
सन् 1930 के प्रारम्भिक वर्षों में दादी ने हम सब को एक कहानी सुनाई थी जो मेरी स्मृति में हमेशा ताजा बनी रही। वे एक शिक्षाविद् थीं और लेखिका भी। उस समय वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक उपन्यास का अनुवाद कर रही थीं।
एक दिन हम बच्चों ने उनसे उपन्यास की कहानी सुनाने के लिए कहा। उपन्यास का नाम था- द होम ऐण्ड द वर्ल्ड। उन्होंने कहा कि बड़े होने पर ही हमलोग उस कहानी को समझ पायेंगे। हमलोगों के बार-बार अनुरोध करने पर उन्होंने कहा कि वे हमलोगों को टैगोर की कोई और कहानी सुनायेंगी और फिर वे हमें सुभा की कहानी यों सुनाने लगीं।
बानीकान्त और उनकी पत्नी के तीन बेटियाँ थीं। सबसे बड़ी थी सुकेशिनी, सुन्दर बालोंवाली। दूसरी थी सुहासिनी, सुन्दर मुस्कानवाली। माता-पिता की कामना थी एक बेटा हो जाता पर तीसरा शिशु भी कन्या थी। जब उसका नाम सुभाषिनी रखा गया तब माता-पिता नहीं जानते थे कि वह बोल नहीं पायेगी।
बानीकान्त एक सम्पन्न व्यक्ति थे। उनका घर चाँदीपुर में शान्त बहनेवाली एक नदी के किनारे था। सुभाषिनी की आँखें काली और बरौनियाँ लम्बी थीं जो सबको मोह लेती थीं। उसके माता-पिता और उसकी बहनें उस पर लट्टू थीं। एक साल तक जब सुभा ने, इसी नाम से उसे बुलाते थे, मा या पा की आवाज नहीं निकाली तब भी किसी को कुछ विचित्र नहीं लगा। दूसरा साल जब गुजरने लगा, तब सबको विश्वास हो गया कि वह अब कभी नहीं बोलेगी।
तब से बानीकान्त उसे बड़ी बेटियों की अपेक्षा अधिक प्यार करने लगे। उसकी माँ ने इसे अपने ऊपर एक कलंक समझा और अपने को अभिशापित मानने लगी।
बानीकान्त ने निश्चय किया कि परिवार के इस दुर्भाग्य के बारे में दुनिया जाने, इसके पहले ही वह बड़ी बेटियों का विवाह कर देगा। सुकेशिनी तथा सुहासिनी शीघ्र ही अपनी-अपनी ससुराल चली गई। अब सुभा के साथ खेलने के लिए घर में कोई नहीं था। आस-पड़ोस के बच्चों को उसके साथ खेलने में संकोच होता था, क्योंकि वे नहीं जानते थे कि उसके साथ बातचीत कैसे करें।
वह सीधे अपने पिता के कमरे में गई, जहाँ वे आराम-कुर्सी में विश्राम कर रहे थे। वह उनके पैरों में बैठ गई। शीघ्र ही उसके आँसुओं से उनके पैर गीले हो गये। जब उसने सिर उठाया तो देखा कि पिता की आँखों से अश्रु टपक रहे हैं। पिता ने प्यार से अपनी बाहों में सुभा को लेकर हथेली से उसके आँसू पोछे और सान्त्वना देने की कोशिश की।
कुछ वर्षों के पश्चात, स्कूल में, पाँचवीं कक्षा में हमलोगों के लिए अंग्रेजी की एक सहायक पाठ्य़ पुस्तक थी। उसमें एक शीर्षक ‘सुभा' पर मेरी नजर पड़ गई। बल्कि, वह शीर्षक ही मानों मुझे घूरने लगा। मैंने वह कहानी प़ढ़ी, जो टैगोर के लिए किसी के द्वारा अंग्रेजी में अनूदित की गई थी। जब मैं अन्तिम पंक्ति पढ़ रहा था, तब मैंने उस पन्ने पर आँसू की एक बून्द देखी। क्या यह मेरी आँखों से टपकी थी?

बानीकान्त के हाते में एक दालान, एक गोशाला, केले का कुंज तथा अनेक वृक्ष थे। सुभा अक्सर हाते में घूमती-फिरती रहती और नदी किनारे बैठी रहती। मल्लाहों के शोर, चिड़ियों की चीं चीं तथा नदी की कल-कल सुनकर प्रकृति से उसका लगाव बढ़ता गया।
ऐसा न था कि उसके दोस्त नहीं थे। सर्बशी और पेंगुली के साथ वह अपना कुछ समय बिता लेती। गोशाला की इन दोनों गायों से इसकी घनी दोस्ती हो गई थी। बानीकान्त अथवा अधिक प्रायः उसकी पत्नी से गायों को अपने नाम सुनने का अभ्यास हो गया था। परन्तु सुभा के मुँह से अपने नाम का सम्बोधन उन्होंने कभी नहीं सुना। फिर भी, उसके पद चापों से उसके आगमन का आभास उन्हें मिल जाता था। वे सुभा की बाट जोहती रहतीं कि कब वह आये और अपनी भुजाओं में उनकी गर्दन को समा ले।
वे तब प्यार से उसके गालों और कानों को चाटने लगतीं। लगता है, उन गायों ने उसकी आँखों में उसके विषाद को देख लिया था। जब वे रम्भातीं तो सुभा की आँखों में आँसू उमड़ने लगते।
उसकी सहेलियों में एक बकरी और एक बिल्ली भी थी। हाते में जहाँ-जहाँ सुभा जाती, बकरी उसके साथ-साथ रहती। और जब भी घर के कामों से सुभा थोड़ी फुर्सत में होती बिल्ली दौड़ कर उसकी गोद में लेट जाती और उसके कोमल हाथों की पुचकार की आशा करती। बिल्ली की घुरघुराहट सुनकर उसके आनन्द की सीमा न रहती।
समय के साथ उसकी मित्रता गोसाईं परिवार के सबसे छोटे बेटे के साथ हो गई। परिवार वालों की नजर में प्रताप बेकार लड़का था। वह न तो स्कूल जाता था, न घर का ही कोई काम करता था। हर समय वह पड़ोसियों का कुछ न कुछ काम करता रहता।
जब उसके पास कोई काम न होता, वह नदी तट पर चला जाता और मछली का शिकार करता। वह बंसी पर आँखें गड़ाया रखता और जैसे ही मछली काँटे को खींचती वह झट छड़ी को उठाकर मछली को पकड़ लेता। वहीं पर एक दिन दोपहर के बाद सुभा से उसकी मुलाकात हो गई थी। वह उसे ‘शु' कह कर बड़े प्यार से बुलाता और जब वह मछली के शिकार में व्यस्त न होता तब उसके साथ घण्टों एक तरफा बातचीत करता रहता। जब वह मछली के शिकार में व्यस्त रहता, तब भी सुभा जैसी एक मौन साथी के साथ रहने से उसके काम में बाधा नहीं पड़ती।
धीरे-धीरे सुभा बड़ी हो रही थी। जब परिवार के मित्र लोग पूछने लगे कि इसके विवाह के बारे में क्या कुछ नहीं कर रहे हैं, तब माता-पिता सुभा के विवाह को लेकर चिंतित हो उठे।
बानीकान्त तथा उनकी पत्नी आपस में विचार-विमर्श करने लगे। एक दिन बानीकान्त कहीं यात्रा पर चले गये। वे किसी ऐसे गरीब घर के लड़के की तलाश करना चाहते थे जिसने इनके परिवार के बारे में और परिवार में एक गूंगी लड़की के बारे में कुछ न सुना हो। वे कुछ ही दिनों में वापस आकर पत्नी को कहा, ‘‘तैयार हो जाओ। हमलोगों को कलकत्ता जाना है।''
सुभा को सन्देह हो रहा था कि क्यों माँ ढेर सारी मिठाइयाँ और पकवान बना रही है, सूटकेस में इतने सारे कपड़े पैक कर रही है और बिस्तर बाँध रही है। क्या ये कहीं बाहर जा रहे हैं? घर को, गायों को, बकरी, बिल्ली और हाते के पेड़ों को छोड़ कर? नदी किनारे की उसकी सैर का क्या होगा?
प्रताप ने ही उसके मन में उमड़ते इन सवालों का जवाब दिया। ‘‘शु, मैंने सुना है कि यहाँ से दूर कलकत्ता में इन्होंने तुम्हारे लिए दुलहा ढूँढ़ लिया है। जल्दी ही तुम्हारी शादी हो जायेगी। तब क्या तुम हमलोगों को भूल जाओगी?''
सुभा पत्थर पर से उठी, जिस पर वह बैठी हुई थी और उसके चेहरे को इस प्रकार देखा मानों कह रही हो, ‘‘क्या मेरी कोई गलती है? मेरा दोष क्या है?''

सुभा उठी, परन्तु माँ के पास नहीं गई। वह दौड़ कर गोशाले में गई। सर्बशी और पेंगुली ने मानो सब कुछ समझ लिया हो, क्योंकि उसके पदचाप में वह परिचित ध्वनि नहीं थी। जब इसने उन्हें आलिंगन में लिया तब उनकी आँखों में आँसू छलक आये। तब यह फूट-फूट कर रो पड़ी मानो उसके आँसुओं में शीघ्र ही गोशाला डूब जायेगी।
वह बाहर आकर बकरी को ढूँढ़ने लगी। वह कहाँ छिप गई है? बिल्ली भी कहीं दिखाई नहीं देती? नदी प्रवाहित हो रही थी, परन्तु लहरें नहीं उठ रही थीं, क्योंकि हवा के झोंके नहीं चल रहे थे। प्रताप अपनी बंसी के साथ मछली के शिकार के स्थान पर नहीं था। वह अकेली नदी किनारे तब तक बैठी रही जब तक उसके आँसू सूख नहीं गये।
अगले दिन बानीकान्त, पत्नी और सुभा कलकत्ता चले गये। वहॉं उन्होंने किराये पर एक मकान लिया था। दूसरे दिन सुभा की मॉं ने उसे अपनी गोद में बिठाया और उसे गहनों और चमेली के फूलों से दुलहिन की तरह सजाया। बाद में परिवार और मित्रों के साथ दुलहा आया। उन सब ने दुलहे के कान में कहा, ‘‘बुरी नहीं है।'' वह तब खुश होकर मुस्कुरा पड़ा। शीघ्र ही एक शुभ मुहूर्त्त में विवाह सम्पन्न हो गया।
हमलोगों ने सोचा कि दादी ने यहीं पर कहानी खत्म कर दी। वह कुछ देर चुप रही। फिर बोली,‘‘दुल्हे ने कभी शक नहीं किया कि एक गूंगी लड़की से उसका विवाह करके उसे धोखा दिया गया है। शीघ्र ही, उसने फिर शादी कर ली।''
दादी ने जब कहानी समाप्त की तथा हम यह पूछे बिना न रह सके कि ‘‘सुभा का क्या हुआ।'' दादी ने कहा, ‘‘वह अपने पति के घर में ही रहती रही।'' फिर हम चुप रह गये।

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