Thursday, June 30, 2011

चमत्कार

डॉ.के.एस.दुग्गल सन 1976 में भारत सरकार के योजना आयोग के परामर्शदाता (सूचना) के रूप में सेवा-निवृत्त होने से पूर्व 1966 से 1973 तक नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक थे। ये पंजाबी, उर्दू, हिन्दी तथा अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक हैं और विभिन्न भाषाओं में 150 पुस्तकों के सृजन का इन्हें श्रेय प्राप्त है। ये छः वर्षों के लिए राज्य सभा के सदस्य थे। इन्हें 2007 में साहित्य अकादमी के फेलोशिप से सम्मानित किया गया। इसके पूर्व 1988 में इन्हें ‘पद्म भूषण' से अलंकृत किया गया था।
‘‘और तब गुरु एक उजाड़ जंगल की ओर चल पड़े। गरमी बहुत थी। शिला और सिकता पर तपते सूरज की मार बड़ी निर्ममता से पड़ रही थी। झाड़ियाँ और वृक्ष जल गये थे। चारों ओर सन्नाटे का साम्राज्य था। मीलों तक कोई मनुष्य या प्राणी नहीं। जीवन का कहीं कोई चिन्ह तक नहीं।''
‘‘फिर क्या हुआ माँ?'' मैंने चिन्तित होकर पूछा।
‘‘गुरु चलते गये। वे अपने विचारों में खोये थे। उनका चेला बहुत प्यासा था। उसने पानी माँगा। वहाँ पर पानी? गुरु बोले, ‘‘धीरज रखो चेले। अगले गाँव में जितनी मर्जी हो पानी पी लेना।'' लेकिन चेला अत्यन्त प्यासा था, इसलिए उसने गुरु की बात नहीं सुनी। गुरु ने फिर समझायाः ‘‘इधर पानी का एक कतरा भी नहीं है। सब भाग्य के भरोसे छोड़ दो और धैर्य रखो।'' लेकिन चेला बैठ गया और आगे बढ़ने से इनकार कर दिया। गुरु को चेले के हठ पर हँसी आ गई। उसने ध्यान के लिए आँखें बन्द कर लीं। जब उसकी आँखें खुलीं तो उसने चेले को दर्द से छटपटाते देखा। गुरु ने मुस्कुरा कर कहा, ‘‘देखो, इस पहाड़ी के शिखर पर एक कुटिया है जिसमें एक दरवेश रहता है। उसके पास जाकर पानी माँगो। इस क्षेत्र में केवल उसी के कुएँ में जल है।''
‘‘और तब मम्मी?'' मैंने, यह जानने के लिए कि चेले को पानी मिला की नहीं, बड़ी बेचैनी के साथ पूछा।
‘‘चेला इतना प्यासा था कि उसने जैसे ही पानी का नाम सुना वह पहाड़ी पर दौड़कर चढ़ गया। तपती दोपहर, प्यास, और पहाड़ी की चढ़ाई ! उसे मुश्किल से कुटिया मिली। जब वह वहाँ पहुँचा तब वह हाँफ रहा था और पसीने से लथपथ हो रहा था। उसने दरवेश को सलाम किया और पानी माँगा। दरवेश ने कुएँ की ओर इशारा किया। जब चेला कुएँ की तरफ़ मुड़ा तब दरवेश के मन में एक विचार आया।

उसने पूछा, ��कहाँ से आये हो भले आदमी?�� चेले ने कहा, ��मैं एक बहुत बड़े गुरु का साथी हूँ।�� दरवेश गुरु के बारे में सुनते ही क्रोधित हो गया और चेले को कुटिया से बाहर कर दिया। चेला थकामाँदा गुरु के पास लौट आया। और जो कुछ हुआ, उसने गुरु को बता दिया। गुरु ने यह सुन कर मुस्कुरा दिया। और कहा, ��इस बार विनम्रता के साथ उन्हें कहो कि तुम एक दूसरे दरवेश के साथी हो।�� चेला अपनी किस्मत को कोसता फिर पहाड़ी की चोटी पर चढ़ा। लेकिन दरवेश ने चेले को फिर बिना जल दिये वापस भेज दिया। अब चेले की हालत और बुरी हो गई। ऐसा लगा जैसे अब नहीं बचेगा। गुरु ने सारी कहानी सुनने के बाद उद्गार प्रकट किया, ��प्रभु को धन्यवाद�� और चेले को एक बार फिर दरवेश के पास जाने के लिए कहा। चेला तीसरी बार भी पहाड़ी पर चढ़ा और दरवेश के पाँव पर गिरकर पानी के लिए गिड़गिड़ाने लगा। लेकिन दरवेश ने इस बार भी पानी देने से इनकार कर दिया और कटाक्षपूर्वक कहा, ��यदि तुम्हारा गुरु अपने को धर्मात्मा समझता है तो क्या वह तुम्हें एक चुल्लू पानी नहीं दे सकता?�� चेला नीचे आकर और गुरु के चरणों में गिरकर अचेत हो गया। गुरु ने उसकी पीठ थपथपाई और उससे उसके सामने पड़े एक पड़े पत्थर को हटाने के लिए कहा। चेले ने वैसा ही कहा। तुरन्त वहाँ से पानी का फुहारा बाहर आने लगा। कुछ ही पलों में उनके चारों ओर पानी ही पानी था। तभी दरवेश को पानी की जरूरत पड़ी। वह अपने कुएँ के पास गया। लेकिन उसका कुआँ बिलकुल सूखा था। उसने उसके नीचे झाँककर देखा। अन्दर एक झरना बह रहा था। उसने गुरु और चेले को एक कीकर के पेड़ के नीचे बैठे हुए देखा। उसे बहुत क्रोध आया। उसने पूरी ताकत लगाकर एक बड़ी चट्टान को वहाँ से नीचे धकेल दिया। चेला एक विशाल चट्टान को लुढ़क कर नीचे आते देख भय से चीख पड़ा। गुरु शान्त थे। उन्होंने चेले से प्रभु की प्रार्थना करने के लिए कहा। जब चट्टान उसके ऊपर आया, उसने शान्त होकर अपना हाथ फैलाया और तलहथी से उसे रोक दिया। और आज तक उस चट्टान पर गुरु की तलहथी के निशान मौजूद हैं। उस स्थल पर अब एक मन्दिर है जिसका नाम है गुरु की तलहथी का मन्दिर। इसके चारों ओर एक शहर बस गया है। यहाँ रेलवे स्टेशन भी है जिसे होली पाम कहते हैं।


मुझे इस कहानी से बड़ा आनन्द मिला। लेकिन एक छोटी पहाड़ी के बराबर एक बड़ी चट्टान को हाथ से रोक देने वाली बात पर यकीन न कर सका। मुझे यह भी विश्वास नहीं हुआ कि पत्थर पर तलहथी के निशान बन गये हैं।
��किसी ने इसे बाद में उत्कीर्ण किया होगा,�� मैंने कहा और अपनी माँ से बहुत देर तक बहस करता रहा।
माँ ने मुझे देखा और फिर चुप रह गई। ��क्या कोई हिमस्खलन को रोक सकता है?�� जब भी इस जनश्रुत कथा को सुनता तो मजाक से यह सवाल किया करता था। जब यह कहानी स्कूल में सुनाई गई तब मैंने विरोध किया और शिक्षक के साथ बहस करने लगा।
��श्रद्धा रखनेवाले लोगों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है,�� मेरे शिक्षक ने यह कहकर मुझे चुप कर दिया।
कुछ ही दिनों के बाद मैंने सुना कि कहीं पर कुछ भयानक घटित हो गया है। ऐसे अवसरों पर लोग प्रायः मन्दिर पर जाकर वहाँ के जिम्मेवार लोगों से विस्तार से जानकारी प्राप्त करते थे।
माँ घर से चल पड़ी। साथ में मैं और मेरी छोटी बहन भी। पूरे रास्ते में माँ की आँखें आसुओं से नम बनी रहीं।
जब हम मन्दिर पर पहुँचे तब हमें एक विचित्र कहानी सुनने को मिली।
किसी दूर के शहर में निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों की भीड़ पर अंग्रेज़ ने गोली चलाकर हजारों को मौत के घाट उतार दिया था। मरनेवालों में जवान, बूढ़े, औरतें और बच्चे भी थे। बचे हुए लोगों को दूसरे शहर की जेल में भेजने के लिए एक ट्रेन में ठूस दिया गया। वे कैदी भूखे-प्यासे थे। हुक्म यह था कि ट्रेन बिना कहीं रुके थ्रू जायेगी।
मन्दिर पर के लोग यह खबर सुनते ही आपे से बाहर हो गये। यह कैसे हो सकता है कि प्यासे लोगों से भरी ट्रेन मन्दिर से होकर जहाँ एक चेले की प्यास बुझाने के लिए गुरु ने एक चमत्कार किया था, बिना रुके चली जाये ! ट्रेन में न सिर्फ प्यासे लोग थे, बल्कि भूखे और जख्मी स्त्री-पुरुष भी थे। होली पाम के निवासियों ने अपने स्टेशन पर गाड़ी रोकने के लिए अधिकारियों को लिखा था। उन्हें टेलिफोन और टेलिग्रम किये गये। परन्तु अंग्रेज़ ने अपना हुक्म वापस लेने से इनकार कर दिया। होली पाम के लोगों ने प्लेटफार्म पर ढेर सारे ब्रेड लोफ्स, दालें, मीठे चावल और कितने ही टीन पानी जमा कर दिये थे।
ट्रेनें गर्मी के तूफान की तरह आतीं और आँधी की तरह सब कुछ रौंदती-उड़ाती चली जातीं। ट्रेन को कोई कैसे रोक सकता था?

मेरी माँ की सहेली ने बाकी कहानी यों सुनाईः
��रेल की पटरी पर सबसे पहले मेरे पति लेट गये। फिर उनके साथ उनके दोस्त और उनकी बीवियाँ। बहुत दूरी से इंजिन ने सीटी देनी शुरू कर दी। गाड़ी की गति धीमी होने लगी। लेकिन फिर भी इस्पात के बने पहिये को एकदम रुकने में वक्त तो लगता ही। इंजिन के चक्के अनेक लोगों पर चढ़ गये, लेकिन अपनी जगह से कोई न हिला। पटरी पर हम लोग जपते रहेः ��प्रभु को धन्यवाद, प्रभु को...।��
��जाप समवेत चलता रहा। फिर ट्रेन पीछे जाने लगी। तब तक कितने ही लोगों के शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गये। पटरी के दोनों ओर खून की धारा बहने लगी।��
मैंने कहानी सुनी और हक्का-बक्का रह गया। सारा दिन मेरे मुँह से एक शब्द न निकला।
वापस लौटते समय मेरी माँ गुरु की तलहथी के मन्दिर की कहानी मेरी छोटी बहन को सुनाने लगी। उसने कहा कि उस तरफ चेले के साथ गुरु कैसे आये, चेले ने प्यास बुझाने के लिए कैसे पानी माँगा, दरवेश ने कैसे चट्टान को नीचे गिराया और कैसे गुरु ने कहा, ��प्रभु को धन्यवाद�� और कैसे अपने हाथ की तलहथी से उस चट्टान को रोक दिया।
��लेकिन कोई कैसे गिरती हुई उतनी बड़ी चट्टान को हाथ से रोक सकता है?�� मेरी छोटी बहन बीच में बोली।
��पर क्यों नहीं?�� मैं फूट पड़ा। ��यदि तूफान की तरह आती ट्रेन रोकी जा सकती है, तब पहाड़ से लुढ़कती चट्टान क्यों नहीं?��
और तब मेरी माँ की आँखों से आँसू छलक पड़े।



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