
चंदर, भूषण और भार्गवी का इकलौता बेटा था। वह सिर्फ अक्लमंद ही नहीं था बल्कि फुर्तीला भी था। बाप भूषण कपड़े का व्यापार करता था। शहर में उसका अच्छा नाम भी था। उसने कुछ ऐसे निर्णय लिये, जिनसे अमीर भड़क उठे। अपने बुरे व्यवहार के कारण व्यापार में उसने सब कुछ खो दिया। चिंताग्रस्त भूषण इस वजह से बीमार पड़ गया और दो सालों के बाद मर गया। थोड़ी-बहुत जो जायदाद थी, उसे बेचकर उसका कर्ज़ चुकाना पड़ा। जीने का कोई और मार्ग न होने के कारण भार्गवी धनिकों के घरों में झाडू देने और बर्तन मांजने का काम करने लगी। बेटे को खूब पढ़ाकर उसे योग्य बनाने की उसकी तीव्र इच्छा थी। पंद्रहवें साल में क़दम रखने के बाद चंदर को माँ का दूसरों के घरों में काम करना बिलकुल पसंद नहीं आया।
इस विषय को लेकर माँ से वह झगड़ा भी करता रहता था। इस वजह से भार्गवी सदा अशांत रहती थी। पिता नहीं रहे, इज्जत से जीवन बिताने के लिए धन नहीं रहा, इसी को लेकर चंदर सोच में पड़ा रहता था। इसे वह बहुत बड़ी कमी समझता था और हर बात पर माँ पर नाराज़ हो उठता था। वह हमेशा इसी सोच में मग्न रहा करता था कि तुरंत धनवान कैसे बन जाऊँ और बिना किसी अभाव के कैसे जीवन बिताऊँ। धनवान बन जाने के मार्ग का अन्वेषण करने में वह लग गया।
उसने कुछ लोगों से सुना कि लोहा, पीतल जैसी धातुओं को मंत्र द्वारा सोने में बदला जा सकता है और इसे पारस विद्या कहते हैं। उसने लोगों से यह भी सुना कि यह विद्या बैरागी और योगी ही जानते हैं। चंदर ने निश्चय कर लिया कि जैसे भी हो, इस विद्या को सीखना है और देखते-देखते धनवान बन जाना है। वह हमेशा इसी को लेकर सोचने लगा।
तब से लेकर शहर में कोई बैरागी आता तो उसी के पीछे घूमता-फिरता था। जो भी बैरागी शहर में आये, उन सबने उससे साफ़-साफ़ कह दिया कि वे इस विद्या को नहीं जानते। वे उससे यह भी कहते कि उन्होंने सब कुछ त्यज दिया है और उन्हें सोने की कोई ज़रूरत नहीं है। कुछ और बैरागियों ने उससे कहा भी कि ऐसी कोई विद्या नहीं है। वे उसे डाँटते भी थे। कहते कि छोटे बच्चों को ऐसी बातों पर ध्यान देना नहीं चाहिये। उनकी बातें सुनकर भी उसके विचार में परिवर्तन नहीं आया। माँ भार्गवी समझ नहीं पायी कि कैसा भूत इसपर सवार है और इसका बर्ताव ऐसा क्यों है।



एक दिन रात को थाली में खाना परोसते हुए माँ ने उससे कहा, ‘‘अध्यापकजी ने कहा कि तुम आज स्कूल नहीं आये। कहाँ गये थे?''
चंदर चुप रह गया तो माँ ने यही सवाल दोहराया। इससे नाराज़ होकर बिना खाये वह उठकर चला गया। बेचारी भार्गवी को बहुत ही दुख हुआ। वह कुछ और कह भी नहीं पायी।
घर से बाहर आने के बाद चंदर थोड़ी देर तक इधर-उधर भटकता रहा और फिर ग्राम देवी के मंदिर के चबूतरे पर लेट गया। आधी रात को उसने किसी की बातें सुनींतो वह उठ बैठा। उसने देखा कि एक साधु पद्मासन बगाकर बैठे हुए हैं और कुछ मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं। चंदर उठकर धीरे से जाकर उनके पास बैठ गया।
आँखें खोलकर बैरागी ने कहा, ‘‘तुम चंदर हो न?'' फिर उन्होंने उसके बारे में सब बातें बतायीं। चंदर चकित रह गया। इसके पहले उसने सब साधुओं से जैसे पूछा था, उसी प्रकार इस साधु से भी पूछा, ‘‘क्या आपको पारस विद्या मालूम है?''
बैरागी ने ‘हाँ' के भाव में सिर हिलाया। चंदर बेहद खुश हुआ। उसने बैरागी से विनती की, ‘‘मैं भी आपके साथ आऊँगा, कृपया मुझे वह विद्या सिखाइये।''
बैरागी ने कहा, ‘‘पुत्र चंदर, पारस का अर्थ है रस शिला। उससे स्पर्श कराने पर कोई भी धातु सोने में परिवर्तित हो जाती है। यह रस शिला से संबंधित विद्या है। बड़ा ही रहस्यमय है। इसे तुम्हें सिखाने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु...'' कहते हुए रुक गये।
‘‘रुक क्यों गये स्वामी'', चंदर ने पूछा।
‘‘इस विद्या को सीखने के लिए अपार ज्ञान और आग्रह चाहिये। बहुत मेहनत करनी पड़्रती है'', साधु ने कहा।
‘‘इसके लिए मुझे क्या करना होगा? कृपया बताइये,'' चंदर ने पूछा।
‘‘ज्ञान प्राप्त करने के लिए खूब पढ़्रो। उसी पर अपना ध्यान केंद्रित करो। जो भी अच्छा मौक़ा तुम्हारे हाथ आये, उसका सदुपयोग करो। अपने को दूसरों की तुलना में कम मत समझो। तुम्हारी माँ तुम्हारे लिए ही हर पल मेहनत कर रही है। उसकी सहायता करते रहो। इस विद्या को साधने के लिए कितने ही उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ता है, इसलिए अपने शरीर को भी मजबूत बनाओ। अनुशासन का पालन करो। जब मुझे विश्वास हो जायेगा कि तुम समर्थ हो गये तब तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगा और पारस विद्या सिखाऊँगा'', यों कहकर साधु चले गये।
अब चंदर भी एक निर्णय पर आया। माँ के आते ही वह स्कूल जाने को तैयार हो गया। भार्गवी बेटे के उस परिवर्तन पर बहुत खुश हुई। पहले तो चंदर को ऐसा करने में तकलीफ़ महसूस हुई, पर धीरे-धीरे उसमें पढ़ाई पर श्रद्धा बढ़ने लगी। अब उसका पूरा ध्यान पढ़ाई में ही केंद्रित था। माँ, अध्यापक, सहपाठी उसकी बड़ी प्रशंसा करने लगे। मन लगाकर स्वशक्ति से सब कुछ साधा जा सकता है, यह आत्मविश्वास उसमें दृढ़ होता गया। अब वह खुश दिखने लगा। एक साल के अंदर ही एक दिन वे साधु चंदर के घर आये। उन्होंने कहा, ‘‘चंदर, मेरे साथ चलो, पारस विद्या सिखाऊँगा।''

‘‘अब मुझमें पारस विद्या के प्रति कोई रुचि नहीं है'', चंदर ने कहा।
लेकिन बैरागी ने कहा, ‘‘अब तक मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा हूँ। अब आने से इनकार करोगे तो कैसे होगा?'' साधु ने कहा।
‘‘क्षमा कीजिये। मैं नहीं आ सकता'', चंदर ने दृढ़ स्वर में कहा। बैरागी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘बेटे चंदर, विद्या के प्रति अब तुममें श्रद्धा काफ़ी बढ़ गयी। आत्मविश्वास बढ़ गया। इसी कारण से तुम पारस विद्या को सीखने से इनकार कर रहे हो। मैं भी चाहता था कि तुममें ऐसा परिवर्तन आये। विद्या से बढ़कर कोई बड़ा धन नहीं है। अपनी ही ताक़त से साधे जानेवाले कर्म का मूल्य बड़ा होता है। हर मनुष्य में साधारण धातुओं की तरह कितनी ही ऐसी शक्तियाँ होती हैं, जो प्रकाशित नहीं होती। उनमें से जो अच्छे हैं, उन्हें हमें चुनना है। शान पर चढ़ाकर प्रकाशित होनेवाले सोने की तरह हमें उन्हें बदलना है। आग्राह, एकाग्रता हो तो सब कुछ साधा जा सकता है। इसी पारस विद्या को मैं जानता हूँ। मैं तुम्हारे पिता का बाल्य मित्र हूँ और मैं तुममें यही परिवर्तन देखना चाहता हूँ। तुम्हारे पिता जब जीवित थे तब उनमें से मैं भी एक वह व्यक्ति हूँ, जिसे तुम्हारे पिता से सहायता प्राप्त हुई। मैं इसके लिए उनका आजीवन कृतज्ञ रहूँगा। दो सालों से मैं तुम्हारी व्यवहार शैली देखता आ रहा था। तुम्हें सही मार्ग पर ले जाना मेरी जिम्मेदारी थी और इसी को निभाने के लिए मैंने साधु का वेष धारण किया।'' कहते हुए उसने नक़ली दाढ़ी निकाल डाली। जब चंदर चकित होकर उसे देख रहा था तभी माँ वहाँ आयी और उसने अपने पति के दोस्त नारायण के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, क्योंकि उसने उसके बेटे को सही मार्ग पर ले आने में मदद की थी।
चन्दर समझ गया कि कड़ी मेहनत और अनुशासन द्वारा अर्जित योग्यता ही वह पारस विद्या है जो अभावग्रस्त जीवन की साधारण धातु को सोने जैसे सुखी जीवन में बदल सकती है।

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