Thursday, June 30, 2011

एक रानी की रणनीति

सात शताब्दी पूर्व 1296 में सुलतान अल्लाउद्दीन खिल्जी ने, अपने मामा जलालुद्दीन को बड़ी ही निर्दयता के साथ मार डाला और दिल्ली की गद्दी को हस्तगत कर लिया। वह अमित राज्याकांक्षी था। सभी अधिकारों को वह अपने ही अधीन रखना चाहता था। उसके घोड़ों की संख्या सत्तर हज़ार थी, अनगिनत हाथी थे। उसके सैनिकों की संख्या भी असंख्य थी। इसलिए उसकी तीव्र इच्छा थी कि जिस-जिस प्रदेश में वह क़दम रखे, वह उसका हो जाए और वहाँ की हर संपत्ति उसकी हो जाए। उसकी यह दुराशा दिन व दिन बढ़ती गयी।
एक दिन उसकी दृष्टि राजस्थान के सुसंपन्न मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर पड़ी। वह प्रकृति के सुंदर दृश्यों के बीचों बीच 500 फुट की ऊँचाई के पर्वत पर 600 एकड़ों के विस्तार में स्थित अभेद्य क़िला था। मातृभूमि के लिए सब कुछ समर्पित करने के लिए सदा सन्नद्ध राजपूतों की वह जन्मभूमि थी। खिल्जी ने उसे घेरने का निर्णय लिया। क़िले को अपने वश में लेने की इच्छा से भी बढ़कर उसकी इच्छा थी, मेवाड़ के महाराज रावल रतनसिंह की प्रिय पत्नी अलौकिक सौंदर्य राशि रानी पद्मिनी को अपनी बनाऊँ ।
रानी पद्मिनी के सौंदर्य को लेकर राज परिवारों में तरह-तरह की कहानियाँ सुनने में आती थीं। कहा जाता था कि वह पानी पीती थी तो उसके कंठ में वह दिखायी देता था; उसके शरीर का रंग सोने का था; उसके सुमनोहर सुंदर रूप को देखने के लिए सूर्य चंद्र भी क्षण भर के लिए रुक जाते थे। उसकी सुंदरता पर कवियों ने कितनी ही कविताएँ भी रचीं। ऐसी सुंदरी को अपना बनाने के लिए 1302 में सुलतान खिल्जी ने सेना सहित चित्तौड़ को घेर लिया, जो राजपूत वंश के यश और कीर्ति का प्रतीक था।
नीचे के क़िले को घेरकर उसने छे महीनों तक लड़ाई की, पर साहसी और वीर राजपूत सैनिकों को पार करके वह क़िले में क़दम रख नहीं पाया। निराश सुलतान के सामने मैत्री का हाथ बढ़ाने के सिवा कोई और दूसरा चारा रह नहीं पाया। उसने महाराज को समाचार भेजा, "रानी पद्मिनी के मुखड़े को एक बार बस, देख लूँ, यह मेरे लिए काफी है। सहर्ष लौट जाऊँगा।"

"असंभव, दिल्ली का सुलतान हमारी रानी को प्रत्यक्ष देखे, यह हो ही नहीं सकता।" चित्तौड़ के प्रमुखों ने विरोध प्रकट किया। उन्होंने कहा कि सुलतान अगर रानी के मुखड़े को देखने के लिए इतना बेक़रार है तो दर्पण में उसके प्रतिबिंब को देखने के लिए हम अनुमति दे सकते हैं। सुलतान ने उनके प्रस्ताव को मान लिया।
कमलों के सरोवर के बीच में ग्रीष्म भवन था। भवन की सीढ़ियों पर खड़े हो जाने पर महारानी का प्रतिबिंब देख सके, ऐसा प्रबंध किया गया। बहुत ही आतुर सुलतान सीढ़ियों पर खड़ा हो गया और थोड़ी ही देर तक दिखनेवाले महारानी के प्रतिबिंब को देखते हुए उसने कहा, "इस अलौकिक सुंदरी को अपना बना लूँ, तो इससे बढ़कर भाग्य और क्या हो सकता है। जो भी हो, इसका अपहरण करके ही सही, इसे ले जाऊँगा।" अपने इस लक्ष्य को साधने के लिए उसने एक योजना भी बना ली।
महाराज के आतिथ्य पर आनंदित होने का नाटक करते हुए प्यार से उसने उसे गले लगाया। चूँकि रानी का प्रतिबिंब देखने मात्र के लिए सुलतान अकेले आया था, इसलिए महराजा रतनसिंह निरायुध, अंगरक्षकों के बिना, बातें करते हुए सुलतान के साथ गये।
द्वार के बाहर आये राणा रतनसिंह ने कहा, "हमें मित्रों की तरह रहना था, पर शत्रुओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं। यह भाग्य का खेल नहीं तो और क्या है?"
तब तक अंधेरा छा चुका था। आख़िरी बार वे दोनों गले मिले। दुष्ट खिल्जी ने जैसे ही इशारा किया, झाड़ियों के पीछे से आये उसके सिपाहियों ने निरायुध राणा को घेर लिया। मैदान में गाड़े गये खेमों में उसे ले गये। अब राजा का उनसे बचना असंभव था।
सुलतान ने चेतावनी देते हुए ख़बर भेजी, "रानी को फ़ौरन मेरे सुपुर्द कीजिये। नहीं तो राजा के कटे सिर को लेने के लिए सन्नद्ध हो जाइये।"
क़िले में शोक छा गया। फिर भी प्रातःकाल दो सिपाही रानी का संदेश लेकर सुलतान के शिविर में आये। उन्होंने कहा, "रानी पद्मिनी सुलतान के अधीन हो जाने के लिए तैयार है। पर, एक नियम है। वह यहाँ की रीति के अनुसार पालकी में बैठकर अपनी सहेलियों के साथ आयेगी और इसके लिए अनुमति देनी होगी। सबके साथ इज्जत के साथ पेश आना होगा।" सुलतान बेहद खुश हुआ। उसे लगा कि उसका लक्ष्य पूरा होने जा रहा है।

दूसरे दिन की शाम को चित्तौड़ क़िले के दरवाज़े खुले। सात सौ पालकियाँ - एक-एक पालकी के लिए चार-चार कहार तैनात थे। पालकियाँ पहाड़ पर से एक साथ निकलीं।
सुलतान खिल्जी खेमों के बीच में बड़ी ही बेचैनी से रानी पद्मिनी के आने का इंतज़ार करने लगा। तब उसके पास गोरा नामक हट्टा-कट्टा एक राजपूत योद्धा आया और कहा, "सरकार, महारानी को अंतिम बार महाराज को देखने की आकांक्षा है। उनकी विनती कृपया स्वीकार कीजिये।"
सुलतान सोच में पड़ गया तो गोरा ने फिर से कहा, "क्या महारानी की बातों पर अब भी आपको विश्वास नहीं होता?" कहते हुए जैसे ही उसने पालकी की ओर अपना हाथ उठाया, तो उस पालकी में से एक सहेली ने परदे को थोड़ा हटाया। मशालों की कांति में सुंदरी को देखकर सुलतान के मुँह से निकल पड़ा "वाह, सौंदर्य हो तो ऐसा हो।" वह खुशी से फूल उठा। फिर पति से मिलने की इज़ाज़त दे दी।
प्रथम पालकी उस ओर गयी, जहाँ महाराज कैदी थे। राणा रतनसिंह को रिहा करने के लिए जैसे ही सीटी बजी, पालकियों में से दो हज़ार आठ सौ सैनिक हथियार सहित बाहर कूद पड़े। पालकियाँ को ढोनेवाले कहार भी सैनिक ही थे। उन्होंने म्यानों से तलवारें निकालीं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस आकस्मिक परिवर्तन पर सुलतान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे।
कुछ और पालकियाँ पहाड़ पर के क़िले की ओर से निकलीं। उनमें रानी के होने की उम्मीद लेकर शत्रु सैनिकों ने उनका पीछा किया, पर बादल नामक एक जवान योद्धा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने उनपर हमला किया। एक पालकी में बैठकर महाराज और गोरा सक्षेम क़िले में पहुँच गये।


इसके बाद गोरा लौट आया और दुश्मनों का सामना किया। गोरा और सुलतान के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। इसमें गोरा ने अद्भुत साहस दिखाया। पर, दुर्भाग्यवश दुश्मनों ने चारों ओर से उसे घेर लिया और उसका सिर काट डाला। उस स्थिति में भी गोरा ने तलवार फेंकी, उससे सुलतान के घोड़े के दो टुकड़े हो गये और सुलतान खिल्जी नीचे गिर गया। भयभीत सुलतान सेना सहित दिल्ली की ओर मुड़ गया।
रानी पद्मिनी अपने चाचा गोरा व भाई बादल की सहायता से व्यूह रचकर शत्रुओं से बच सकती थी, पर वह क़िले से बाहर ही नहीं आयी। सुलतान ने दर्पण में जो प्रतिबिंब देखा था, वह उसकी सहेली का था। पालकी में जो दिखायी पड़ी, वह वही सहेली थी।
फिर से मिलन पर राजदंपति खुश तो हुए, पर गोरा की मृत्यु पर उन्हें बहुत दुख हुआ।
यों कुछ समय बीत गया। उस दिन रतनसिंह का जन्म दिनोत्सव बहुत बड़े पैमाने पर मनाया गया। थके चित्तौड़ की प्रजा को युद्ध के नगाड़ों व हाहाकारों ने जगाया। सुलतान से अपमान सहा नहीं गया। प्रतिकार लेने खिल्जी ने 1303 में पुनः चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राजपूत सैनिकों की तुलना में सुलतान की सेना दस गुना अधिक थी। फिर भी, राजपूत सैनिकों ने एक के बाद दूसरे ने नेतृत्व संभाला और लड़ाई लड़ी। परिणाम स्वरूप वे सबके सब मारे गये। अंत में महाराजा रतनसिंह, युवकिशोर बादल सुलतान की सेना पर टूट पड़े और असंख्य शत्रु सेना को मारते हुए मातृभूमि के लिए प्राण अर्पित कर दिये।
इसी समय रानी ने अंतःपुर में एक बहुत बड़ी चिता का प्रबंध करवाया। रानी पद्मिनी ने पहले अग्नि प्रवेश किया। उसके साथ तीस हज़ार स्त्रियों ने भी अग्नि प्रवेश किया। शत्रुओं से बचने और अपने शील की रक्षा करने के लिए उन सबने प्राण त्याग दिये।
शेष सैनिकों ने अंतिम क्षण तक शत्रुओं का सामना किया। बेकरार सुलतान चिल्लाता रहा, ��पद्मिनी कहाँ है? कहाँ है?�� वह यों चिल्लाता हुआ क़िले भर में घूमता रहा। वह उसे न पाकर क्रोधित हो उठा और जो भी भवन थे, उनका ध्वंस कर दिया । अंत में जब वह रानी पद्मिनी के भवन के पास पहुँचा, तब वहाँ का हृदय विदारक दृश्य देखकर निश्चेष्ट खड़ा रह गया।
अलौकिक सौंदर्य के लिए प्रख्यात एक वीर वनिता की रणनीति और उसके अद्भुत साहस तथा अतुलनीय त्याग का मौन साक्षी वह क़िला
अब भी वहाँ खड़ा है।


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