Thursday, June 30, 2011

मृत्यु के चौखट से...

एक दिन औरंगजेब ने, महाराज जसवंत सिंह के साथ उद्यानवन में टहलते हुए कहा, ‘‘क्या इतने भयंकर बाघ को इसके पहले आपने कभी देखा?'' यह कहते हुए उन्होंने एक पिंजड़ा दिखाया, जिसमें एक बाघ था।

‘‘हमारी शौर्य भूमि में छोटे-छोटे बालक भी ऐसे बाघों से खेला करते हैं।'' यह कहते हुए उन्होंने दूर खड़्रे अपने पुत्र पृथ्वीसिंह को बुलाया और बाघ से लड़्रने को कहा। सोलह साल का युवक पृथ्वीसिंह बड़े ही उत्साह के साथ पिंजड़े में घुसा और बाघ पर पिल पड़ा। थोड़ी देर तक वह उससे भिड़ता रहा और फिर अपनी कमर से खंजर निकालकर उसकी छाती में भोंक दिया। बाघ दर्द के मारे चिल्लाता हुआ मर गया।

औरंगजेब देखता रहा। वह सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा भी हो सकता है। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। औरंगजेब अंदर ही अंदर भयभीत हुआ। बेटा ही इतना साहसी हो तो पिता कितना साहसी होगा? इस सोच ने उसके मन को परेशान कर दिया।

जसवंत सिंह मारवाड़ (अब जोधपुर) का राजा था। यह राजस्थान के थार रेगिस्तान से सटा हुआ राज्य था। मारवाड़ का अर्थ है-मरण भूमि। मानव के निवास के लिए यह असुविधाजनक स्थल है। यहाँ पानी की बड़ी कमी है। रेत से भरी ज़मीन के रूप को ही बदल डालनेवाले तूफान यहाँ आते रहते हैं। यहाँ अधिकाधिक अकाल पड़ते हैं। फिर भी यहाँ के वीर शासकों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए कितनी ही लड़ाइयाँ लड़ीं, क्योंकि वे अपनी मातृभूमि को जान से ज़्यादा प्यार करते थे।

मारवाड़ का शासक जसवंत सिंह असमान पराक्रमशाली था। फिर भी स्वार्थवश उसने किसी नियम का पालन नहीं किया, मित्रों को भी मार डालने में वह नहीं हिचकिचाया। इस कारण से वह बदनाम भी था। वह औरंगजेब के लिए ख़तरा बन गया। उस राजपूत राजा का अंत करने के लिए औरंगजेब ने कितने ही प्रयत्न किये, पर वह विफल ही रहा। एक बार आखिरी क्षण में उसे धोखा देकर वह सुरक्षित भाग गया। वह मौत से बच गया।

मारवाड़ के राजा को मारने के लिए मुगल बादशाह ने कितने ही षडयंत्र रचे। इनका भंग करता आया मुकुंद दास, जो राजा का विश्वासपात्र था। वह कुंपावत वंश का नायक था। औरंगजेब ने एक बार उसे संदेश भेजा तो उसने उसकी परवाह ही नहीं की, जिसके कारण वह उसपर नाराज़ हो उठा। प्रतिकार लेने का बादशाह को एक अच्छा मौक़ा मिला। उसे सज़ा देने की आड़ में उसने उसे भूखे बाघ के पिंजड़े में निरायुध भेजा और उससे लड़ने का हुक्म दिया।
मुकुंद दास ने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। बाघ जब गुर्राकर उसे देख रहा था, तब उसने उससे कहा, ‘‘अरे ओ बाघ, इस जसवंत बाघ का सामना करके देख, मज़ा चखाऊँगा'' और, क्रोध भरी आँखों से उसे देखता रहा। अजीब आगंतुक के विचित्र व्यवहार को देखकर चकित बाघ सिर झुकाकर पीछे हट गया। ‘‘उसमें मेरा सामना करने का साहस नहीं है। जो शत्रु सामना नहीं करता, उससे लड़ना राजपूतों के सिद्धांतों के विरुद्ध है। ऐसा राजपूत वीर कहलाने के योग्य भी नहीं है'', कहता हुआ मुकुंद दास बाहर आ गया।
उसके साहस पर चकित औरंगजेब ने उसे मूल्यवान भेंटें दीं और उसका आदर-सत्कार करके उसे भेज दिया। तब से मुकुंद दास का नाम पड़ा नाहारखान (बाघ राजा)। ऐसे असमान वीर जसवंत सिंह के रक्षा कवच थे, इसीलिए औरंगजेब उसे मार नहीं सका। अनेकों प्रयत्न करने पर भी वह असफल ही रहा। उसके सारे के सारे षडयंत्र व्यर्थ हो गये। इस वजह से उसने दोस्ती का हाथ बढ़ाया। जसवंत सिंह को अपनी सेना का अधिपति बनाकर विद्रोहियों को कुचल डालने के लिए उसे काबुल भेजा।
चूँकि वह बादशाह का हुक्म था, जसवंत सिंह उसे टाल नहीं सका। अपने शासन भार को उसने बड़्रे बेटे पृथ्वीसिंह को सौंपा और अपने परिवार के कुछ सदस्यों व विश्वासपात्र मित्रों को लेकर वह काबुल गया। जल्दी ही वह उस प्रांत का गवर्नर घोषित किया गया।
औरंगजेब ने एक बार मारवाड़ के युववारिस पृथ्वीसिंह को अपने दरबार में बुलवाया। वह यह नहीं भूला कि कुछ सालों पहले यही युवक भयंकर बाघ से भिड़ पड़ा और उसे मार डाला। उसने उस साहस-भरे काम के लिए अब उसकी प्रशंसा की।

हुक्म देते ही दो सैनिक एक आकर्षक दुशाला ले आये और पृथ्वीसिंह पर ओढ़ादिया । पृथ्वीसिंह बहुत ही खुश होते हुए वहाँ से निकल पड़ा। परंतु उसका आनंद क्षणिक साबित हुआ। थोड़ी ही देर में पूरा शरीर फफोलों से भर गया और एक ही घंटे के अंदर वह मर गया। औरंगजेब में प्रत्यक्ष रूप से उसका सामना करने का साहस नहीं था। इसीलिए उस दुशाले पर विष पोता और उसे धोखा देकर मार डाला।
पुत्र की मृत्यु का समाचार जसवंत सिंह को मिला तो वह चिंतित हो उठा। उसके दो और पुत्र काबुल में ही मर गये। बेवारिस मारवाड़ राजा जसवंत सिंह 1672 में स्वस्थल से दूर मर गया। शत्रु का समूल नाश करने पर औरंगजेब बहुत खुश हुआ और उसने मारवाड़ को अपने वश में कर लिया। उसने वहाँ के मंदिरों का ध्वंस कर दिया। राजभवन की निधियों को लूट लिया।
किन्तु, बहुत ही कम समय में ही बादशाह को एक आश्चर्यजनक समाचार मिला, जिसे सुनकर वह परेशान हो उठा। समाचार था, जसवंत सिंह के साथ जो योद्धा काबुल गयेथे वे वापस लौट रहे थे । उनमें से जसवंत सिंह की गर्भिनी पत्नी भी थी, जिसने थोड़े ही दिनों में पुत्र को जन्म दिया। शिशु अजित सिंह को राजपूत अपना राजा मानने लगे और वे उसे माँ सहित स्वस्थल ले आ रहे थे। औरंगजेब ने इस विषय पर खूब सोचा और उनका अंत करने के लिए एक नया षडयंत्र रचा। शिशु अजित सिंह के साथ लौटे राजपूतों का स्वागत उसने बडे पैमाने पर किया और उन्हें दिल्ली के दरबार में आने के लिए न्योता दिया। उसने उन राजपूत योद्धाओं से बताया कि युवराजा अजितसिंह की रक्षा की जिम्मेदारी उसे सौंपी जाये तो मारवाड राज्य को वह उनके अधीन करेगा और ऐसा करने में उसे कोई आपत्ति नहीं है। राजपूतों ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार किया। औरंगजेब ने उन सबको जेल में डाल दिया और उन्हें मुगल सेना के सुपुर्द कर दिया।
अब राजपूत योद्धा विपत्ति में फँस गये। राज्य के एकमात्र वारिस युवराज अजित सिंह को बचाना ही उनका एकमात्र लक्ष्य बन गया। गोरादाय नामक दाय, संपेरे के वेष में निकली और मुकुंद दास की सहायता से शिशु युवराज को अंधेरे में छिपाकर ले जाने में कामयाब हुई। मुग़ल सैनिक शक न करें, इसके लिए वह अपने बेटे को उस जगह पर छोड़कर चली गयी।

राजपूत योद्धा दुर्गादास राठौड़ तत्काल ही युद्ध के लिए सद्ध हो गया। इसके पहले राजपरिवार की सभी स्त्रियाँ उस कमरे में पहुँच गयीं, जहाँ बड़ी तादाद में तोपों की बारूद थी। उन्होंने उसमें आग लगा दी, जिसके कारण राजमाता को छोड़कर सबके सब अग्नि की आहुति बनीं।
जलते हुए भवन से बाहर आये दुर्गादास राठौड़्र ने अपने अनुचरों के साथ मुग़ल सेना का सामना किया। शिशु युवराज को लेकर कुछ लोग भाग रहे हैं, उसे भांपते ही चंद मुगल सैनिक उनका पीछा करने लगे। पर राजपूतों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका और इतने में गोरादाय शिशु को लेकर भाग गयी। तीन सौ राजपूत वीरों ने मुग़ल सेना से जो लड़ाई की, उनमें से अब केवल सात ही राजपूत ज़िन्दा बच गये। शत्रु सेना बड़ी ही तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। राजपूतों को समझ में नहीं आया कि राजमाता को कैसे बचाया जाए। दुर्गादास ने अपनी तलवार राजमाता के हाथ में थमा दी। राजमाता चाहती थी कि किसी भी हालत में वह शत्रु सेना के हाथ न आये। जब कोई दूसरा मार्ग न रहा, तब राजमाता ने वह तलवार अपनी छाती में भोंक ली और प्राण त्याग कर दिया। बहुत ही घायल दुर्गादास, शेष अनुचरों के साथ वहाँ से बचकर निकल गया।
बहुत ही दूर के पर्वतों में युवराज को पहुँचाया गया और अब उसकी रक्षा का पूरा विश्वास हो गया। अब युवराज अजित विश्वासपात्र राजपूतों के बीच पलने लगा। राजपूतों में यह ख़बर फैल भी गयी कि युवराज अब कहाँ पल रहे हैं। जब युवराज आठ साल की उम्र के थे तब कुछ प्रमुख वहाँ गये और उनसे मिले। सबने मिलकर दृढ़ निश्चय कर लिया कि मुग़लों के अधिकार बंधन से हमें छुटकारा पाना चाहिये और इसके लिए युद्ध की तैयारी करनी चाहिये। कुछ ही समय के अंदर उन्होंने अनेक प्रांतों को अपने वश में कर लिया।
औरंगजेब बूढ़ा हो गया। उसने देखा कि राजपूत योद्धा अब बलवान होते जा रहे हैं। अंतिम शासक और शक्तिवान बादशाह के नाम से प्रख्यात औरंगजेब 1707 मार्च में मर गया। अजित सिंह, दुर्गादास आदि ने आक्रामकों को मातृभूमि से खदेड़ दिया। युवराज अजित सिंह मारवाड़ का महाराज बना।



1 comment:

  1. लखनऊ में तनाव तो धनीराम के गानों पर मस्‍त है सैफई
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