
नारायणदास की पत्नी का नाम चाहे कुछ भी रहा हो, पर सब लोग उसे नारायणी पुकारते थे, क्योंकि वह भी अपने पति के जैसे अव्वल दर्जे की कंजूस थी। उन दंपति के पड़ोस में कृष्णदास और कृष्णवेणी नामक दंपति रहा करते थे। वे नारायणदास दंपति की तरह नहीं बल्कि दोनों दयालु थे।
नारायणदास महाजनी किया करता था। उसकी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती थी, लेकिन एक पाई भी खर्च करने से वह घबरा जाता था। उसके पिछवाड़े में फलों के कई पेड़ थे। पर वह एक भी फल पड़ोसियों को देता न था। नारायणदास के घर में कभी एकाध बार रसोई बनती थी। अगर कोई उन्हें खाने पर बुलाता, तो झट से उनके घर पहुँच भर पेट खाकर लौट आते थे।
एक दिन नारायणदास अपने घर के पिछवाड़े में टहल रहा था, तब उसने देखा कि उसके पेड़ का एक फल पड़ोसी के अहाते में जा गिरा। इसे देखते ही नारायणदास दीवार फांदकर पड़ोसी के पिछवाड़े में पहुँच गया।
पड़ोसी के पिछवाड़े में रसोई घर के किवाड़ खुले हुए दिखाई दिये। वह यह सोचकर किवाड़ तक पहुँचा कि शायद पड़ोसी अभी तक सोये न हों, थोड़ी देर गपशप लड़ाकर वापस चले आयेंगे। पर रसोई घर में कोई न था, मगर रसोई की ख़ुशबू चारों ओर फैल रही थी। इस पर नारायणदास झट से भीतर घुस पड़ा। वह जल्दी-जल्दी रसोई की सारी सामग्री अपनी धोती में बांधकर फल के साथ दीवार फांदकर अपने पिछवाड़े में आ पहुँचा। नारायणदास की इस होशियारी की उसकी पत्नी ने तारीफ़ की। रात को दोनों ने मज़े से दावत उड़ाई।
दूसरे दिन नारायणदास दंपति ने सोचा कि पड़ोसी कृष्णदास हो-हल्ला मचायेगा, लेकिन ऐसी कोई बात न हुई।

‘‘उफ़! हमारे पड़ोसी एकदम लापरवाह हैं, सारी रसोई के गायब होने पर उन लोगों ने चूँ तक नहीं की।'' नारायणदास ने कहा।
‘‘ऐसे लोगों के घर से रोज खाना उठा लावें तो भी वे चिंता न करेंगे।'' नारायणी बोली।
बस, फिर क्या था। उस दिन रात को भी नारायणदास दीवार फांदकर पड़ोसी के पिछवाड़े में पहुँचा। मगर उस दिन रसोई घर के किवाड़ बंद थे। नारायणदास ने थोड़ा सा धक्का दिया। इस पर किवाड़ की चटकनी बिना आहट के खुल गई। उस दिन भी नारायणदास खाने-पीने का सारा सामान उठा ले आया।
तीसरे दिन नारायणदास दीवार फांदकर जब रसोई घर में पहुँचा, तब वह देखता क्या है, वहाँ पर रसोई की सामग्री के साथ दो पीढ़े लगाये गये हैं, और उनके सामने दो पत्तल बिछाये गये हैं।
नारायणदास ने सोचा कि उसकी करनी का पता कृष्णदास को लग गया है। फिर उसने यह निश्चय किया, चाहे जो हो उसका सामना किया जा सकता है। तब रसोई की सारी सामग्री पत्तलों में बांध कर अपने घर ले गया।
दूसरे दिन कृष्णदास के घर के सामने बड़ी भीड़ लगी। इसका कारण जानने के ख्याल से नारायणदास वहाँ पहुँचा।
कृष्णदास भीड़ को संबोधित कर कह रहा था, ‘‘हमारे घर रोज भगवान आकर खाना खाकर चले जा रहे हैं। पहले दिन रसोई बच गई तो भगवान ने खा लिया। मैंने सोचा शायद कुत्ते ने खा लिया होगा। दूसरे दिन भी हमारे घर रसोई ज्यादा बनी, उस दिन हमने रसोई घर के किवाड़ बंद किये, फिर भी रसोई गायब हो गई। यह काम कुत्ते का है या भगवान का, इस बात का पता लगाने के लिए हमने तीसरे दिन पत्तल भी लगाये। पर इस बार पत्तलों के साथ रसोई गायब हो गई। तब तो यह काम भगवान का ही होना चाहिए न?''


भीड़ ने कृष्णदास की बात का समर्थन किया। इस विचित्र दृश्य को देखने के लिए लोग कृष्णदास के पिछवाड़े में जमा होने लगे। एक हफ़्ता बीतने पर भी भगवान उस ओर झांके तक नहीं। इस पर कृष्णदास ने कहा, ‘‘कहीं भगवान इतने सारे लोगों के सामने क्या आ जायेंगे? उनको तो गुप्त रूप से देखना होगा !''
उस दिन से लोग गुप्त रूप से देखने लगे। बेचारे, नारायणदास को यह बात अड़चन मालूम होने लगी। कृष्णदास भोला-भाला था, इसलिए उसने सोचा कि भगवान आ करके उसकी रसोई खा रहे हैं ! यह बात तो सही है। लेकिन सभी लोग जब इसका पहरा दे रहे हैं, तब नारायणदास कृष्णदास के घर का खाना कैसे उड़ा सकता है?
इस प्रचार को बंद कराने के विचार से नारायणदास ने अपनी पत्नी को प्रोत्साहित कर कृष्णवेणी के पास भेजा। नारायणी ने कृष्णवेणी को समझाया, ‘‘भाभीजी, रोज भगवान आकर जब तुम्हारे घर खाना खाकर जा रहे हैं, तो इस बात को भाई साहब ने गाँव भर में फैलाया, इस पर भगवान ने आना ही बंद कर दिया। इधर भाई साहब भी लोगों की नज़रों में बावरे कहलाये।''
‘‘मेरे पति वैसे बावरे नहीं हैं; बस, वे तो बड़े ही दयालु हैं।'' कृष्णवेणी ने शांत स्वर में समझाया।
‘‘मतलब?'' नारायणी ने अचरज में आकर पूछा।
‘‘वे जानते हैं कि रसोई उड़ाने वाले व्यक्ति भगवान नहीं हैं, कोई मनुष्य ही है। लेकिन इस तरह गुप्त रूप में आकर वह खाना खा जाता है, तो हम अनुमान लगा सकते हैं कि वह खाने के लिए कैसे तरस रहा है। ऐसा व्यक्ति कोई जन्मजात दरिद्र या कंगाल होगा ! मेरे पति बताते हैं कि भूखे को खाना खिलाना भगवान को खिलाने के समान है। इसीलिए हमने पत्तल भी लगाकर उसके खाने का इंतजाम कर लिया ।'' कृष्णवेणी ने समझाया।

‘‘यह बात सही है कि तुम्हारे पति बड़े ही दयालु हैं, लेकिन तुम्हारे मन में यह विचार न आया कि रसोई में घुसकर खाना खानेवाला व्यक्ति जन्मजात दरिद्र न होकर संपन्न भी हो सकता है !'' नारायणी ने पूछा।
नारायणी का ख़्याल था कि उनकी यह करनी कृष्णवेणी पर प्रकट हो गई हो तो इस सवाल के द्वारा उसका पता लग सकता है।
‘‘अगर वह संपन्न परिवार का है तो इस तरह लुके-छिपे आकर खाना खा जाना शर्म की बात नहीं है? उसका यह काम प्रकट हो जाएगा तो वह लोगों के बीच कितना अपमानित हो जाएगा! इसीलिए मेरे पति सबके सामने उसका अपमान करना नहीं चाहते। मैंने बताया न कि वे बड़े दयालु हैं? इसीलिए वे भगवान का नाम ले रहे हैं!'' कृष्णवेणी ने कहा।
‘‘ऐसी हालत में यह सारा प्रचार ही क्यों? जो आदमी लुक-छिपकर खाना खा जाता था, इस प्रचार की वजह से उसने आना बंद किया। तुम्हारे घर के पिछवाड़े की निगरानी भगवान को देखने के ख़्याल से हमेशा कोई न कोई रखता होगा। इस डर से उसने खाने के लिए आना बन्द कर दिया होगा !'' नारायणी ने पूछा।
‘‘नारायणी, वास्तव में हम तो यही चाहते हैं। हम लोग स्वयं रसोई घर में छिपकर उस मनुष्य का पता लगा सकते हैं ! लेकिन अगर वह कहीं हमारा पड़ोसी या सामने के मकान वाला हो तो उसे डॉंटकर उसका अपमान तो नहीं कर सकते हैं न? इसलिए गुप्त रूप से आकर अपनी लाज-शर्म का ख़्याल किये बिना खाना खाने की आदत को बंद कराने के लिए हमने यह तरीका चुन लिया है। तुम्हारा क्या विचार है?'' कृष्णवेणी ने कहा।
नारायणी समझ गई कि कृष्णदास दंपति पर उनका रहस्य प्रकट हो गया है, पर उनकी इस बुरी आदत को छुड़ाने के लिए एक सही तरीका अपना लिया है।
इसके बाद नारायणी ने अपने घर लौटकर सारी बातें अपने पति को सुनाई, उस दिन से नारायणदास दंपति की कंजूसी धीरे-धीरे कम होती गई।

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