Thursday, June 30, 2011

मोह का हठीला बन्धन

‘क्या तुमने कहा कि इस गॉंव का नाम वदनपुर है? इससे सुमेर का नाम याद आ गया; पता नहीं क्या हुआ उसका?’’ गुरु पद्मानन्द ने अपने आश्रम लौटते समय, जो अभी भी 20 कि.मी.दूर था, अपने शिष्यों से पूछा। वे अपने दो शिष्यों के साथ तीर्थयात्रा से लौट रहे थे।


सुमेर योग सीखने के लिए आश्रम में रहता था। वह एक भला युवक था जिसमें जिज्ञासु के सभी अच्छे गुण थे। लेकिन एक दिन उसे यह समाचार मिला कि उसके पिता गंभीर रूप से बीमार हैं। वह गुरु को यह वचन देकर कि वह एक महीने में लौट आयेगा, अपने पिता को देखने चला गया।
लेकिन यह दस वर्ष पहले की बात है। गुरु को उस गॉंव से गुजरते समय उसके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई।


उनके शिष्यों ने एक राहगीर को रोक कर पूछा, ‘‘इस गॉंव का निवासी सुमेर नाम का एक युवक आश्रम में रहता था। क्या उसके बारे में आप को कुछ जानकारी है?’’
‘‘आप सुमेर सेठ के बारे में तो नहीं पूछ रहे हैं? वह गुरु पद्मानन्द का शिष्य था। वह अपने रुग्ण पिता को देखने आया था। मृत्यु के पूर्व उसके पिता ने उसका विवाह कर दिया और महाजनी का अपना व्यापार उसे सुपुर्द कर दिया। वह अपने गुरु के आशीर्वाद से बहुत समृद्ध हो गया है। वह रही उसकी कोठी-गॉंव का सबसे विशाल भवन।’’ ग्रमीण ने एक शानदार हवेली की ओर इशारा करते हुए कहा।



गुरु और शिष्य उस भवन के उद्यान में प्रवेश कर गये। सुमेर ने अपने घर की छत से उन्हें देख लिया। वह दौड़ कर नीचे आया और गुरु के चरणों पर गिर पड़ा। ‘‘स्नध्या हो चुकी है। कृपया मेरा आतिथ्य स्वीकार करें। यदि कुछ दिन मेरे घर में बिताना चाहें तो बड़ी कृपा होगी। अन्यथा कल चले जाइयेगा।’’


गुरु ने वहॉं रात्रि में विश्राम करना स्वीकार कर लिया। सुमेर ने उन्हें स्वादिष्ट भोजन कराया। जब वह गुरु के साथ अकेला था, वह रो पड़ा, ‘‘गुरुजी, मैं एक कठिन बन्धन में जकड़ गया हूँ। लेकिन जैसे ही मेरे दोनों बच्चे बड़े हो जायेंगे, मैं उन्हें सब कुछ सौंप कर शेष जीवन आप की सेवा में आश्रम में बिताऊँगा।’’


‘‘यदि मैं नहीं भी रहूँ तो मैं अपने उत्तराधिकारी को, जो तुम्हारा कोई गुरु भाई ही होगा, बता जाऊँगा कि वह तुम्हारा ध्यान रखे। क्योंकि तुम योग में दीक्षित हो चुके हो, इसलिए तुम्हारे लिए अध्यात्ममार्ग को एकदम छोड़ देना अच्छा न होगा।’’ गुरु ने कहा।


दूसरे दिन प्रातः सुमेर को उदास छोड़ कर गुरु आश्रम में लौट गये।


दस वर्ष और गुजर गये। एक बार फिर गुरु वदनपुर से गुजरते समय अपने शिष्य के घर गये। फिर एक बार सुमेर अपने गुरु के चरणों में गिर कर रोने लगा और कहने लगा, ‘‘मेरा पोता मुझे छोड़ता ही नहीं है। जैसे ही वह स्कूल जाने लगेगा मैं गृहस्थ जीवन का त्याग कर दूँगा।’’ उसने गुरु को वचन देते हुए कहा।


‘‘बहुत अच्छा।’’ गुरु ने कहा।


अगले वर्ष गुरु ने देह त्याग दिया। लेकिन अपने उत्तराधिकारी को हिदायत दे दी कि वह सुमेर का ध्यान रखे और उसे एकदम सदा के लिए गया समझ कर भूल न जाये। ‘‘उसमें सम्भावनाएँ हैं। लेकिन वह मोह माया के दल-दल में फँस गया है। उसे बचाया जाना चाहिये।’’


और भी अनेक वर्ष बीत गये। एक दिन नये गुरु गंगानन्द को सुमेर के बारे में जानने की उत्कंठा हुई। उन्हें याद आया कि गुरु ने उसे कहा था कि उसे भूला समझ कर त्याग मत देना! वह तुरन्त वदनपुर चले गये और यह जान कर उन्हें दुख हुआ कि सुमेर का देहान्त हो चुका है। लेकिन फिर भी उसके बच्चों ने उनका बड़ सम्मान के साथ स्वागत किया और अपने घर में एक रात विश्राम करने का अनुरोध किया।


घर में घुसने के बाद से ही उसके घर का कुत्ता गुरु गंगानन्द का पॉंव चाटने लगा और निरन्तर पूँछ हिलाने लगा। रात में उसे जबर्दस्ती गुरु के कमरे से बाहर निकाला गया। गंगानन्द को कुतूहल हुआ। उन्होंने ध्यान में बैठकर कुत्ते की आत्मा से सम्पर्क स्थापित की और यह जान वे चकित रह गये कि सुमेर की आत्मा कुत्ते में प्रवेश कर घर की रखवाली कर रही है जिससे उसके बेटे-पोते सुरक्षित रह सकें।


गुरु गंगानन्द ने कुत्ते की आत्मा को बताया कि वह पशु-जीवन से मुक्ति के लिए निरन्तर प्रार्थना करता रहे। दूसरे दिन प्रातः गुरु गंगानन्द आश्रम लौट गये।
पॉंच वर्ष बाद गंगानन्द, सुमेर के घर पुनः गये। कुत्ते की मृत्यु हो चुकी थी। लेकिन सुमेर की आत्मा का क्या हुआ? मोह-माया के गहरे अज्ञान में डूब जाने के बाद उसकी आत्मा को क्या मुक्ति मिल पाई होगी? रात्रि में ध्यान में उन्होंने देखा कि उसकी आत्मा एक नाग में प्रवेश कर गई है जो लकड़ी के एक विशाल बक्से में छिपा हुआ है । उस बक्स में परिवार का सारा खजाना रखा हुआ था जिसकी उसकी आत्मा रक्षा कर रही थी।


गंगानन्द ने इस बार कठोर कदम उठाने का निश्चय किया। सुबह होते ही उसने परिवार को सूचित कर दिया कि उनके घर के अन्दर एक विशाल पेटी में एक नाग छिपा हुआ है। परिवार ने भयभीत होकर संपेरे को बुलाया और पेटी खोल कर उसमें अगरबत्ती जलाई। धुएं से नाग जब अचेत हो गया तब संपेरे ने उसे बाहर निकाल लिया। नौकर उसे मारने जा रहा था, लेकिन गंगानन्द ने उसे मारने से मना कर दिया और एक पात्र में रख कर उसे वे आश्रम में ले गये। वहॉं उन्होंने मरते हुए नाग के चारों ओर कुछ अनुष्ठान किया, जिससे सुमेर की आत्मा, जो नाग में निवास कर रही थी, शान्तिपूर्वक उसे छोड़ सके।
‘‘जब हम साथ-साथ पढ़ते थे, तब सुमेर कितना ज्ञानवान था। कितना घोर पतन!


आह ! मोहमाया का बल कितना हठीला हो सकता है !’’ गंगानन्द ने आह भरते हुए मन ही मन कहा।


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