
एक गाँव में गंगाराम और दुर्गादास नामक गल्ले के दो व्यापारी थे। वे दोनों व्यापार में साझेदार थे। कई सालों से बिना मतभेद के उन्हें व्यापार करते देख जब भी उस गाँव में भाइयों के बीच कोई झगड़ा होता तो गाँव के बुजुर्ग लोग उनकी मैत्री का उदाहरण लेकर कहा करते थे, ‘‘अरे, तुम लोग गंगाराम और दुर्गादास को देख सबक़ क्यों नहीं सीखते?''
वे दोनों मित्र हर साल संक्रांति के दिन अपने लाभ बांट लेते थे। उस व़क्त गंगादास अपने हिस्से के लाभ में से तीन सौ पैंसठ रुपये अलग निकाल कर एक पोटली बांध लेता था। मगर दुर्गादास ने कभी उससे यह नहीं पूछा, ‘‘भाई, तुम ये रुपये इस तरह पोटली बांधकर क्यों रखते हो? इसका माने क्या है? मुझसे क्यों नहीं बताते?'' इस पर गंगाराम को भी खुद आश्चर्य होता था कि दुर्गादास क्यों कर नहीं पूछता।
हर साल उस गाँव की सीमा पर हाट-मेला लगता था। उस व़क्त हाट के साथ जूआ और दारू पीना भी ख़ूब चलता था। हाट के प्रदेश से थोड़ी दूर पर एक टीला था। उस टीले पर एक कुआँ था, जिसके चारों तरफ़ ऊँचे व लंबे पेड़ थे। वह स्थान मुसाफ़िरों के आराम करने व खाने के लिए ज़्यादा अनुकूल था। तीन सौ पैंसठ रुपये की पोटली हर साल सब की आँख बचाकर गंगाराम उस कुएँ के पास छोड़कर चला जाता था। लेकिन वह यह नहीं जानता था कि वे रुपये कौन उठाकर ले जाता है।
मगर एक साल गंगाराम ने सोचा कि पता लगा लें कि यह गुप्त दान किसके हाथ लगता है। गंगाराम कुएँ के पास से निकल गया, फिर लौट कर उसी जगह आ पहुँचा। उसने देखा कि कोई अपने सर पर तौलिया डाले पेड़ों की ओट में से चला जा रहा है। गंगाराम ने रुपयों की पोटली कुएँ के पास जो रखी थी, वह गायब थी।
गंगाराम यह सोचकर उस नक़ाबधारी का पीछा करने लगा। उसे आख़िर पता चला कि वह व्यक्ति और कोई नहीं, बल्कि दुर्गादास ही है।



‘‘दोस्त! मैंने सोचा था कि मेरे रुपये किसी गरीब के हाथ लगे और उसका लाभ उठाये, पर वे रुपये तुम्हारे हाथ लग गये?'' गंगाराम ने पूछा।
दुर्गादास ने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘‘मित्र, जब तुमने ये रुपये फेंक दिये, तब ये रुपये चाहे किसीके भी हाथ लगें, इससे तुम्हारा क्या मतलब है?''
‘‘अगर तुम को मालूम हो जाये कि मैं क्यों ये रुपये स्वयं फेंक रहा हूँ, यह बात शायद न कहते।'' इन शब्दों के साथ गंगाराम ने अपनी कहानी सुनाईः
‘‘बचपन में ही मेरे माँ-बाप मर गये। मैं गरीब था, अपना पेट भरने के लिए मुझे छोटी उम्र में ही तरह-तरह के काम करने पड़े। एक बार अकाल पड़ने के कारण मेरे गाँव के लोग चारों तरफ़ भाग गये। मैं उस व़क्त इस गाँव में आया। यहाँ पर एक बड़ी हाट लगी थी और मेला भी लगा था। सुना था कि वह संक्रांति का दिन है। मैं चार दिनों से भूखा था। याचना से काम न चला। एक मिठाई की दूकान में लड्डू चुरा कर पकड़ा गया और मार खाया। भूख की पीड़ा और असहायता की वज़ह से मर जाने की मेरी इच्छा हुई। मैं इसी कुएँ में कूदने आया। कुएँ में कूदने ही जा रहा था कि मेरे पैर में कोई चीज़ लग गई। वह लाल पत्थर जड़ी सोने की अंगूठी थी। बस! मेरे मन में ज़िंदगी के प्रति फिर आशा लगी। उस अंगूठी को बेच कर मैंने एक दुधारू भैंस ख़रीद ली। उस से जो आमदनी हुई, मैंने एक बैलगाड़ी ख़रीदी। इसके बाद तुमसे मेरी दोस्ती हुई। गल्ले के व्यापार में दोनों को लाभ हुआ। इसीलिए जिस दिन मुझे कुएँ के पास सोने की अंगूठी मिली, उसी संक्रांति के दिन से कुएँ के पास तीन सौ पैंसठ रुपये गुप्त रूप से छोड़ता आ रहा हूँ।''
ये सारी बातें सुन दुर्गादास ने कहा, ‘‘हो सकता है कि तुम्हारा विचार बड़ा ही अच्छा हो। मगर तुम्हारे रुपये जिसके हाथ लगते हैं, उसकी बुद्धि के कुमार्ग पर जाने की गुंजाइश भी है। चाहे तो हम प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं।'' तब गंगाराम को साथ ले कुएँ के पास लौट आया और दोनों एक पेड़ पर जा बैठे।
दुर्गादास ने एक छोटी थैली निकाल कर कुएँ के निकट फेंकी। थोड़ी देर बाद उधर से गेरुए वस्त्र धारण किये हुए सफ़ेद दा़ढ़ीवाला एक साधु आ निकला। उसने खाने की पोटली कुएँ के जगत पर रख दी, हाथ-मुँह धोने के लिए पानी खींचने के ख़्याल से बाल्टी उठाई, तभी उसकी दृष्टि दुर्गादास के द्वारा फेंकी गई थैली पर पड़ी।
दूसरे ही क्षण साधु के भीतर एक विचित्र परिवर्तन हुआ। अपने कीर्तन बंद कर उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ा कर देखा कि कहीं कोई उसे देख तो नहीं रहा है। तब उस थैली को अपने झोले में डाल लिया, वह स्वगत में कहने लगा, ‘‘इतने समय बाद इस कमबख़्त ज़िंदगी से मुक्ति मिल गई है। अब शादी करके सुख भोगूँगा।'' यों कहते खाने की बात तक भूलकर वह साधु वहाँ से चला गया।
गंगाराम के मुँह से निकल पड़ा, ‘‘समस्त को त्यागनेवाले साधु इस उम्र में शादी करना चाहते हैं?''
दुर्गादास ने गंगाराम को मौन रहने का संकेत कियाऔर चांदी का एकरुपया निकाल कर कुएँ के जगत पर फेंक दिया।
थोड़ी देर बाद दो जुआरी परस्पर निंदा करते हुए कुएँ के पास पहुँचे।
‘‘अबे, दुधारू भैंस को ख़रीदने के लिए मैं जो रुपये लाया, तुम्हारी बातों में आकर वे रुपये जूए में खो बैठा। हाथ में एक कौड़ी तक न बची। मैं कौन-सा मुँह लेकर अपने घर जा सकता हूँ? इससे अच्छा यह होगा कि मैं इस कुएँ में कूद कर अपनी जान दे दूँ।'' यों कहते एक आदमी कुएँ की ओर भागा। दूसरा आदमी उसे रोकने के प्रयत्न में था, तभी पहले आदमी को एक रुपये का सिक्का दिखाई दिया। झट उसे अपने हाथ में लेकर बोला, ‘‘अच्छे मौक़े पर यह रुपया हाथ लगा। शायद इस रुपये से मेरे खोये हुए सारे रुपये मिल जायें। क्या पता?'' ये शब्द कहते वह जुआखाने की ओर दौड़ पड़ा।

‘‘इसमें मेरा भी आधा हिस्सा है।'' दूसरा आदमी चिल्लाते हुए उसके पीछे हो लिया। गंगाराम ने दुर्गादास से कहा, ‘‘दोस्त, यह क्या है? यह जूए में सारे रुपये खोकर रो रहा था, पर एक रुपया के हाथ लगते ही फिर जूआ खेलने भाग गया।''
दुर्गादास मौन रहा।
इसके थोड़ी देर बाद एक लकड़हारा लकड़ी का गट्ठर पीठ पर लादे कुएँ की ओर आया। दुर्गादास ने रुपयों की छोटी-सी थैली निकाल कर लकड़हारे तथा कुएँ के बीच फेंक दी।
लकड़हारा यह कहते आगे बढ़ा, ‘‘मैं ये लकड़ियाँ कब बेचूँगा और कब घर पहुँच कर कांजी बनाऊँगा।'' उसने बाल्टी से पानी खींचा; भर पेट पानी पीकर हाट की ओर चला गया।
‘‘अरे, यह क्या? रास्ते में रुपयों की थैली पड़ी देख उस ओर ध्यान दिये बिना यह आदमी चला गया।'' गंगाराम ने अचरज से कहा।
‘‘देखा! तुम्हारा गुप्त दान अपात्र व्यक्तियों के हाथों में पड़कर कैसी हानि पहुँचा रहा है। बिना श्रम किये अनायास प्राप्त होनेवाले धन का मूल्य जाननेवाले लोग बहुत ही कम हैं। अधेड़ उम्र के साधु का मन भी धन को देखते ही बदल गया। उसने यह भी नहीं देखा कि उस पोटली में टीकरे भरे हैं, पर सुखों के प्रति अपने मन को केन्द्रित किया। इस प्रकार रुपये को देखते ही जुआरी के मन में जो ज्ञानोदय हुआ, वह जाता रहा। वास्तव में श्रम के द्वारा जो सुधर जाता है, वह अनायास मिलनेवाले धन की परवाह नहीं करता। लकड़हारा अपने श्रम के फल पर ही आशा लगाये बैठा है।'' दुर्गादास ने समझाया।
‘‘तब क्या मेरा आज तक का गुप्तदान मिट्टी में मिल गया?'' गंगाराम ने पूछा।
‘‘नहीं, वह धन मैंने सुरक्षित रखा है। उस धन से हम हमदोनों के नाम पर एक पाठशाला का भवन बनायेंगे।'' दुर्गादास ने समझाया।

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