Thursday, June 30, 2011

शिवदास की कविता


गंगावर नामक गाँव में शिवदास नामक एक कवि रहा करता था। जो भी उसकी कविता सुनते थे, उसकी प्रशंसा किये बिना रह नहीं सकते थे। सरल भाषा में भाव चित्रों से भी भरी उसकी कविता हरेक को भाती थी।
उसकी कविता सुनकर ग्रामीण उससे कहा करते थे, "शिवदास, एक बार जाकर राजा से मिलो। तुम्हारी कविता सुनेंगे तो तुम्हारा कनकाभिषेक करायेंगे। तुम्हारी ग़रीबी हमेशा के लिए दूर हो जायेगी।"
शिवदास इसके जवाब में कहता था, "मेरी कविता जब उस स्तर की होगी, तब अवश्य ही राजा से मिलने जाऊँगा।"
शिवदास की कविता की प्रशंसा हर गाँव में होने लगी। यह समाचार कनकपुर के ज़मींदार भुवनशंकर को भी मालूम हुआ। भुवनशंकर खुद एक कवि थे। उन्होंने शिवदास को बुलवाया और कविता सुनाने के लिए कहा। उसकी कविता ज़मींदार को बहुत ही अच्छी लगी। ज़मींदार ने उसका सत्कार किया और मूल्यवान भेंटें दीं। उन्होंने उसे विदा करते हुए कहा, "कभी-कभी आकर अपनी मधुर कविता सुनाते रहियेगा, अन्यथा मुझे ही आपका गाँव आना पड़ेगा।"
"यह आपने क्या कह दिया मालिक। मैं खुद कभी-कभी चला आऊँगा और नयी कविता सुनाऊँगा।" शिवदास ने कहा।
ग्रामीणों को जब मालूम हुआ कि शिवदास गाँव लौट आया है, तो गाँव के कुछ प्रमुख लोग उससे मिलने खुद चले आये। उसका अभिनंदन करते हुए उन्होंने कहा, "शिवदास, हम कितने ही दिनों से कह रहे थे, पर तुमने हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारी प्रतिभा का जीता-जागता उदाहरण है, ज़मींदार से प्राप्त सत्कार। अब राजा से भी मिल आना।"

"इसके लिए कुछ और समय लगेगा।" उनकी बात को टालते हुए उसने कहा।
तीस दिनों के बाद ज़मींदार ने फिर से शिवदास को अपने यहाँ बुलवाया। परंतु ज़मींदार किसी ज़रूरी काम पर अचानक कहीं गये थे। वे अब कनकपुर से थोड़ी दूरी पर प्रवाहित होनेवाली गंगा नदी के तट पर स्थित क़िले में थे। ज़मींदार के नौकर उसे उस जगह पर ले गये।
शिवदास की सुनायी मधुर कविता को सुनकर ज़मींदार मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने शिवदास से कहा, "आपने कमाल की कविता सुनायी। इतनी मधुर कविता मैंने इसके पहले कभी नहीं सुनी। मेरी इच्छा है कि कुछ दिनों तक आप यहीं ठहर जाएँ और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें।" फिर उन्होंने उसके रहने के लिए आवश्यक प्रबंध किये।
शिवदास सूर्योदय के पहले ही जाग गया और नदी तट पर गया। वहाँ का वातावरण कितना ही सुहावना था ! गंगा नदी में जल भरा हुआ था। उसके गंभीर प्रवाह को देखता ही रह गया। उसे लगा, मानों वह ओंकार नाद हो। सूर्योदय के बाद उसकी किरणें जल पर चमक रही थीं। उसे लगा, मानों स्वर्ण प्रवाहित हो रहा हो। इस दृश्य का मनन करते हुए वह किले में पहुँचा और उस दृश्य के भाव चित्रों को तालपत्रों पर लिख डाला। उसे पढ़ते हुए उसे अलौकिक आनंद हुआ।
तब से लेकर वह हर दिन सुबह और शाम को नदी तट पर चला जाता था, गंगा को जी भरके देख लेता था। वहाँ के सुंदर वातावरण का वर्णन करते हुए कविताएँ लिखता था। उन कविताओं में गंगा माँ की करुणा का वर्णन करता था, जिसकी कृपा से करोड़ों प्राणी जीवित होते हैं।
एक सप्ताह के बाद ज़मींदार की अनुमति लेकर स्वग्रम पहुँचा।
शिवदास जब अपनी ही कविता गुनगुनाने लगा, तब उसे विश्वास होने लगा कि अब मेरी कविता राजा को सुनाने के योग्य है। उसमें राजा से मिलने की इच्छा प्रबल होती गयी। उसका निर्णय सुनकर ग्रामीण बहुत ही खुश हुए।
शिवदास को भेजने के लिए आये ग्रामीणों में से एक ने कहा, "इतने लंबे अर्से के बाद हमारी बात मानकर तुम राजा के दर्शन करने जा रहे हो।"

यह बहुत खुशी की बात है। गाँव के एक और प्रमुख ने कहा, "राज सम्मान पाने के बाद, आस्थान कवि बन जाने के बाद कहीं हमें और हमारे गाँव को भूल तो नहीं जाओगे?" तब एक और ग्रामीण ने टिप्पणी की, "हमारा शिवदास ऐसे आदमियों में से नहीं है। स्वभाव से यह बहुत ही अच्छा है।"
चौथे व्यक्ति ने टिप्पणी की, "भला अभी यह कैसे कह सकते हैं? पता नहीं, संपन्न हो जाने के बाद इसमें कितना परिवर्तन हो जायेगा।"
"अरे, तुम तो संपदा की ही बात कर रहे हो। आगे जाकर बड़े-बड़े लोगों से इसकी दोस्ती होगी, उनसे संबंध जुड़ेंगे। तब जाकर हम जैसे साधारण मनुष्यों को भूल भी जाए तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?" एक और प्रमुख ने कहा। इस विषय को लेकर वे तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने लगे और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
गाँववालों से शिवदास बिदा लेकर आगे बढ़ा, पर उसे लगा कि ये टिप्पणियाँ उसके लिए चेतावनी के समान हैं। इसी को लेकर वह सोच में पड़ गया। मन में तरह-तरह की शंकाएँ पैदा होने लगीं। उसके मन में खलबली मच गयी। वह राजधानी की ओर नहीं गया और गंगा तट पर पहुँच गया। नदी को देखते ही उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह गंगा माँ से कहने लगा, "माँ, मुझे क्षमा करना। तुम्हारी महानता की प्रशंसा करते हुए मैंने कविताएँ रचीं। पर, क्यों? उन्हें समर्पित करके राजाश्रय पाने के लिए? सुख में डूबकर अहंकारी कहलाने के लिए? ऐहिक सुखों में लिप्त होकर अपनों से दूर रहने के लिए? कविताएँ हम दोनों के बीच में माँ-बेटे के अनुबंध के सूचक मात्र हैं। इसके लिए किसी और की प्रशंसा पाने की आवश्यकता नहीं है, किसी का सम्मान पाने की ज़रूरत नहीं है। मैं इन्हें तुम्हें ही समर्पित कर रहा हूँ। मेरे अपराध को क्षमा कर देना।" कहते हुए आँखें बंद करके उन ताल पत्रों को एक-एक करके वह नदी में छोड़ता गया।
सभी तालपत्रों को गंगा माता को समर्पित करने के बाद उसने आँखें खोलीं तो शिवदास ने एक अद्भुत दृश्य देखा। जिन तालपत्रों को उसने नदी में छोड़े, वे सुवर्ण पत्रों में परिवर्तित हो गये। प्रवाह वेग में वे बह नहीं गये। शिवदास के पास के पानी के पास ही वे टिक गये। इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर उसे संदेह होने लगा कि यह सच है या सपना? उसने तुरंत एक तालपत्र को अपने हाथ में लिया। उसकी कविता बड़े ही सुंदर ढंग से उसमें लिखी हुई थी।

उसी समय एक मृदु स्वर सुनायी पड़ा, "कोई भी कला तभी सार्थक मानी जायेगी, जब वह जन हित में हो। अमृत तुल्य तुम्हारी कविता भी इसी श्रेणी में आती है। अनावश्यक संशयों को त्यजो और संयम का पालन करो। सब शुभ ही शुभ होगा।"
शिवदास ने सब तालपत्रों को जमा किया और भक्ति और श्रद्धापूर्वक उन्हें आँखों से स्पर्श किया। उसने देखा कि ज़मींदार का परिवार उसी की ओर बढ़ता चला आ रहा है। शिवदास के पास पहुँचने के बाद ज़मींदार ने कहा, "मुझे अभी-अभी मालूम हुआ कि आप यहाँ पधारे तो आपसे मिलने यहाँ चला आया। यह भी मालूम हुआ कि गंगा माँ ने आपकी कविताओं को आशीर्वाद दिया। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। चलिये, चलते हैं।"
"क्षमा कीजिये। मैं कहीं नहीं जाऊँगा। मुझपर कृपा करके मेरे लिए यहाँ एक कुटीर बनवा दीजिये।" शिवदास ने कहा।
ज़मींदार ने उसकी इच्छा पूरी की। राजधानी लौटने के बाद उसने राजा से इस अद्भुत दृश्य के बारे में सविस्तार कहा। साहित्य प्रिय राजा स्वयं शिवदास से मिलने चले आये। उसकी कविताओं को सुनकर वे तन्मय हो गये। साथ ही, आस्थान कवि बनने के लिए उन्हें आमंत्रित किया।
पर शिवदास ने विनयपूर्वक इनकार करते हुए कहा, "मेरी एक विनती है। गंगा तट पर एक मंदिर का निर्माण करवाइये। उस ज्ञान गंगा की सेवा करते हुए यहीं रह जाऊँगा। मैं सदा के लिए आपका कृतज्ञ बना रहूँगा।"
वहाँ बहुत ही शीघ्र एक मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें स्वर्ण तालपत्र सुरक्षित रखे गये। शिवदास बिना आडंबर के वहीं रहने लगा और उसने अनेक कविताएँ रचकर प्रजा को समर्पित किया।





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