सूरज और चांद बचपन से ही दोस्त हैं। दोनों ने धर्मपुरी के ज्ञानानंद विद्यालय में शिक्षा पायी। सूरज अध्यापक बना तो चांद उसी शहर में स्थित ज़मींदार के दिवान में उच्च पद पर काम करने लगा।
ऐसे तो दोनों घने दोस्त हैं, परंतु एक विषय में उनकी विचारधारा बिलकुल ही भिन्न है। किसी भी विषय पर औरों से चर्चा करने के बाद ही सूरज किसी निर्णय पर आता है। वह तभी संतृप्त होता है, जब दूसरे लोग भी उसे मानते हैं, स्वीकार करते हैं।
परंतु चांद किसी भी विषय को लेकर स्वयं गहराई से सोचता है और उसके बाद ही वह किसी निर्णय पर आता है। चाहे वह निर्णय ग़लत भी हो, उसपर डटा रहता है। वह किसी और से विचार-विमर्श नहीं करता और न दूसरे की टिप्पणी की वह परवाह करता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि दूसरों को सुनाने से वह मामला और पेचीदा हो जायेगा और अनावश्यक ही शंका उत्पन्न होगी।
दोनों दोस्त हफ्ते में कम से कम एक बार मिलते हैं। हर शनिवार की शाम को वे श्रीकृष्ण का मंदिर जाया करते हैं। मंदिर की सीढ़ियों से उतरते हुए उस हफ्ते की विशेष बातों पर बातें किया करते हैं।
जब एक दिन वे दोनों भगवान के दर्शन करने के लिए सीढ़ियॉं चढ़ रहे थे, तब मंदिर से उतरते हुए एक आदमी ने उनसे कहा, ‘‘मंदिर के दरवाज़े बंद हैं। पुजारी नहीं हैं,’’ कहता हुआ वह आदमी उतर गया। ‘‘इतनी दूर तक हमारा आना बेकार हो गया,’’ सूरज ने कहा। ‘‘किसी की बात को लेकर इतना परेशान क्यों होते हो?’’ चांद ने कहा।
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