वक्ता और नेता मानकर उनका आदर करते थे ।
सन् 1897 में तब के बंबई के परगणे में उग्र आंदोलन शुरू हो गये। भारत देश में रहनेवाले कुछ क्रूर ब्रिटिश अधिकारियों की हत्याएँ की गयीं। भारत की स्वतंत्रता के लिए जिन-जिन क्रांतिकारियों ने ये हत्याएँ कीं, उन्हें मृत्यु दंड दिया गया।

मृत्यु दंड जिस दिन अमल में लाया जाना था, उस दिन वे शांति से भगवद्गीता के श्लोकों का पठन कर रहे थे। इन दृश्यों को देखकर सावरकर का हृदय दुख और क्रोध से उमड़ पडता था। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि भारत देश की दास्य शृँखलाओं को तोड़ने के लिए वे अपना जीवन समर्पित करेंगेएवं युवकों में स्वतंत्रता की दीप्ति प्रज्वलित करेंगे। इसके अनुरूप उन्होंने एक गुप्त संस्था का संगठन किया और स्वतंत्रता संग्रम करने के लिए देश के नागरिकों को हथियारों का उपयोग करने हेतु प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया। आवश्यकता पड़ने पर इसके लिए प्राण त्याग करने के लिए भी वे सन्नद्ध हो गये।
सन् 1905 में स्नातक बनने के बाद इंग्लैण्ड में कानून की शिक्षा के लिए वे चुने गये। उनसे बताया गया कि इसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जायेगी। ब्रिटिश अधिकारियों ने यह सोचा कि इस बहाने से ही सही, सावरकर के कार्यकलापों पर रोक लगायी जा सकेगी। इसीलिए उन्होंने वैसा ही किया।
सन् 1906 में वे शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड निकले। वहाँ पहुँचने के बाद विद्याभ्यास के साथ-साथ बड़े ही उत्साह के साथ वहाँ भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ उन्होंने शुरू कर दीं। उन्होंने वहाँ गुप्त संस्थाओं की स्थापना की और उसमें यूरोप में पढ़नेवाले भारतीय युवकों को शामिल किया। धीरे-धीरे उनमें भारत की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने की प्रेरणा दी। उन्होंने महसूस किया कि शत्रुओं के दुर्ग में प्रवेश करके उसके बल के मूल आधारों को जानने के लिए यह सुवर्ण मौक़ा है।
परंतु कुछ देशभक्त भारतीयों ने यह कहकर उन्हें सावधान किया कि अवश्य ही इस पवित्र लक्ष्य के लिए हमें लड़ना है, लेकिन यह अंतिम लक्ष्य के लिए अवरोध न बने और वे इसके लिए ब्रिटेन में किसी प्रकार का आतंक न फैलाएँ।
फिर भी मदनलाल धिंग्र अपने आपको काबू में नहीं रख सके। किसी भी स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए तैयार होकर उन्होंने कर्नल विलि की हत्या कर दी और फांसी के तख्ते पर चढ़ गये। फांसी के पूर्व उसने घोषणा की कि भारतीय युवकों को दिये गये अमानुष मृत्यु दंड के प्रतिकार के रूप में ही मैंने यह कार्य किया। उन युवकों ने मातृभूमि की मुक्ति के लिए ही यह काम किया और अंग्रेज़ी सरकार ने इसे अपराध मानकर उन्हें मृत्यु दंड दिया।''

इसके बाद गुप्तचर संस्थाओं और पुलिस के अधिकारी लंदन के भारतीय विद्यार्थियों पर टूट पड़े, फिर भी सावरकर ने गुप्त कार्यकलापों को बरकरार रखा। उन्होंने इस दौरान अनेक ग्रंथों की रचना की। उनमें से मुख्य है, ‘‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्रम''। वहाँ की गुप्तचर संस्थाओं ने उस ग्रंथ को क्रांतिकारी, उकसानेवाला तथा द्रोहपूर्ण पाया। उसकी छपाई के पूर्व ही उस ग्रंथ को निषिद्ध कर दिया गया । किन्तु उपरांत शासकों की आँखों से बचाकर इस ग्रंथ की छपाई हॉलेंड में की गयी और हज़ारों प्रतियाँ गुप्त रूप से भारत में भेजी गयीं।
एक दिन शाम को भारत में हलचल मचा देनेवाला एक समाचार प्रकाशित किया गया। सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर पर काला पानी का दंड सुनाया गया। इससे एक युवक क्रोधित हो उठा और इसके प्रतिकार के रूप में नासिक के जिला कलेक्टर, ब्रिटिश अधिकारी जैक्सन को उसने गोली से मार डाला। देश-विदेश की अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित इस समाचार ने खलबली मचा दी।
इस घटना के मूल में जो व्यक्ति है, उसपर कठोर कार्रवाई करने का निर्णय लिया गया। सबकी दृष्टि सावरकर पर केंद्रित हुई। मित्रों तथा शुभचिन्तकों ने सावरकर को यह कहकर मनाया कि अब तुम्हारा इंग्लैंड में रहना उचित नहीं, किसी भी क्षण तुम पकड़े जा सकते हो। उनकी बात मानकर सावरकर फ्रांस चले गये। फिर भी यह देखते हुए कि उनके आदमी नाना प्रकार के कष्ट सह रहे हैं, तरह-तरह की बाधाओं का सामना कर रहे हैं, उन्होंने यही उचित समझा कि फ्रांस में न रहूँ और फिर से इंग्लैंड चला जाऊँ। बहुत ही जल्दी वे इंग्लैंड लौट आये।
जैसे ही, उन्होंने इंग्लैंड में क़दम रखा, पुलिस ने उन्हें घेर लिया और क़ैद कर लिया । उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। ब्रिटिश न्यायालयों ने आज्ञा दी कि वे तुरंत भारत भेज दिये जायें। बलवान, सुशिक्षित सैनिकों के साथ तथा कुछ स्काटलैंड यार्ड के अधिकारियों के संरक्षण में इस क्रांतिकारी को लेकर फ्रांस से होते हुए एक जहाज भारत जाने की ओर निकल पड़ा।

वह 1910 का साल था। सावरकर 26 वर्ष के थे। यद्यपि वे इंग्लैंड में चार सालों तक ही रहे, फिर भी उन्होंने इस दौरान भारतीय विद्यार्थियों को उत्साहित किया और उन्हें मातृभूमि के हित प्राणों को अर्पित करने के लिए तैयार किया। उनमें देशभक्ति जगायी।
जहाज जब आगे बढ़ रहा था तब सावरकर इस सोच में पड़ गये कि शत्रुओं से कैसे छुटकारा पाऊँ। उनसे बचकर निकलने पर ही आंदोलन चालू रखा जा सकेगा। उधर ब्रिटिश अधिकारी भी इसी कोशिश में लगे हुए थे कि वह किसी भी हालत में बचकर निकल न पाये।
रात होते-होते जहाज मार्सिली नामक फ्रेंच शहर पहुँचा। किनारे से दूर जहाज रोका गया और लंगर उतारा गया। सावरकर में आशा जगी, विश्वास पैदा हुआ। उन्होंने तुरंत ही पहरेदार को बुलाकर पूछा, ‘‘भाई, ज़रा शौच गृह में ले चलोगे?'' पहरेदार उसे कमरे की तरफ़ ले गया। उनके कमरे के अंदर जाने के बाद पहरेदार दरवाज़े के पास खड़ा हो गया। उस कमरे का दरवाजा शीशे का था। और दरवाजे के सामने बाहर एक आइना लटक रहा था। अंदर जो हो रहा था- वह आइने में प्रतिबिंबित होता था। कमरे की छत में छोटा-सा छेद था, जिसमें से आदमी निकल सकता था। सावरकर ने अपना कुर्ता निकाला और उससे अंदर के शीशे के दरवाजे को ढक दिया। फिर छेद में से होते हुए वे छत पर चढ़ गये और वहाँ से पानी में कूदकर तैरते हुए जाने लगे।
पहरेदार को संदेह हुआ तो उसे असली बात का पता लग गया। तैरते हुए जानेवाले सावरकर पर उसने बंदूक चलायी। लगातार वह गोलियाँ दागता रहा। उन गोलियाँ से बचते हुए, उस ठंडे पानी में डूबते हुए, तैरते हुए सावरकर ने फ्रांस की भूमि पर क़दम रखा और लंबी सांस ली । अब वे आज़ाद थे। इस बात पर उन्हें खुशी हुई कि अब उन्हें कोई पकड़ नहीं सकता।
पर थोड़ी ही देर में ‘‘पकड़ो उस द्रोही को'', चिल्लाते हुए ब्रिटिश सैनिक आने लगे। उन्होंने दौड़ना शुरू कर दिया। वे तब तक बहुत थक गये थे। पूरी ताक़त लगाकर वे दौड़ने लगे। अकस्मात् सामने से आते हुए एक फ्रेंच सैनिक से टकरा गये। उन्होंने फ्रेंच भाषा में कहा, ‘‘साहब, मैंने ब्रिटिश का राजनैतिक क़ैदी मात्र हूँ। फ्रांस में मैने क़दम रखा है। मैं अब बिल्कुल आज़ाद हूँ। आपकी सरकार से रक्षा माँगने का पूरा अधिकार मुझे है। मुझे अपने अधिकारियों के पास ले चलिये।''
तब तक ब्रिटिश सैनिक वहाँ पहुँच गये थे। उन्होंने फ्रेंच सैनिक को सोने की अशर्फियाँ भेंट स्वरूप दीं। उस फ्रेंच सैनिक ने सावरकर को उनके सुपुर्द कर दिया।
भारत में पहुँचने के बाद सुनवाई शुरू हो गयी। सावरकर पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने लोगों को उकसाने के लिए भाषण दिये, प्रजा को गुमराह किया आदि। इस अपराध में उन्हें पचास सालों का कठोर दंड दियागया । और 1911 में उन्हें अंडमान सेल्युलर जेल में भेज दियागया ।
वहाँ की विकट परिस्थितियों के बीच राजनैतिक क़ैदी नारकीय यातनाएँ सह रहे थे। हथकड़ियों के साथ हाथ उठाकर उन्हें खड़ा रखते थे। कोल्हू के बैलों की तरह चार क़ैदियों को बांधते थे और बैलों का काम उनसे करवाते थे। उन्हें कोड़ों से पीटते थे। इन यातनाओं को सह न सकने के कारण कुछ क़ैदी मर जाते थे। ब्रिटिश अधिकारी जिन वाहनों को उपयोग में लाते थे, उन्हें बैलों और घोड़ों की जगह पर इन क़ैदियों से खिंचवाते थे। क़ैदी इन गाड़ियाँ को ऊँची-नीची जगहों पर जब खींच नहीं पाते थे, तब वे ‘‘तेज़ी, तेज़ी से जाओ'' कहते हुए उन्हें चाबुक से मारते रहते थे। क़ैदी को क़लम और कागज़ को उपयोग में लाना मना था। इसलिए सावरकर उमड़ती हुई कविताओं को कांटों, कीलों से जेल की दीवारों पर लिखते थे।
सावरकर के आजीवन जेल की सज़ा को घटाते हुए दस सालों के बाद वे अलीपुर व रत्नगिरि जेल में लाये गये। आख़िर 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। आधुनिक भारत देश में अद्भुत धैर्य-साहस को प्रदर्शित करनेवाले देशभक्त वे वीर सावरकर के नाम से पुकारे जाने लगे।
सन् 1966 में 26 फरवरी को उनका निधन हो गया। महान पवित्र लक्ष्य के लिए उन्होंने जो आंदोलन चलाया, उन्होंने जो धैर्य, साहस प्रदर्शित किये, जो त्याग किये, वे इतिहास में शाश्वत रूप से रह जायेंगे।





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