Thursday, June 30, 2011

नारायण पांडे की वाक् शुद्धि

माधव पांडे गदानगर का निवासी था। वह बड़ा ही राम भक्त था। उसकी पत्नी जानकी का स्वभाव और अभिरुचियाँ पति के ही जैसे थे। उनका बेटा नारायण पांडे गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहा था।
माधव पांडे राम की कथाएँ सुनाता था। कई लोग हर दिन इन कथाओं को सुनने उसके घर आया करते थे। संतुष्ट होकर जाने के पहले वे लोग थोडा-बहुत जो देते थे, उसी से वह अपना घर चलाया करता था।
नगरपाल गीर्वाणी उसकी राम कथाएँ सुनना चाहता था। एक दिन उसने माधव पांडे को बुलाया और कहा, ‘‘तुम्हारी कथाएँ सुनने की बड़ी इच्छा है। हर दिन मेरे दरबार में आना और सभिकों को कथाएँ सुनाना। जितना धन चाहते हो, दूँगा।''
माधव पांडे ने कहा, ‘‘यजमान्, आप धन देकर राम कथाएँ सुनना चाहते हैं। अगर मैं आपके दरबार में आऊँ और कथाएँ सुनाऊँ तो इसका यह मतलब हुआ कि मैं धन के लिए ही यह काम कर रहा हूँ। किन्तु मैं उन्हीं राम भक्तों को ये कथाएँ सुनाता हूँ, जो भक्ति-भाव से मेरे घर आते हैं। आप चाहें तो मेरे घर आकर वे कथाएँ सुन सकते हैं। आपसे मैं प्रतिफल भी नहीं मांगूँगा।''
गीर्वाणी नाराज़ हो उठा। पर कुछ कह नहीं पाया और चुप रह गया। माधव पांडे के पुत्र नारायण पांडे ने शिक्षा समाप्त की और दरबार में नौकरी पाने के लिए गीर्वाणी से मिला। गीर्वाणी ने खुश होते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे पिता केवल राम कथाएँ सुनाते हैं। तुम उपनिषद, वेद, अष्टादशपुराण, प्रबंध काव्य, नाटकों की कथाएँ आदि हर दिन मेरे दरबार में सुनाते रहना। लोग अगर तुम्हारे पिता से कथाएँ सुनना बंद कर दें और तुम्हारी कथाएँ सुनने मेरे दरबार में आने लगें तो तुम्हें बडी धन-राशि दूँगा।''

नारायण पांडे ने कहा, ‘‘रसीले ढंग से कथाएँ सुनाने की मेरी तीव्र इच्छा है। पर, आप चाहते हैं कि मैं अपने पिता से प्रतिस्पर्धा करूँ। यह मुझे समुचित नहीं लगता।''
‘‘मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि केवल पांडित्य में अपने पिता से प्रतिद्वंद्विता करो। अपनी कमाई से तुम सुखी रह सकते हो और अपने माता-पिता को भी सुखी रख सकते हो। इसमें अनुचित क्या है?'' गीर्वाणी ने पूछा।
नारायण पांडे को ये बातें सही लगीं। घर लौटने के बाद जब उसने यह विषय अपने पिता से कहा, तो उसने कहा, ‘‘जो तुम्हें सही लगता है, करना। केवल धन ही को महत्व मत देना।''
नारायण पांडे, गीर्वाणी के दरबार में काम पर लग गया। गीर्वाणी ने उसके बारे में विस्तृत रूप से प्रचार कराया। इस वजह से नारायण पांडे से कथाएँ सुनने बड़ी संख्या में लोग दरबार में आने लगे। गीर्वाणी ने उसे बड़ी रक़म दी और उसका सत्कार किया।
नारायण पांडे ने उसी नगर में एक बड़ा घर खरीदा। लक्ष्मी नामक एक सुंदर लड़की से शादी की और आराम से ज़िन्दगी गुज़ारने लगा। परंतु, इससे पिता माधव पांडे को संतुष्टि नहीं मिली। क्रमशः उसकी कथाएँ सुनने आनेवालों की संख्या घटती गयी। वह चिंतित हो उठा। इस स्थिति में, श्री राम उसे सपने में दिखायी पड़े और बोले, ‘‘चक्रपुर में मेरा मंदिर उजड़ गया है। वहाँ चले जाना और मेरी पूजा करना।''
जैसे ही वह जागा, उसने लोगों से पूछकर चक्रपुर के बारे में जानकारी प्राप्त की। मालूम हुआ कि वह गदानगर से दूर पर्वतों के बीच में स्थित है। वहाँ की भूमि खेती के योग्य है, पर वर्षा के अभाव के कारण वहाँ पीने के लिए भी पानी नहीं मिलता। इसी वजह से ग्रमीण वह प्रदेश छोड़कर चले गये और कहीं बस गये। अब उस गाँव में कुछ जंगली रहते हैं। राम के मंदिर की देखभाल करनेवाला कोई नहीं रहा।
माधव पांडे पत्नी समेत चक्रपुर पहुँच गया। जंगल के सरदार को जब उनके आने का कारण मालूम हुआ तो उसने माधव पांडे से कहा, ‘‘तुम दोनों उस उजड़े मंदिर में पूजा करोगे तो हम एक हफ्ते तक तुम दोनों की देखभाल करेंगे। इस बीच कोई चमत्कार हो जाए तो तुम लोग यहीं रह सकते हो। अन्यथा तुम्हें गाँव में रहने नहीं देंगे।''

माधव पांडे और जानकी राम मंदिर गये। मंदिर में दीप जलाये और पूजा की। रात को जब वे वहीं सो गये तब सपने में श्रीराम प्रत्यक्ष हुए और माधव पांडे से कहा, ‘‘तुम्हारी भक्ति-श्रद्धा पर मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुम्हें जो चाहिये, माँगो।''
माधव पांडे ने श्रीराम को प्रणाम करके कहा, ‘‘इस हफ्ते में ग्रमीणों को अपनी कोई महिमा दिखाइये।''
‘‘ठीक है, जैसे ही नींद से जागोगे, तुम्हें तुम्हारे बग़ल में चंदन की एक अच्छी लकड़ी दिखायी देगी। पहले उसे अपने दायें हाथ में लो। तब तुम्हें ज्ञात होगा कि कब क्या किया जाए। फिर उसे बायें हाथ में लेना। तुम जो कहोगे, वह होकर रहेगा। चंदन की लकड़ी केवल तुम्हारे वारिसों के उपयोग में ही आयेगी।'' यों कहकर श्रीराम अदृश्य हो गये।
जागने पर माधव पांडे ने बग़ल में चंदन की लकड़ी पायी। उसने अपने सपने के बारे में पत्नी को भी बताया। दोनों पास ही के सरोवर में जाकर नहाये। माधव पांडे ने बायें हाथ में चंदन की लकड़ी ली और कहा, ‘‘यह मंदिर बिल्कुल ही संगमरमर का नवीन मंदिर बन जाए।''
देखते-देखते वह उजड़ा मंदिर संगमरमर के मंदिर में परिवर्तित हो गया। इस चमत्कार को देखकर सभी ग्रमीण माधव के पैरों पर गिर पड़े।
इस बीच गदानगर में चंद परिवर्तन हुए। जब समाचार फैल गया कि नारायण पांडे ने कथाएँ सुनाकर पर्याप्त धन कमा लिया तो कलाकार नर्तकियाँ वहाँ आ पहुँचीं। इससे नारायण पांडे की कथाओं में नगरवासियों की कोई अभिरुचि नहीं रही। आमदनी बहुत कम हो गयी। उसने यह बात गीर्वाणी से बतायी।
गीर्वाणी ने कहा, ‘‘तुम अपने पिता के इकलौते बेटे हो। यहाँ रहकर करोगे भी क्या? चक्रपुर जाओ और उन्हीं के साथ रहना।'' व्यंग्य-भरे स्वर में उसने कहा।
नारायण पांडे भांप गया कि गीर्वाणी के मन में अब उसके लिए कोई सद्भावना नहीं है। वह पत्नी को लेकर दूसरे ही दिन चक्रपुर गया। बेटे और बहू को देखकर माधव पांडे और जानकी बेहद खुश हुए। माधव पांडे ने बेटे को थोड़ी दूर ले जाकर चंदन की महिमा के बारे में उसे बताया। फिर कहा, ‘‘स्वयं भगवान श्रीराम तुम्हें यहॉं ले आये। अपना हृदय राम भक्ति से भर लो। जैसे ही तुम योग्य बन जाओगे, इस मंदिर की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप दूँगा।''

चंदन की लकड़ी की महिमा के बारे में नारायण पांडे ने अपनी पत्नी लक्ष्मी को भी बताया। यह सुनते ही लक्ष्मी के मन में दुर्बुद्धि जगी कि उसका पति इस मंदिर का पुजारी बने। वह एक दवा जानती थी, जिसे खानेवाला एक महीने तक पलंग पर ही अस्वस्थ होकर लेटा रहेगा और फिर उसके बाद ठीक हो जायेगा। लक्ष्मी ने अपने ससुर को वह दवा खिलायी। माधव पांडे तुरंत अस्वस्थ हो गया और पलंग पर लेटा रहा।
वैद्यों ने माधव पांडे की परीक्षा की और कहा, ‘‘यह बीमारी ख़तरनाक नहीं है, इसकी कोई दवा भी नहीं है। बस, पानी में भीगना मत।''
पिता के बीमार पड जाने के कारण नारायण पांडे मंदिर का पुजारी बन गया। इसी को मौक़ा समझकर लक्ष्मी ने पति से कहा, ‘‘अपनी वाक् शुद्धि का सबूत प्रजा को दो और उनकी प्रशंसा पाओ।''
पत्नी के कहे अनुसार नारायण पांडे ने पहले दिन मंदिर में आये लोगों से कहा, ‘‘मुझमें वाक् शुद्धि है। आपमें से जिन्हें जो माँगना है, माँगो।''
कुछ लोगों ने चाहा कि उनके व्यापार में वृद्धि हो, कुछ ने निधियाँ चाहीं। यों तरह-तरह की इच्छाएँ लोगों ने प्रकट कीं। वे सब फलीभूत हुईं। परंतु नारायण पांडे की पत्नी लक्ष्मी अकस्मात् पक्षाघात की शिकार हो गई। कारण जानने के लिए नारायण पांडे ने चंदन की लकड़ी हाथ में ली तो उसका सारा शरीर जलने लगा। वह बहुत ही परेशान हो उठा। ऐसे समय पर गाँव के सब लोग उसके पास आये और कहने लगे, ‘‘आपके पिता ने हम सबकी भलाई की। वे अब बहुत ही अस्वस्थ हैं। उनकी पीड़ा हमसे देखी नहीं जाती। हम चाहते हैं कि जब तक आपके पिता स्वस्थ न हो जाएँ तब तक हमारे गाँव में वर्षा न हो।''


उनकी प्रार्थना के प्रभाव के कारण उस गाँव में वर्षा नहीं हुई। तालाब सूख गये। लोगों से ये तकलीफ़ें सही नहीं गयीं। तो वे फिर नारायण पांडे के पास आये और उन्हें बचाने की प्रार्थना की। नारायण पांडे उन सबको लेकर पिता के पास गया और अनजाने में उससे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करने की विनती की। उसने चंदन की लकड़ी को पिता के हाथ में रखा। उसकी सहायता से माधव पांडे पूरा विषय जान गया और कहा, ‘‘बेटे, पश्चाताप से बढ़कर कोई प्रायश्चित्त नहीं। अपने मन में श्रीराम को भर लो और निस्वार्थ होकर अपना कर्तव्य निभाओ।'' यह कहकर उसने चंदन की लकड़ी बेटे को दी।
नारायण पांडे ने चंदन की लकड़ी को क्या पकड़ा, उसके बदन की जलन गायब हो गयी। तब उसने जनता से कहा, ‘‘आप सबकी प्रार्थना है कि मेरे पिता स्वस्थ हो जाएँ। आप सब यही चाहते हैं कि जब तक वे स्वस्थ न हो जायें तब तक वर्षा न हो। वर्षा के अभाव का यही कारण है। उनके स्वस्थ होने में एक महीना लग सकता है। तब तक उन्हें हम गाँव से दूर रखेंगे। तब यहाँ वर्षा होगी।''
जनता ने यह मान लिया। नारायण पांडे स्वयं माँ सहित पिता को रामापुर ले गया। जैसे ही वह चक्रपुर लौटा, भारी वर्षा हुई। लोगों ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वाक्शुद्धि अद्भुत है। भविष्य में तुम्हीं राम मंदिर के पुजारी बनो ।''
इसके एक महीने के बाद नारायण पांडे की पत्नी लक्ष्मी स्वस्थ हो गयी। पति-पत्नी दोनों मिलकर रामापुर गये। तब तक माधव पांडे बिल्कुल स्वस्थ हो गयाथा । पत्नी समेत नारायण पांडे ने पिता के पैर छूते हुए कहा, ‘‘पिताश्री, मैं पितृ द्रोही हूँ। देव पूजाओं के योग्य नहीं हूँ। आप चक्रपुर आइये और पूजा की जिम्मेदारियाँ स्वयं संभालिये।''
माधव पांडे ने प्यार से अपने बेटे को गले लगाया और कहा, ‘‘बेटे, तुममें वाक् शुद्धि है। स्वार्थ जब तक अपना फन नहीं फैलाता, तब तक वह रहेगी । स्वार्थ से छुटकारा पाना हो तो स्वानुभव चाहिये। श्रीराम की कृपा से वह तुम्हें प्राप्त होगा। भविष्य में सतर्क रहना। अब तुम पुजारी होने के सर्वथा योग्य हो।'' यों उन्होंने आशीर्वाद दिया।





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