प्रेमनाथ ग़रीब था, फिर भी प्रतिफल की आशा किये बिना सबकी मदद करता था । वह दिन भर कड़ी मेहनत करता था, फिर भी ज़रूरत पर किसी की मदद करने से हिचकिचाता न था । प्रेमनाथ की मासूमियत को देखते हुए उस गांव का पुरोहित उसे समय-समय पर सलाह देता रहता था, ‘‘देखो, मांगे बिना मॉं भी खाने को कुछ नहीं देती । जब दूसरों की मदद करते हो, तब उनसे प्रतिफल भी मांगो ।’’
‘‘प्रतिफल मांगू तो वह सहायता कैसे कहलायेगी । सिर्फ़ मेहनत के लिए प्रतिफल लेता हूँ, सहायता के लिए कुछ नहीं लेता । उम्मीद है कि जो लोग मुझसे सहायता लेते हैं, वे उसे याद रखेंगे और ज़रूरत पड़ने पर, मेरी मदद करेंगे,’’ प्रेमनाथ कहा कहता था ।
उस गांव में रंगनाथ नामक एक कंजूस धनवान था। उसे प्रेमनाथ की उदारता के बारे में मालूम हुआ । उसने सोचा, क्यों न उससे काम निकालें, क्योंकि वह प्रतिफल की मांग नहीं करता । फिर वह उससे कोई न कोई काम करवाने लगा । रंगनाथ की मॉं बीमार थी । हर दिन वैद्य को उसकी हालत का खुलासा देना और दवा लानी पड़ती थी । रंगनाथ ने प्रेमनाथ को यह काम सौंपा ।
रंगनाथ के नाना प्रकार के व्यापार थे । विविध वस्तुओं का मूल्य जानने के लिए उस गांव में हर सप्ताह होनेवाली हाट में जाना पड़ता था । प्रेमनाथ से वह यह काम भी कराने लगा । इतना ही नहीं, किसी को कोई ख़बर भिजवाने के लिए भी उसी की सहायता लेने लगा । हाल ही में प्रेमनाथ की बेटी की शादी तय हुई । यह शादी करवाने के लिए उसके पास पर्याप्त रक़म नहीं थी । उसने चार पांच लोगों से सहायता मांगी । पर कोई भी सहायता करने आगे नहीं आया ।
इन परिस्थितियों में पुरोहित ने उसे सलाह दी । ‘‘तुम्हारी मदद करने की शक्ति केवल रंगनाथ में है । वह तो हर दिन कोई न कोई काम तुमसे करवा रहा है । जाओ उससे मदद मांगो ।’’ प्रेमनाथ उसी दिन शाम को रंगनाथ के पास गया और कहा, ‘‘प्रणाम मालिक । आपसे मदद मांगने आया हूँ ।’’
उस समय रंगनाथ खाताबही देखने में व्यस्त था । जैसे ही उसने ‘मदद’ शब्द सुना, उसने आश्र्चर्यपूर्वक कहा, ‘‘मदद! कौन हो तुम?’’
‘‘आप यह क्या कह रहे हैं, मालिक? आप तो हर रोज़ मुझे कोई न कोई काम सौंप रहे हैं !’’ उसने कामों के विवरण भी दिये ।
‘‘मुझे तो कुछ भी याद नहीं । हर रोज़ मैं कितने ही लोगों को काम सौंपता हूँ । किसे याद रखूँ? तुम तो कह रहे थे कि मेरी मॉं के लिए दवा लाया करते थे । देखें तो सही, वह तुम्हें पहचानती है या नही?’’
यों कहकर रंगनाथ उसे अपनी मॉं के पास ले गया । उसने प्रेमनाथ को नख से शिख तक देखा और कहा, ‘‘लगता है, इसे मैंने कभी देखा है । उस दिन तो यह कह रहा था कि दवाएँ लाना उसके लिए असंभव काम है । दवाओं के न होने के कारण उस दिन मुझे कितना परेशान होना पड़ा । मैंने इसे खूब गलियॉं भी दीं ।’’
इस घटना ने प्रेमनाथ को झकझोर दिया । दुखी होकर जब वह घर लौटने लगा तब रास्ते में पुरोहित से उसकी मुलाक़ात हुई । उसके फीके चेहरे को देखकर पुरोहित ने उससे पूछा, ‘‘क्या बात है? क्या हुआ?’’
प्रेमनाथ ने पुरोहित को सब कुछ बता दिया । तब पुरोहित ने खूब सोचने के बाद कहा, ‘‘रंगनाथ समझता है कि तुम्हें सिर्फ़ काम करना आता है । तुम्हें कायर समझता है । बहुत बार तुमने उसकी पत्नी की भी तो मदद की । अब उसके पास जाओ । अगर उसने भी तुम्हें पहचानने से इनकार कर दिया तो दिखा दो कि तुममें साहस भरा हुआ है, और तुम कुछ भी कर सकते हो । यह कैसे दिखाओगे, तुम पर निर्भर है ।’’ यों कहकर पुरोहित चला गया ।
पुरोहित की बातों से उसमें धैर्य और साहस आ गया । वह सीधे रंगनाथ के घर गया । उस समय वह बरामदे में अपनी पत्नी से बातें कर रहा था । प्रेमनाथ ने ऊँची आवाज़ में कहा, ‘‘मालिक, मैंने कई बार आपकी श्रीमती की भी मदद की । इन्हीं से पूछ लीजिये ।’’
रंगनाथ ने आँखें लाल करते हुए एक बार प्रेमनाथ की ओर देखा और फिर पत्नी की ओर मुड़कर पूछा, ‘‘तुमने इसे क्या कभी देखा? यह तो दावा करता है कि इसने तुम्हारी मदद की ।’’
‘‘लगता है, देखा है । एक बार केले के पत्ते काटने का काम सौंपा तो दस पत्ते ही काटे और कोई बहाना बनाकर चला गया । यह तो अव्वल दर्जे का सुस्त है।
रंगनाथ की पत्नी ने कहा ।
प्रेमनाथ ने तब कडुवे स्वर में कहा, ‘‘देखिये, मैं मेहनत कर के खाता हूँ । जब-जब मौक़ा मिलता है, दूसरों की मदद प्रतिफल की आशा किये बिना करता हूँ । मैंने समय-समय पर आपकी भी मदद की । परंतु दुख की बात यह है कि आपके परिवार के सब लोग मेरी मदद भूल गये ।’’
इसपर रंगनाथ ने ठठाकर हँसते हुए कहा, ‘‘संपन्नों की मदद करने में गौरव है । इसीलिए कई लोग मुझ जैसे धनाढ्य की मदद करने आते हैं । अगर तुम चाहते हो कि हम कुछ तुम्हें याद रखें तो तुम्हें कोई न कोई बड़ा काम करना होगा ।’’
‘‘मैंने कभी नहीं चाहा कि जो मदद मैंने की,उससी सराहना कोई करे । पर मेरे न करने पर बहुतों ने मुझे गालियॉं दीं । इसी का मुझे खेद है,’’ प्रेमनाथ ने कहा ।
‘‘इसीलिए कहते हैं कि थोड़ा-सा नमक डालने से घड़े भर का दूध फट जाता है । तुम्हारे विषय में भी यही हुआ है ।’’ रंगनाथ ने कहा ।
‘‘मालिक, जो हुआ, सो हो गया । मुझे अब मेरी बेटी की शादी के लिए कुछ रुपयों की ज़रूरत है । मेरी सहायता करके मुझे बचा लीजिये ।
जन्म-जन्मांतरों तक आपकी यह सहायता नहीं भूलूँगा ।’’ प्रेमनाथ ने बड़े ही दीन स्वर में कहा ।
रंगनाथ ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘अवश्य ही मैं सहायता करता, पर तुम्हें जब जानता ही नहीं हूँ तब क्यों तुम्हारी सहायता करूँ?’’
उसके इस जवाब से तंग आकर प्रेमनाथ ने रंगनाथ के गाल पर ज़ोर से एक चॉंटा मारा । स्तब्ध होकर रंगनाथ उसे देखता रहा और प्रेमनाथ वहॉं से चलता बना ।
रंगनाथ का अपमान करने का साहस उस दिन तक किसी ने नहीं किया था । वह क्रोधित हो उठा और सीधे ग्रमाधिकारी से मिलने गया ।
प्रेमनाथ की शिकायत करते हुए उसने कहा, ‘‘उस घमंडी ने चॉंटा मारा । उसे सज़ा नहीं दी गयी तो गॉंव में उच्छृंखलता और अराजकता फैल जायेगी ।’’
ग्रमाधिकारी ने फ़ौरन प्रेमनाथ को बुलवाया ।
पर प्रेमनाथ के बदले पुरोहित वहॉं आया और कहने लगा, ‘‘बेचारा प्रेमनाथ अपनी बेटी की शादी को लेकर बहुत चिंतित है । तिसपर उसे आज तेज़ बुखार है । पलंग से उतरना भी उसके लिए संभव नहीं हो पा रहा है । जो हुआ, उसके बारे में आपसे निवेदन करने के लिए मुझे भेजा ।’’
‘‘उसका क्या कहना है?’’ ग्रमाधिकारी ने पूछा।
‘‘उसने कहा कि रंगनाथ की स्मरणशक्ति बहुत कमज़ोर है । कुछ लोग उनकी मदद करते रहते हैं, तो कुछ लोग उनपर हाथ चलाते हैं । पर इनमें से किसी को भी वे याद नहीं रखते।’’ पुरोहित ने रंगनाथ का कहा सुनाया ।
रंगनाथ क्रोध भरे स्वर में चिल्लाने लगा, ‘‘उसका नाम प्रेमनाथ है । उसकी बेटी की शादी पक्की हो गयी । धन की सहायता मांगने मेरे पास आया । मैंने धन देने से इनकार कर दिया । तो मेरे गाल पर उसने चॉंटा मारा ।’’
‘‘प्रेमनाथ ने प्रतिफल मांगे बिना इनकी और इनके परिवार की सेवाएँ कीं । फिर भी इन्हें उसकी याद नहीं आयी, उसे पहचानने से इनकार कर दिया । इन्होंने कहा था कि वह कोई बड़ा काम कर दिखाये, तभी ये उसे पहचान पायेंगे । उसने जो चॉंटा मारा, उसकी याद इन्हें अच्छी तरह से है । इसका यह मतलब हुआ कि उसने आज बड़ा काम कर दिखाया । जो बड़ा काम करते हैं, उनकी प्रशंसा होनी चाहिये, न कि उनसे कैफ़ियत तलब हो,’’ ग्रमाधिकारी को पुरोहित ने कहा ।
अब पूरा विषय ग्रमाधिकारी की समझ में आ गया। पर वह पुरोहित की बातों का खुले आम समर्थन करने की हालत में नहीं था । उसने कहा, ‘‘बातों को घुमा-फिराकर कहने मात्र से गलती टल नहीं सकती । ग़लती ग़लती ही होती है. प्रेमनाथ को सज़ा देनी ही पड़ेगी।’’
‘‘ग्रमाधिकारी, प्रेमनाथ ने रंगनाथ की कितनी ही सेवाएँ कीं । कोई प्रतिफल नहीं लिया । उसकी सेवाओं के लिए जो प्रतिफल दिला सके, वही उसकी ग़लती की सज़ा दे सकता है । यह मेरा व्यक्तिगत अभिप्राय है,’’ पुरोहित ने कहा ।
ग्रमाधिकारी उसकी बातें सुनकर सकपकाता हुआ बोला, ‘‘प्रेमनाथ के बारे में मैं बखूबी जानता हूँ । वह गॉंव में बहुत से लोगों की सहायता करता रहता है । मैं भी उनमें से एक हूँ । कई बार उसने मेरी भी मदद की। उससे जो ग़लती हुई है, उसके लिए उसे दण्ड देना हो तो उसके पहले उससे की गयी मदद के लिए उसे प्रतिफल देना होगा। जिस-जिस को उसने मदद पहुँचायी, उनसे उसका प्रतिफल दिलाना मेरी जिम्मेदारी है । भले ही गॉंव के सब लोगों को और मुझे भी चॉंटा क्यों न मारे, उसे सज़ा देने का हक़ मुझे नहीं है ।’’
ग्रमाधिकारी का यह फैसला सभी ग्रमीणों को चॉंटा-सा लगा । सबने आपस में बात कर ली और प्रेमनाथ की बेटी की शादी के लिए मदद पहुँचाने का निश्चय लिया । ग्रमाधिकारी ने पुरोहित से कहा, ‘‘मालूम नहीं, ये बातें तुम्हारी हैं या प्रेमनाथ की, पर इन बातों में सच्चाई है । प्रेमनाथ खुद भी आ जाता तब भी शायद ऐसा नहीं हुआ होता । समय पर आकर तुमने समस्या का सही परिष्कार किया और पूरे गॉंव का भला किया । तुम सच्चे अर्थों में पुरोहित हो ।’’
वहॉं जमा कुछ लोग जान-बूझकर ऊँची आवाज़ में बातें करने लगे, क्योंकि वे चाहते थे कि ये बातें रंगनाथ ज़रूर सुने । वे आपस में कहने लगे,’’ गॉंव में हम इतने लोग हैं । हममें से बहुतों से उसने मदद नहीं मांगी और मांगी भी तो उस मक्खीचूस रंगनाथ से ।’’
उनकी ये बातें सुनकर रंगनाथ की आँखें खुल गयीं । उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ । वह अपने आप ही कहने लगा, ‘‘प्रेमनाथ ने चॉंटा मारा, मुझे नहीं बल्कि मेरे असीम स्वार्थ को, मेरे अहंकार को । इसके लिए जो सज़ा सुनायी गयी, वह सही भी है । भविष्य में हर सहायता के लिए प्रतिफल देना मेरा कर्तव्य होगा और प्रेमनाथ जैसे अच्छे लोगों को किसी भी हालत में दूर नहीं रखूँगा। अपनी ग़लतियों को सुधारूँगा और ग्रमीणों का प्रेम पात्र बनूँगा ।’’
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