
एक जमाने में विदर्भ देश में महेन्द्र नामक एक नामी जादूगर था। उसने राजाओं- महाराजाओं को प्रसन्न कर अनेक उपाधियाँ प्राप्त कीं और अपार धनार्जन भी किया। लेकिन वह बड़ा दानी था, इसलिए उसकी कमाई का अधिकांश भाग उसके हाथों ही ख़र्च हो गया।
महेन्द्र का पुत्र जितेन्द्र जादूगरी विद्या में अपने पिता से अधिक प्रवीण था। मगर उसके जमाने में जादूगरी के प्रति आदर घट गया था। आमदनी कम हो जाने पर भी जितेन्द्र अपने पिता जैसे दान देकर निर्धन बन गया।
जितेन्द्र के दो पुत्र थे। उसने अपने दोनों पुत्रों को जादूगरी सिखाई। जितेन्द्र ने इस विचार से यह विद्या अपने पुत्रों को सिखाई कि एक तो वह उनका पेशा है और दूसरी बात यह है कि फिर से शायद जादूगरी की लोकप्रियता बढ़ जाये।
जितेन्द्र का बड़ा पुत्र रामभद्र हद से ज़्यादा धन ख़र्च करता था। बचपन में उसे अपने पिता से सदा बिना माँगे धन मिला करता था। मगर हालत के बदल जाने के कारण उसके माँगने पर पिता जब धन न देते तो वह घर में ही चोरी करने लग गया । यह बात मालूम होने पर जितेन्द्र ने गुस्से में आकर रामभद्र को पीटा। रामभद्र रूठकर घर से चला गया और फिर लौटकर कभी नहीं आया।
क्रोध में जितेन्द्र ने रामभद्र को पीटा थामगर वह उसको अपने प्राणों से ज़्यादा प्यार करता था। उसके भाग जाने पर उसके माता-पिता उसी की चिंता में बीमार पड़े और कुछ ही दिनों में मर गये। तब जितेन्द्र का दूसरा पुत्र लक्ष्मीचन्द अकेला रह गया।
लक्ष्मीचन्द दृढ़ चित्तवाला था। वह गाँवों में घूमते, गलियों में जादू दिखाते, थोड़ी-बहुत कमाई से संतुष्ट होकर दिन बिताने लगा।
एक दिन लक्ष्मीचन्द एक गली में अपने जादू का प्रदर्शन कर रहा था। उसे देखने कई बच्चे वहाँ पर जमा हुए। लक्ष्मीचन्द यह जानता था कि उन बच्चों के द्वारा उसे ज़्यादा पैसे मिलनेवाले नहीं हैं। फिर भी अपना जादू उन्हें दिखाकर सबको प्रसन्न चित्त बना रहा था।

इतने में बगल के घर से एक लड़के के दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ सुनाई दी। लक्ष्मीचन्द ने अपने जादू का प्रदर्शन रोक दिया और उस घर में पहुँच कर देखा कि एक गृहिणी अपने चार साल के लड़के को बुरी तरह से पीट रही है।
लक्ष्मीचन्द के कारण पूछने पर उस गृहिणी ने बताया कि उस लड़के का पिता हाल में बीमार पड़ गया था। उस गृहिणी ने भगवान से मनौती की थी कि यदि उसके पति की बीमारी दूर हो जाएगी तो घर भर के लोग एक सप्ताह दुपहर तक उपवास करके भगवान के दर्शन कर तब भोजन करेंगे। भगवान की कृपा से बीमारी ठीक हो गई। जैसे-तैसे छे दिन बीत गये। आज लड़के को दुपहर तक खाना खिलाये बिना रोकना मुश्किल हो गया। वह लड़का भूख के मारे रो रहा है। उस गृहिणी को भगवान के दर्शन करने के लिए जाना था। समझाने-बुझाने पर भी वह मानता न था, इसलिए उसे पीट रही है।
लक्ष्मीचन्द को लगा कि लड़के को भूखा रखने के साथ पीटना भी कितना अन्याय है। उसने उस गृहिणी से कहा, ‘‘माई! लोग कहते हैं कि बच्चों में भगवान निवास करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि यदि आप इस बच्चे में भगवान को नहीं देख पातीं तो किस भगवान को देखने आप जा रही हैं?''
इस पर उस गृहिणी ने ख़ीझकर कहा, ‘‘इसीलिए तुम्हारी ज़िंदगी ऐसी हो गई है! यदि तुम्हें इसके भीतर सचमुच भगवान दिखाई देते हैं तो इसको संभाल लो। मैं भगवान के दर्शन करके लौटूँगी, तब तुम्हें भी खाना खिलाऊँगी।''
लक्ष्मीचन्द ने मान लिया, मीठी बातों तथा जादू के खेल दिखाकर उस बच्चे को भुलावे में रखा। गृहिणी ने लौटकर लक्ष्मीचन्द की तारीफ़ की और उसको भी खाना खिलाया।
खाने के बाद लक्ष्मीचन्द ने उस गृहिणी से कहा, ‘‘माई! अपने पुत्र से भी ज़्यादा जिन्हें मानती हैं, वे आप के भगवान कहाँ पर हैं? उन्हें देखने की मेरी भी बड़ी इच्छा है।''
गृहिणी ने हँसकर कहा, ‘‘भगवान का मतलब क्या तुम साधारण भगवान को समझते हो? वह तो प्रत्यक्ष देवता है! तुमसे बात करेगा। सवालों का जवाब देगा। तुम पर स्नेह बरसा कर तुम्हारी तक़लीफ़ों को दूर करेगा।''

लक्ष्मीचन्द का कुतूहल और बढ़ गया। वह उस जगह गया जहाँ पर भगवान के सशरीर विराजमान होने की बात गृहिणी ने बताई। वहाँ पर बड़ी भीड़ जमा थी। सब लोग मौन बैठे थे। एक ऊँचे आसन पर दाढ़ी और मूँछवाले एक साधु बैठा हुआ था। वह जनता को उपदेश दे रहा था कि सच्चे मार्ग पर चलो। जो लोग विपत्तियों में थे, उन्हें अपने निकट बुलाकर समझा रहा था कि उसने जनता के दुखों को दूर करने के लिए ही यह अवतार लिया है। बीच-बीच वह व्यक्ति हवा में ही भभूत की सृष्टि करके लोगों पर छिड़क रहा था। जब-तब हवा में उड़कर थोड़े क्षण वैसे ही रहता था। इस पर भक्त उच्च स्वर में पुकार रहे थे, ‘‘हे परमात्मा! हमारा उद्धार करो।''
लक्ष्मीचन्द को यह सब विचित्र-सा प्रतीत हुआ। साधु ने जो विद्याएँ प्रदर्शित कीं, वे सब वह भी जानता था। मगर वह एक साधारण जादूगर ही रह गया और यह साधु भगवान बन बैठा है। इस रहस्य का पता लगाने के लिए लक्ष्मीचन्द अर्द्ध रात्रि को एकांत में उस साधु से मिला।
‘‘तुम कौन हो?'' साधु ने लक्ष्मीचन्द से पूछा।
‘‘मैं एक जादूगर हूँ। मैंने आपके प्रदर्शन देखे हैं। उन्हें देख लोग महिमा मान रहे हैं। उन्हीं प्रदर्शनों को करते रहने पर भी मुझे भर पेट खाना मिलना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। लोग आप को भगवान बता रहे हैं। उसी रहस्य का पता लगाने आया हूँ।'' लक्ष्मीचन्द ने कहा। उसने उस दिन का अपना अनुभव भी साधु को बताया।
‘‘इसमें रहस्य की कोई बात नहीं है कि मैं भगवान का अवतार हूँ! मुझे सहज रूप में जो शक्तियाँ प्राप्त हैं, उन्हें तुमने परिश्रम करके एक विद्या के रूप में सीख लिया है। तुम्हारे प्रदर्शन के लिए उपकरणों की आवश्यकता है। मेरे लिए उनकी ज़रूरत नहीं।'' साधु ने जवाब दिया।
‘‘ऐसी बात है! तब तो मैं अपनी उंगली काट लेता हूँ। क्या उसको आप फिर से चिपका सकते हैं?'' लक्ष्मीचन्द ने पूछा।
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