
रामतीर्थ के शाल्मक के माँ-बाप उसके बचपन में मर गये थे। गाँव के लोग उसे छोटा-मोटा जो काम सौंपते थे, उसे करके वह अपना पेट भरता था। पुजारी के घर में काम करते हुए उसने थोड़ा-बहुत पढ़ भी लिया था। बालिग़ होते-होते उसने सबकी प्रशंसा भी प्राप्त कर ली। शाल्मक को लगने लगा कि इस गाँव में रहने से कोई उन्नति नहीं होगी। ज़मींदार के दिवान में नौकरी कर लूँ तो ज़िन्दगी आराम से कट जायेगी और शादी करके आराम से रह पाऊँगा। उसने उस गाँव के ग्रामाधिकारी से अपनी इच्छा जाहिर की और उससे मदद माँगी।
‘‘इस उम्र में भी तुम दुनियादारी से अपरिचित हो। मैं ज़मींदार से तुम्हारे बारे में क्या कहूँ, कैसे कहूँ? अगर साहस करके कहूँ भी तो हो सकता है, वे मुझसे नाराज़ हो उठें। तुम्हारे जैसे बुद्धू की सिफारिश करने के लिए उलटे मुझे सज़ा दें। जा, जा, बड़ा आया, दिवान में काम करनेवाला।'' उसे यों डाँटकर भेज दिया।
बेचारा शाल्मक बहुत निराश हुआ पर कर भी क्या सकता था? उसने जाते हुए देखा कि उसी गली के चबूतरे पर बैठकर ब्राह्मण सिद्धांति कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं। वह उन्हें देखते ही रुक गया और अपनी नौकरी के बारे में बताया। ‘‘ज़मींदार के यहाँ काम करने के लिए बहुत अनुभव चाहिये। जब तुम्हें इस गाँव में कोई काम देने तैयार नहीं तो भला ज़मींदार के यहाँ नौकरी कैसे मिलेगी।'' सिद्धांति ने उसका मज़ाक उड़ाते हुए उसे भेज दिया।
जब वह वहाँ से निकलने लगा तब भैरव सेठ नामक एक व्यापारी से उसकी मुलाक़ात हुई। उसने शाल्मक को देखते ही कहा, ‘‘देखो, आज कार्तिक सोमवार है। घी से भरे इस गागर को शिवालय तक ले जाना है। करोगे?'' शाल्मक ने बिना कुछ कहे घी के गागर को अपने कंधे पर उठा लिया।
शाल्मक ने घी के गागर को जैसे ही नीचे उतारा वैसे ही घी को खरीदने के लिए भक्तों की भीड़ लग गयी। उस भीड़ को देखते हुए भैरव सेठ ने उससे कहा, ‘‘इतनी बड़ी भीड़ को मैं अकेले संभाल नहीं सकता। क्या शाम तक मेरे ही साथ रहने के लिए तैयार हो?'' उसने ‘हाँ' कह दिया। गागर में जो घी था, दुपहर तक खत्म हो गया। भैरव सेठ ने खुश होकर पैसे देते हुए शाल्मक से कहा, ‘‘बहुत ही अनुभवी की तरह तुमने मेरी मदद की। हमारा नौकर कल आ जायेगा। नहीं तो कल भी तुमको यह काम देता।''

दूसरे दिन शाल्मक ज़मींदार के दिवान के पास गया। अंदर पैर रखते ही दो आदमियों ने उसे रोका। शाल्मक ने जब अपनी इच्छा बतायी तो उन आदमियों ने कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले ही एक नौकर ने चीनी का बरतन तोड़ डाला। अब तुम्हें अंदर जाने देंगे तो तुम्हें भी गालियों के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। जा, यहाँ से तुरंत भाग जा।'' यों कहकर उसे वहाणँ से भेज दिया।
निराश होकर जब वह लौट रहा था, तब भैरव सेठ को सामने से आते हुए उसने देखा। सेठ ने उसके दुख का कारण पूछा। शाल्मक ने अपना दुखड़ा सुनाया। भैरव ने शाल्मक से कहा, ‘‘पता नहीं, उन आदमियों ने तुमसे ऐसा क्यों कहा। ज़मींदार स्वभाव से बहुत अच्छे हैं। एक और बार कोशिश करना।''
उसकी बातों को सुनते ही शाल्मक ने ठान लिया कि ज़मींदार से मिलकर ही रहूँगा।
इतने में भैरव सेठ ने उससे कहा, ‘‘मैं तुमसे असली बात बताना भूल ही गया। हाल ही में कानपुर में एक शिवालय का निर्माण हुआ है। कल वहाँ उसका उद्घाटन होनेवाला है। मुझे कल और आदमी चाहिये। क्या तुम आ सकोगे?''
शाल्मक ने बिना कुछ कहे घी के गागर को उठाया और उसके साथ-साथ गया। बिक्री के बाद उसने लौटकर पूरी रक़म सेठ को सौंपी और कहा, ‘‘इतना घी खरीदकर लोग भगवान को समर्पित कर रहे हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?''


‘‘हफ्ते में एक बार भगवान को घी समर्पित करेंगे तो भक्तों का विश्वास है कि उनकी इच्छा अवश्य पूरी होगी'' सेठ ने कहा। यह सुनते ही शाल्मक को विश्वास हो गया कि भगवान उसकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे और दिवान में उसे अवश्य नौकरी मिलेगी। तब से लेकर उसने मेहनत की और उस रक़म से घी खरीदा और उस घी से भगवान शिव का अभिषेक करने लगा।
एक महीने के बाद वह पुनः ज़मींदार के दिवान में गया। नौकरों ने जब उसे रोका तो उसने गिडगिड़ाते हुए नौकरों से कहा, ‘‘इस बार ही सही, मुझे ज़मींदार से मिलने दीजिये। मुझे किसी भी हालत में नौकरी चाहिये।''
‘‘अरे पगले, कल ही दो नौकरों की नौकरी चली गई । बिना किसी कारण के उन्हें घर भेज दिया गया। ज़मींदार के बारे में शायद तुम नहीं जानते। वे बड़े निष्ठुर हैं।'' नौकरों ने ज़मींदार के बारे में यों कहकर उसे वहाँ से भेज दिया।
फिर भी शाल्मक की आशा वैसी ही बनी रही। वह घी से भगवान का अभिषेक करता रहा और दिवान में नौकरी दिलाने की प्रार्थना करने लगा। एक दिन जब वह घी खरीदने भैरव सेठ की दुकान पर गया, तब उसने कहा, ‘‘कहीं तुम भी घी का व्यापार तो नहीं कर रहे हो?''
शाल्मक ने हँसते हुए अपनी इच्छा बतायी। ‘‘मैं आशा करता हूँ कि जल्दी ही वह नौकरी तुम्हें मिल जायेगी? हाँ, तुमसे यह कहना भूल ही गया कि आजकल ज़मींदार बहुत बीमार हैं ।''
यह सुनकर शाल्मक अशांत हो उठा। रात भर इसी को लेकर सोचता रहा। दूसरे दिन सबेरे ही वह शिवालय गया और हृदय से भगवान से प्रार्थना की कि ज़मींदार यथाशीघ्र चंगे हो जाएँ। उसने घी से अभिषेक भी कर दिया।

‘‘अब तक तो नौकरी पाने के लिए घी से भगवान का अभिषेक करते आ रहे हो और अब उनकी तबीयत ठीक हो जाने के लिए क्यों प्रार्थना कर रहे हो?'' मंदिर के पुजारी ने पूछा।
‘‘मुझे नौकरी दिलानेवाले मालिक ही जब अस्वस्थ हों तो किसी और चीज़ के लिए क्यों प्रार्थना करूँगा? इसीलिए उनके स्वस्थ हो जाने की प्रार्थना कर रहा हूँ।'' शाल्मक ने कहा।
इसके कुछ दिनों के बाद ज़मींदार बिलकुल स्वस्थ हो गये। ज़मीन्दार ने मृत्युंजय होम और अभिषेक कराने के लिए पुजारी को बुलवाया। तब पुजारी ने कहा, ‘‘मालिक, स्वस्थ हो जाने के बाद आप भगवान का अभिषेक करना चाहते हैं। पर, जब से उसे मालूम हुआ कि आप बिलकुल अस्वस्थ हैं, तब से एक युवक आपके स्वस्थ होने के लिए घी से अभिषेक कर रहा है।'' फिर उसने शाल्मक के बारे में सविस्तार बताया।
यह सुनते ही ज़मींदार की आँखों में आँसू भर आये। अज्ञात रहकर अपनी भलाई करनेवाले को उन्होंने देखना चाहा और पुजारी के द्वारा शाल्मक को ख़बर भिजवायी। जैसे ही शाल्मक आया, ज़मींदार को मालूम हो गया कि उसके कुछ स्वार्थी अधिकारी किसी को भी उससे मिलने नहीं दे रहे हैं। उन्होंने फ़ौरन उन लोगों को बुलाकर उन्हें नौकरी से निकाल दिया।
शाल्मक का हठ उन्हें बहुत पसंद आया। दिवान में उसे नौकरी दी। उसकी ईमानदारी पर वे बहुत प्रसन्न हुए।
उस दिन की शाम को शाल्मक शिवालय गया। पुजारी ने उससे कहा, ‘‘देखा पुत्र, जब तक तुम अपने लिए अभिषेक कर रहे थे, तब तक भगवान चुप रहे। उन्होंने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया। ज़मींदार के स्वास्थ्य के लिए जब तुम प्रार्थना करने लगे, तब वे तुमसे बहुत प्रसन्न हुए। उधर ज़मींदार का स्वास्थ्य ठीक क्या हो गया, दिवान में तुम्हें नौकरी मिल गयी। दूसरे के क्षेम में ही अपना भी हित निहित है, यह मनुष्य को अवश्य जानना चाहिए। तभी भगवान भी ऐसे मनुष्य का उद्धार करेंगे'' यों कहकर उन्होंने शाल्मक को आशीर्वाद दिया।

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