Thursday, June 30, 2011

लालू सेठ ने चुना वरदान

वाराणसी की पावन नगरी में लालू सेठ नाम का एक महाजन रहता था। उसने अपने जीवन में कभी एक पैसे का भी दान नहीं किया। उसकी पत्नी मंगू बाई उसे बार-बार निकटस्थ स्थानों की तीर्थ यात्रा करने के लिए कहती रहती, किन्तु लालू उसे मुँहतोड़ जवाब देता, ‘‘भगवान शिव का अपमान करने का साहस कैसे तुम करती हो? क्या वे वाराणसी के अधिष्ठाता प्रभु नहीं हैं? यहॉं हजारों व्यक्ति तीर्थ यात्रा के लिए आते हैं; फिर हम तो यहॉं के निवासी हैं, हम क्यों बाहर जायें?’’

बेचारी औरत अच्छी तरह जानती थी कि उसका पति अपने आराम पर भी कभी पैसा खर्च नहीं कर सकता। भगवान शिव को निवेदित पावन रात शिवरात्रि की सुबह थी। सैकड़ों नर-नारी गंगा में डुबकी लगाने गये। ‘‘आओ, इस शुभ मुहूर्त में हमलोग भी गंगा-स्नान करते हैं!’’ मंगू बाई ने उसे उत्साहित करते हुए कहा।
‘‘क्या मूर्खता की बात करती हो! क्या नहीं जानती कि घाट पर पहुँचते ही कोई न कोई ब्राह्मण टपक पड़ेगा और हमारे लिए प्रार्थना करने के बहाने पैसे मांगेगा।’’ लालू ने कहा।

पत्नी के हठ करने पर लालू इस शर्त पर राजी हुआ कि वे किसी ऐसे एकान्त स्थान पर जायेंगे जहॉं उन्हें कोई पुजारी न देखे। क्योंकि सुबह-सुबह कोहरा छाया हुआ था, इसलिए उन्हें आसानी से एक ऐसा स्थान मिल गया जहॉं कोई अन्य व्यक्ति न था। जो भी हो, भगवान शिव और दुर्गा मॉं सबसे अगोचर हो अपने भक्तों को निहार रहे थे। लोगों की भक्ति से प्रभावित होकर दुर्गा मॉं ने पूछा, ‘‘इन भक्तों की भगवान को पाने की अभीप्सा आप पूरी क्यों नहीं कर देते?’’ भगवान ने समझाया कि इनमें वास्तव में ऐसी कोई अभीप्सा नहीं है। ये केवल बाह्य कर्मकाण्ड का पालन कर रहे हैं!

तभी भगवती माता की दृष्टि लालू और उसकी पत्नी पर पड़ गई। ‘‘देखिये, यहॉं एक पावन व्यक्ति अपनी पत्नी को एक ऐसे शान्त स्थल पर ले जा रहा है जहॉं उनके ध्यान को कोई भंग न करे। क्या ये लोग भी दूसरों के समान हैं?’’ शिव मुस्कुराये। फिर एक दीन पुजारी का भेष बदल कर लालू की ओर चल पड़े। लालू पीछे घटते हुए बोला, ‘‘मुझे तुम्हारी सहायता नहीं चाहिये। तुम मेरे लिए कोई मंत्र न पढ़ो। कृपया मुझे शान्ति से रहने दो।’’

‘‘घबराओ नहीं वत्स! तुम मुझे कम दे देना, केवल परम्परा के पालन के लिए। मेरी कोई मॉंग नहीं है।’’ भगवान ने उसे विश्वास दिलाते हुए कहा। मंगूबाई ने भी अपने पति से पुजारी की बात मान जाने के लिए अनुनय-विनय किया। ‘‘अच्छा, ठीक है! लेकिन मैं सिर्फ़ एक पैसा दूँगा। ज्यादा नहीं मॉंगना।’’ लालू जोर देकर कहा। ‘‘यह काफी है।’’ भगवान ने कहा।

लालू और उसकी पत्नी ने स्नान किया और पुजारी ने उनके सिर पर हाथ रख कर उस अवसर के लिए उपयुक्त मंत्र का उच्चारण किया। फिर पुजारी ने दक्षिणा लेने के लिए अपना हाथ फैलाया। ‘‘क्या मैंने ऐसा वचन दिया था कि मैं पैसा तुरन्त दे दूँगा? मैं अपने साथ पैसा नहीं लाया।’’ लालू ने कहा। ‘‘बहुत अच्छा! मैं तुम्हारे साथ घर तक चलता हूँ।’’ भगवान ने कहा। भगवती दुर्गा भी अगोचर होकर उनके पीछे-पीछे चलीं। लालू घर के अन्दर गया और कपड़े बदल कर बाहर सिर्फ यह कहने के लिए निकला कि अभी घर पर पैसा नहीं है, इसलिए कभी बाद में दे देगा।

शिव चले गये और दूसरे दिन अपना पैसा लेने के लिए फिर आ गये। लालू ने कुछ बहाना बना कर फिर टालमटोल कर दिया। शिव हर रोज आते रहे और लालू हर रोज कुछ न कुछ बहाना बनाता रहा। लालू को आशा थी कि पुजारी तंग आकर अपने आप ही आना बन्द कर देगा। लेकिन शिव अपनी दिनचर्या के कर्तव्य का पालन करते रहे। लालू ने पुजारी के दृढ़ संकल्प को तोड़ने के लिए एक योजना बनाई। उसने अपने घर के निकट पुजारी को आते देख कर पत्नी को पुजारी से यह कहने का आदेश दिया कि उसके पति का अभी-अभी देहान्त हो गया है। मंगू बाई यद्यपि इस बात पर बहुत दुखी हो गई, फिर भी उसने लालू के निर्देश का पालन किया।


‘‘आह! कितने दुख की बात है!’’ पुजारी ने शोक प्रकट करते हुए कहा। ‘‘पुत्री! स्वर्गवासी दयनीय पति अपने दाह-संस्कार पर पैसे खर्च करना नहीं चाहेगा। इसलिए उसके शरीर विसर्जन का कार्य मुझे करने दो, जिससे तुम पर कोई भार न पड़े। एक पुजारी के रूप में जहॉं एक ओर इस कार्य के लिए मैं सर्वथा उपयुक्त हूँ, दुसरी ओर उसकी आत्मा को यह देख कर शान्ति मिलेगी कि उसके दाह-संस्कार पर कोई पैसा खर्च नहीं हुआ।’’


शिव यह कह कर घर के अन्दर घुस गये। लालू ने जमीन पर लेट कर मृत होने का बहाना किया। शिव ने उसे कन्धे पर उठाया और नदी तट की ओर चल पड़े। अभागिन मंगूबाई भी पीछे-पीछे चल पड़ी। लालू ने अब महसूस किया कि अब उसे रणनीति बदलनी होगी अन्यथा पुजारी उसे नदी में फेंक देगा। वह पुजारी के कन्धे से सरक कर नीचे आ गया और एक लम्बी मुस्कान के साथ बोला, ‘‘मैं वास्तव में मर गया था, लेकिन आप निश्चय ही सच्चे निष्पाप ब्राह्मण हैं जिसके स्पर्श ने मुझे पुनर्जीवित कर दिया है। आप को बहुत-बहुत धन्यवाद।’’

भगवान शिव, जो करुणा के लिए प्रसिद्ध हैं, अपने सच्चे रूप में प्रकट होकर बोले, ‘‘वत्स, मैं तुम्हारी, धन को सुरक्षित रखने की दुराग्रही बुद्धि और अध्यवसाय से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हें इस दुराग्रह के गुण को आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर मोड़ देना चाहिये। अब तुम मुझसे एक वरदान मॉंग सकते हो।’’ लालू ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘कृपया आप को जो एक पैसा मुझे दान में देना है, उसे माफ कर दीजिये।’’

एक विचित्र मुस्कान शिव के मुखमण्डल पर फैल गई। उन्होंने अगोचर दुर्गा की ओर एक अर्थ भरी दृष्टि से देखा। फिर लालू की ओर मुड़ कर कहा, ‘‘एवम अस्तु!’’ इतना कहकर वे अन्तर्धान हो गये। दुर्गामाता उदासीन हो गईं। ‘‘हमें प्रतीक्षा करनी होगी’’, भगवान ने कहा, ‘‘जब तक अपनी वास्तविक आवश्यकता का सच्चा ज्ञान मनुष्य की चेतना में नहीं उतरता। हम किसी को कुछ ऐसी चीज नहीं दे सकते जिसके लिए उसमें मॉंग नहीं है।’’


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