
विश्वेश्वररायपुर एक बहुत बड़ा गाँव है। अब उस गाँव में भगवद् गीता सप्ताह मनाया जा रहा है। गाँव के सब लोग एक हफ्ते से त्रिपाठी के प्रवचन सुनते आ रहे हैं और भक्ति-सागर में डूब रहे हैं। अंतिम दिन त्रिपाठी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहाः
‘‘मेरे प्रिय जनो, भगवान ने मुझे इतना ही समय दिया। मुझे कहीं और इसी प्रकार के कार्यक्रम में उपस्थित होना है। मोक्ष प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहने पर ही, मानव-जन्म सार्थक होता है। इसके लिए मार्ग दिखलाने वाले एक सद्गुरु की नितांत आवश्यकता होती है। ऐसे गुरु देव समान होते हैं । मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप सबको ऐसे सद्गुरु का अनुग्रह प्राप्त हो। अब मैं आपसे विदा लेता हूँ।''
गाँव के लोगों ने त्रिपाठी का सत्कार दिया, उन्हें अनेक भेंटें दीं और सहर्ष विदा किया।
मंगल और भवानी उस गाँव के भूस्वामी हैं। दोनों दोस्त हैं। दोनों ने त्रिपाठी के प्रवचनों को बड़े ही ध्यान से सुना। घर लौटते ही मंगल ने भावावेश में आकर भवानी से कहा, ‘‘त्रिपाठीजी महान पंडित हैं। जीवन परमार्थ पर बताया गया उनका प्रवचन सचमुच ही कितना अद्भुत है।''
‘‘हाँ, हाँ, निस्संदेह ही वे सरस्वती पुत्र हैं।'' भवानी ने कहा।
मंगल ने कहा, ‘‘जब से मैंने त्रिपाठी का प्रवचन सुना, तब से मेरे हृदय में अशांति घर कर गयी है। सद्गुरु को ढूँढ़ निकालना चाहता हूँ और उनके चरणों में अपना जीवन समर्पित करना चाहता हूँ। तुम कुछ समय तक मेरी खेती की जिम्मेदारी संभालना, मेरे घर की देखभाल करना। अगर तुम मान जाओगे तो मैं उस काम पर निकल पडूँगा। कहो, तुम्हें मंजूर है? मेरी यह सहायता करोगे?'' मंगल ने पूछा।
‘‘तुम्हारी यह सहायता करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। परंतु मेरी एक बात ध्यान से सुनो। गुरु योग्य हैं या नहीं, इसका निर्णय लेने का ज्ञान हो तो हमें गुरु की आवश्यकता ही क्यों हो? सोच कर निर्णय लो ।'' भवानी ने कहा।

‘‘खूब सोचने के बाद ही मैं इस निर्णय पर आया हूँ। सुना है कि प्रयाग के पास कोई एक महात्मा हैं, जो हवा में तैरते हैं, पानी पर चलते हैं और आग में से गुजरते हैं। दिन में भक्तों के साथ रहते हैं, उनकी इच्छाएँ पूरी करते हैं और रात में गायब होकर हिमालय पर्वतों में जाकर तपस्या करते हैं। मैं भी उनके साथ रहकर अपने जीवन को धन्य बनाना चाहता हूँ।'' मंगल ने कहा।
मंगल के इरादे को भवानी ने बखूबी जान लिया। रोकने पर भी वह रुकनेवाला नहीं है, यह जानकर उसने कहा, ‘‘तुम निश्र्चिंत होकर जाओ। भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि यथाशीघ्र तुम्हें वे सद्गुरु मिल जाएँ, तुम्हारा उद्धार हो।''
मंगल जब प्रयाग में नित्यानंद स्वामी के आश्रम में गया, तब वहाँ लोगों की बड़ी भीड़ थी। उस भीड़ को देखकर मंगल पुलकित हो उठा। शिष्यों ने उसके बारे में जानकारी प्राप्त कर स्वामीजी को सविस्तार बताया। मंगल शिष्यों सहित स्वामीजी के निजी कक्ष में पहुँचा।
स्वामीजी को देखते ही मंगल के मुँह से निकल पड़ा। ‘‘वाह, मुखमंडल पर कैसी तेजस्विता है, क्या दिव्य आभा है!'' कहते हुए वह भक्तिपूर्वक स्वामीजी के पैरों पर गिर पड़ा।
‘‘उठो मंगल, तुम कुछ भव बंधनों से बंधे हुए हो। इससे छुटकारा पाना चाहते हो तो तुम्हें कुछ समय तक तपस्या करनी होगी। इसके बाद, तुम जो पाना चाहते हो, पा सकते हो। हरि स्वामी ओम् तत्सत्।'' यह कहकर उन्होंने मंगल को आशीर्वाद किया।
‘‘आश्चर्य, आप सर्वज्ञ हैं। मेरे बारे में आपको सब कुछ ज्ञात हो गया। इस जन्म से मुझे मुक्ति प्रदान कीजिये।'' मंगल ने विनती की।
गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘सब कुछ तेरे हाथों में है। देखो मंगल, तुम्हें अपने अन्दर वैराग्य को बढ़ाना है। लो यह प्रसाद और श्रद्धा-भक्ति के साथ इसे खाना।'' कहते हुए स्वामीजी ने हवा में हाथ फैलाया।
देखते-देखते एक सीताफल उनके हाथों में प्रकट हुआ। स्वामीजी ने उसे मंगल को दे दिया।

मंगल हक्का-बक्का रह गया। फल खाते हुए उसके हृदय में कितने ही संकल्प जाग उठे।
यों मंगल के घर छोड़े छः महीने बीत गये। उसके बारे में लोग तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने लगे। कुछ लोगों ने कहा, ‘‘वह हिमालय पर्वतों पर जाकर तपस्या कर रहा है।'' तो कुछ लोग कहते रहे, ‘‘वह बैरागी बन गया।'' मगंल की पत्नी, बेटा और बेटी इन अफवाहों को सुन कर परेशान हो उठे। पर वे लाचार थे। भवानी ही उनका एकमात्र सहारा था। वही हर मुसीबत में उन्हें ढाढ़स बंधाता था और हर तरह से मदद कर रहा था।
एक दिन मंगल से दो ख़त मिले। एक ख़त उसकी पत्नी के नाम पर था, तो दूसरा भवानी के नाम पर: ‘‘मैं श्री श्री श्री नित्यानंद आश्रम में रह रहा हूँ। परम पूज्य गुरुजी ने उपदेश दिया कि मैं भव बंधनों को तोड डालूँ और तुम सबसे दूर रहूँ। यहीं रहकर प्रशांत जीवन बिताने की मेरी इच्छा है। मेरी पत्नी और संतान को कोई कष्ट न हो, वे किसी प्रकार की कमी महसूस न करें, इसके लिए तीन एकड़ का खेत और घर उनके सुपुर्द करता हूँ। जो ज़मीन बच गयी, उसे और बगीचे को बेचूँगा और इसी आश्रम में स्थायी रूप से शेष जीवन बिताऊँगा। सही दाम पर उन्हें बेचने का प्रबंध किया जाए तो मैं आऊँगा, भूमि को बेचूँगा और रक़म लेकर लौटूँगा। इस विषय में कोई समझौता करने के लिए मैं कदापि तैयार नहीं हूँ। परंतु हाँ, गुरुजी कहें तो शायद मेरे इस निर्णय में परिवर्तन हो सकता है।''
पत्र पढ़ते ही मंगल की पत्नी और बच्चे हाहाकार करने लगे और दौड़ते हुए भवानी के घर गये।
भवानी ने उन्हें समझाया-बुझाया और कहा, ‘‘मैं जैसा कहता हूँ, वैसा करना। तुम लोगों की समस्या का हल हो जायेगा।'' उन सबने मान लिया।
फिर वह, उन दोनों पत्रों को लेकर ग्रामाधिकारी के पास गया। इसके पहले ही वह मंगल के बारे में उसे बता चुका था। उन दोनों पत्रों को पढ़ने के बाद ग्रामाधिकारी ने, मंगल से विशद रूप से चर्चा की।
एक महीने के अंदर ही मंगल बेहताशा गाँव लौटा। वह सीधे ग्रमाधिकारी से जाकर मिला और कहने लगा, ‘‘महाशय, इतना घोर अन्याय! ऐसा मित्रद्रोह तो मैंने न सुना, न ही देखा। उसका विश्वास करके मैंने अपनी जायदाद, अपने परिवार को उसके हवाले किया और भवानी ने मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय किया! मेरी सारी जायदाद अपने नाम कर ली और मेरे परिवार के सदस्यों को घर से निकाल बाहर कर दिया! उन्हें दाने-दाने के लिए मुहताज बना डाला! तुरंत ग्राम सभा बुलवाइये, उसे बुलाइये और मेरे साथ न्याय कीजिये। उसे सज़ा दीजिये और मुझे व मेरे परिवार को बचा लीजिये।''

ग्रामाधिकारी ने मंगल की आँखों में आँखें डालते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे साथ ऐसा क्या अन्याय हो गया? मंगल पर तुम्हारा अभियोग क्या है?'' ‘‘पहले ही मैं मंगल के मित्रद्रोह के बारे में बता चुका हूँ। गुरु की खोज करने के लिए निकलने के पहले मैंने मंगल से कहा था कि वह मेरी जायदाद और मेरे परिवार की देखभाल करे। अब उस धोखेबाज़ ने मेरी जायदाद अपने नाम कर ली। क्या इससे बड़ा अन्याय हो सकता है?'' आवेश -भरे स्वर में मंगल ने कहा।
‘‘वो तो ठीक है। इसपर अवश्य ही कार्रवाई करूँगा। परंतु यह बताना कि तुम्हारे गुरु ने क्या उपदेश दिया था?'' ग्रामाधिकारी ने पूछा।
‘‘भव बंधनों को पूर्ण रूप से तोड़कर आओगे तो तुम्हें मोक्ष का मार्ग दिखाऊँगा।'' मंगल ने कहा।
‘‘तुम्हारे वे भव बंधन क्या-क्या हैं?'' ग्रामाधिकारी ने पूछा। ‘‘भव बंधन का मतलब है, पत्नी, संतान, बंधुगण, मित्र आदि को भुला देना, उन्हें त्यजकर चले आना।'' मंगल ने कहा।
‘‘तुमने अपने पत्रों में लिखा था कि तुममें वैराग्य घर कर गया है, भव बंधनों को तोड़ रहा हूँ आदि। तो फिर, ‘‘यह मेरा है, मुझे चाहिये,'' ये सब कहाँ से आ गये? इसलिए अपने गुरु के पास लौट जाना और भगवान की सेवा में मग्न हो जाना। इससे तुम्हें मोक्ष मिल जायेगा।'' ग्रामाधिकारी ने व्यंग्य-भरे स्वर में कहा।
‘‘मेरे गुरुजी ने बारंबार कहा था कि बिना काम पूरा हुए मत लौटना। जब तक मेरी जायदाद मुझे नहीं मिलेगी, तब तक यहाँ से नहीं हटूँगा।'' मंगल ने दृढ़ स्वर में कहा।

इसपर ग्रामाधिकारी ठठाकर हँस पड़ा और बोला, ‘‘भवानी के पास जो दस्तावेज़ हैं, वे साफ़-साफ़ बताते हैं कि यह जायदाद उसी की है। ठहरो, मैं उसे अभी यहाँ बुलाता हूँ।''
‘‘वे सब नक़ली दस्तावेज़ होंगे।'' क्रोध-भरे स्वर में मंगल ने कहा।
‘‘तुम तो कह रहे हो कि मुझे कुछ नहीं चाहिये। मुझे केवल मोक्ष चाहिये। तो क्यों झंझटों में फंसते हो?'' गंभीर स्वर में ग्रामाधिकारी ने कहा।
‘‘मैंने थोड़े ही कहा, मुझे नहीं चाहिये। मुझे चाहिये, इसीलिए तो आया हूँ।'' मंगल ने सकपकाते हुए कहा।
‘‘मंगल, क्या चाह लेकर आये हो? जायदाद और परिवार? या गुरु और उनका कहा मोक्ष? तुममें तो रत्ती भर भी वैराग्य नज़र नहीं आता।'' ग्रामाधिकारी ने कडुवे स्वर में कहा।
यह सुनते ही मंगल सोच में पड़ गया। ग्रामाधिकारी ने जो प्रश्न किया, उसमें निहित रहस्य उसकी समझ में आया। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘अब समझ गया हूँ कि मुझसे कितनी बड़ी ग़लती हो गयी। मुझे माफ़ कर दीजिये। मेरी आँखें खुल गयीं।'' कहते हुए वह ग्रामाधिकारी के पैरों पर गिर पड़ा।
ग्रामाधिकारी ने मंगल को प्यार से उठाते हुए कहा, ‘‘तुम अपनी ग़लती समझ गये, इसपर मैं बहुत खुश हूँ। तुममें यह परिवर्तन ले आने के लिए ही मैंने और भवानी ने यह नाटक खेला। न ही तुम्हारे परिवार को कोई कष्ट पहुँचा है, न हीतुम्हारी जायदाद को। खुद देख लो।'' कहते हुए ग्रामाधिकारी उसे कमरे के अंदर ले गया। वहाँ भवानी और मंगल का परिवार बड़ी ही बैचेनी-से उसका इंतज़ार कर रहे थे।
मंगल को गले लगाते हुए भवानी ने कहा, ‘‘तभी मैं तुमसे कहनेवाला था। लेकिन तुम सुनने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए चुप रह गया। गुरु तो वह होता है, जो तुम्हारी चाह पूरी करता है, तुमसे कुछ चाहनेवाला गुरु नहीं, भार होता है।''
मंगल ने शर्म के मारे सिर झुका लिया।

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