Thursday, June 30, 2011

मनुष्य का शाप

प्रताप शहर गया हुआ था । उसके आते ही जया ने अपने बेटे प्रताप से कहा, ‘‘लगता है कि केले का घौद जल्दी ही बिक गया।''
प्रताप मेहनती था। घर के पिछवाडे में उसने केले के पौधे रोपे। जब केले पक जाते थे, वह उन्हें शहर ले जाता था और बेचता था। इससे उसे कम से कम सौ रुपये मिल जाते थे।
प्रताप की पत्नी विमला अपने पति के लिए पीने का पानी ले आयी और धीमे स्वर में कहा, ‘‘कल बच्चों के स्कूल का शुल्क भरना है।'' ‘‘हाँ हाँ, जानता हूँ। महीनों तक मेहनत करने के बाद आज यह रक़म मिली है। छी, यह भी कोई ज़िन्दगी है। यह सब मेरी बदनसीबी नहीं तो और क्या है।'' कहते हुए, प्रताप ने वह रक़म विमला के हाथ में रख दी।
माँ जया ने पूछा, ‘‘बेटे, यह भी कोई बात हुई? इतना चिढ़ते क्यों हो?'' ‘‘तो क्या पिताजी के किये काम पर खुश होंगे?'' प्रताप ने नाराज़ होते हुए कहा।
उसकी बातों पर जया ने चकित होते हुए कहा, ‘‘दस साल पहले तुम्हारे पिता की मौत हुई और आज क्यों उनपर अपना गुस्सा उतार रहे हो?''
‘‘माँ, जो भी हुआ है, तुम अच्छी तरह से जानती हो। पिताजी के दोस्त नरसिंह ने पंद्रह साल पहले यहाँ का अपना खेत बेच दिया और शहर चला गया। उसने पिताजी को भी अपने साथ आने की सलाह दी, पर पिताजी अपने जन्म-स्थल छोड़कर कहीं जाने के लिए तैयार नहीं थे। नरसिंह ने शहर जाकर व्यापार किया और खूब कमाया। अब चार एकड़ ज़मीन ही हमारे पास रह गयी। उसकी आमदनी से हम पांच लोगों को जीना है। पिताजी भी व्यापार करते तो हमें ये दिन देखने नहीं पड़ते।''

इसपर जया ने लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘यह हमारे बस की बात नहीं है बेटे। भगवान जितना देता है, उसी में हमें खुश रहना चाहिये।''
‘‘वेदांत की ये बातें छोडो माँ। नरसिंह का बेटा गोविंद मेरी ही उम्र का है। जानती है, वह कितना सुखी है! शहर और हमारे गांव के बीच के जंगल में ऋषीश्वर के दर्शन करने वह बग्घी में जा रहा था। मुझे देखते ही बड़े ही प्यार से उसने बग्घी में बिठा लिया। उसका वैभव देखते हुए मेरा दिल जला जा रहा है,'' प्रताप ने अपनी असहायावस्था पर क्रोधित होते हुए कहा।
बेटे के क्रोध को देखते हुए जया चुप रह गयी। उस रात को विमला ने पलंग पर लेटे अपने पति से कहा, ‘‘आप भी क्यों न उस ऋषीश्र्वर के दर्शन कर लेते। हो सकता है, उनकी कृपा से हमारी ज़िन्दगी भी बदल जाये।'' प्रताप को पत्नी की सलाह अच्छी लगी। दूसरे ही दिन सबेरे वह ऋषीश्र्वर के दर्शन करने गया।
प्रताप को देखते ही ऋषीश्वर ने कहा, ‘‘पुत्र, बहुत ही दुखी दिख रहे हो। बात क्या है?''
प्रताप ने अपनी हालत बतायी और कहा, ‘‘आपका भक्त गोविंद कभी हमारे ही गाँव का था। उसके पिता ने उसे लाखों रुपये और भारी संपत्ति दी। मेरे पिता ने मुझे जो भी दिया, वह नहीं के बराबर है। मैं ऐसी ज़िन्दगी से ऊब गया हूँ।''
ऋषीश्र्वर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘जीवन में उतार-चढ़ाव होते ही रहते हैं। परंतु तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारे लिए जो संपत्ति दी, उसे तुम पहचान नहीं पा रहे हो। वह संपत्ति है, स्वास्थ्य। तुम मेहनत करते हो, पेट भर खाते हो। घर में सब तुम्हें चाहते हैं। इससे बढ़कर भाग्य क्या हो सकता है! फिर भी तुममें जो असंतोष पैदा हुआ है, वह अपने दोस्त को देखने के बाद ही पैदा हुआ। इसके पहले तो तुम्हें कोई शिकायत नहीं थी। तुम प्रसन्न और सुखी थे। गोविंद के बारे में तुम्हें सच्चाई मालूम पड़ जाए तो ईर्ष्या के कारण तुममें जो असंतोष फैला है, वह दूर हो जायेगा।''
‘‘गोविंद तो सुख ही सुख भोग रहा है। उसे किस बात की कमी है?'' प्रताप ने पूछा।


‘‘तो सुनो। संपत्ति, वैभव व ऐश्र्वर्य से प्राप्त होनेवाले सभी रोगों ने इस उम्र में ही उसे घेर लिया। करोड़ों की संपत्ति है, पर क्या लाभ? वह मीठा खा नहीं सकता, क्योंकि वह मधुमेह से पीडित है। खाद्य पदार्थों में नमक नहीं होना चाहिये, क्योंकि वह रक्तचाप का शिकार है। थकावट के कारण वह चार क़दम भी पैदल नहीं जा सकता। इनके साथ-साथ व्यापार में व्यस्त होने के कारण नींद नहीं आती। दवाओं और मन की शांति के लिए अ़क्सर यहाँ आया करता है।'' ऋषीश्वर ने कहा।
यह जानकर प्रताप आश्चर्य में डूब गया।
ऋषीश्वर फिर कहने लगे, ‘‘चाहते हो तो क्षणों में तुम्हें करोडपति बना सकता हूँ। वर्तमान प्रशांत जीवन चाहते हो या मन की शांति खोकर तडपनेवाले करोडपति का जीवन, तुम्हीं निर्णय कर लो, '' यों कहते हुए उन्होंने प्रताप के सिर पर हाथ रखा। प्रताप की आँखें तुरंत बंद हो गयीं।
प्रताप भव्य भवन के एक कक्ष में एक पलंग पर लेटा हुआ है। भवन भर में सेवक ही सेवक हैं। सामने फल हैं और हैं स्वादिष्ट पकवान। परंतु आयास के बावजूद वह उठ नहीं पा रहा है। सेवकों को बुलाने की भी ताक़त उसमें नहीं है। बड़ी कोशिश के बाद वह उठ पाता है और एक क़दम आगे बढ़ाते ही गिर जाता है। वह पत्नी और माँ को बुलाता है तो वे सेवकों को बुलाने लगती हैं।
‘‘नहीं, नहीं, मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिये,'' कहकर चिल्लाते हुए वह आँख खोलता है। देखता है कि सामने ऋषीश्वर मुस्कुराते हुए बैठे हैं। प्रताप कहने लगा, ‘‘आपने मेरी आँखें खोल दीं। मुझे करोडपति की यातनाएँ नहीं चाहिये। मुझे चाहिये, मेरी वही पत्नी, जो दुख -सुख को मेरे साथ बांटती है; वही माँ, जो मुझे जान से भी ज्यादा चाहती है, वही दोनों बच्चे, जिन्हें देखते ही मेरे मन को शांति मिलती है।''
‘‘बहुत प्रसन्न हूँ, पुत्र। संतृप्ति, स्वास्थ्य, आनंद-ये मनुष्य के लिए नितांत मुख्य हैं। उनके होने पर करोड़ों रुपये भी व्यर्थ हैं। एक और बात! मनुष्य के लिए ईर्ष्या शाप समान है। अपने मित्र गोविंद को देखने के बाद ही वह तुममें जाग उठी। अब वह हट गया है। अब से तुम्हारे घर में आनंद ही आनंद फैला रहेगा।'' कहकर उन्होंने आशीर्वाद दिया।
प्रताप ने सविनय ऋषीश्वर के पैरों को प्रणाम किया और संतुष्ट होकर पर लौटा।

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