Thursday, June 30, 2011

रतन की फाँसी का फंदा

पच्चीस साल पहले रतन उस गाँव में आया था। उस समय उसके पास कुछ नहीं था। परंतु आज वह उस गाँव के धनी किसानों में से एक है। वह कहता रहता है कि रात-दिन मैंने मेहनत की, जिसके परिणामस्वरूप आज मैं संपन्न किसान बन पाया। परंतु गाँव के लोग उसे महा कंजूस मानते हैं और उसकी नीचता पर ताने मारते रहते हैं। उसे ऐसा वृक्ष मानते हैं, जिससे किसी को किसी भी प्रकार का फ़ायदा नहीं होता।
उस साल समय पर वर्षा हुई, इसलिए उड़द दाल की अच्छी फ़सल हुई। लाभदायक क़ीमत मिली, इसलिए किसानों ने फ़सल उसी समय बेच डाली। परंतु रतन ने ऐसा नहीं किया। उसने उम्मीद बांध रखी थी कि और अधिक दाम मिलेगा, इसलिए बिना बेचे ही उसे महफूज़ रखा।
परंतु उड़द के दाम में कोई बढ़ती ही नहीं हुई,उल्टे दिन व दिन उसका दाम घटता गया। इससे होनेवाले नुकसान की कल्पना करते हुए रतन से रहा नहीं गया। उसने गायों को बांधनेवाले पगहे को अपने गले में लटकाकर आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया। जब वह इस तैयारी में था, तब पडोस के नौकर ने यह देख लिया और तुरंत पगहे को काट डाला। उसे ज़मीन पर सुला दिया और उसके चेहरे पर पानी छिड़का। आँखें खोलकर रतन ने इधर-उधर देखा और कहने लगा, ‘‘अरे लच्छू, मैं तो इसे मामूली रस्सी समझ बैठा, यह तो कीमती पगहा है और तुमने इसके दो टुकड़े कर दिये। इसकी क़ीमत नहीं चुकाओगे तो चुप नहीं रहूँगा। तेरी ऐसी की तैसी कर दूँगा।''


No comments:

Post a Comment