Thursday, June 30, 2011

अभिमन्यु

अभिमन्यु, सुभद्रा-अर्जुन का वीर पुत्र था। अभिमन्यु का अर्थ है - निडर, निर्भीक। इसका एक और अर्थ भी है क्रोधी। नाम ही के अनुरूप वह असाधारण पराक्रमी था।
अर्जुन तीर्थ यात्राएँ करने के लिए इंद्रप्रस्थ से निकला और अनेक तीर्थ स्थलों से होते हुए द्वारका के समीप के प्रभास तीर्थ में पहुँचा। वहाँ गदुड नामक एक युवक उससे मिला और कृष्ण की बहन सुभद्रा के सौंदर्य के बारे में उससे बताया। अर्जुन इससे पहले ही सुन चुका था कि वह अप्सरा तिलोत्तमा से भी अधिक सुंदर है। उससे मिलने और उससे विवाह करने की अभिलाषा उसमें उत्पन्न हुई।
यादव यतियों के प्रति अपार भक्ति रखते हैं। इसलिए अर्जुन ने यति का वेष धारण किया और द्वारका पहुँचा। उसने इस काम में कृष्ण की सहायता माँगी। सुभद्रा के बड़े भाई बलराम चूँकि इस विवाह के पक्ष में नहीं थे, इसलिए अर्जुन और कृष्ण ने निर्णय लिया कि इस विषय को गुप्त रखा जाये और इस दिशा में प्रयत्न जारी रहे।
द्वारका के समीप के एक वन में यति के वेष में अर्जुन को देखकर, उसे सच्चा यति मानकर बलराम ने उसे अपने भवन में आने के लिए निमंत्रित किया। उसने वहीं अर्जुन के चातुरमास व्रत के पालन के लिए आवश्यक प्रबंध भी किया। अलावा इसके, उसकी परिचर्या करने की जिम्मेदारी सुभद्रा को सौंपी।
एक दिन परिचर्या करती हुई सुभद्रा ने यति से पूछा, ‘‘आप विविध प्रदेशों में गये। क्या आप इंद्रप्रस्थ भी गये? वहाँ अद्भुत पराक्रमी मनमोहक अर्जुन को देखा, जो मेरी फूफी के सुपुत्र हैं?

तब अर्जुन अपने असली रूप में प्रकट हुआ और सुभद्रा से बताया कि मैं ही वह अर्जुन हूँ। दोनों ने एक-दूसरे को पसन्द किया। बलराम की अनुपस्थिति में उन्होंने गांधर्व विवाह किया और इंद्रप्रस्थ गये। कालक्रम में उन्होंने अभिमन्यु को जन्म दिया। अभिमन्यु ने बड़ा होकर पिता से और उपपांडवों से धनुर्विद्या सीखी।
पांडव शकुनि के मायाजाल में फंसकर जूए में हार गये। राज्य को खो दिया और वचन के अनुसार वनवास करने चले गये।
तब कृष्ण, बलराम अपनी बहन सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु को द्वारका ले गये।
बारह सालों तक वनवास करने के बाद पांडवों ने मत्स्य देश के विराट नगर में बहुरूपियों के वेष में एक साल तक अज्ञातवास किया।
उस समय बृहन्नला बनकर अर्जुन ने विराट राजा की पुत्री उत्तरा को नृत्य सिखाया। उत्तर गोग्रहण के समय कौरव सेनाओं को हराकर उनके गौरव की अर्जुन नेरक्षा की । जैसे ही विराट राजा को मालूम हुआ कि यह बृहन्नला कोई और नहीं, स्वयं अर्जुन ही है तो उससे सम्बन्ध बनाने की आशा उसमें जगी। उस समय सुभद्रा अभिमन्यु सहित विराट नगर गयी और पांडवों से मिली। विराट राजा की विनती पर उत्तरा-अभिमन्यु का विवाह विराट नगर में ही बड़े ही वैभव के साथ संपन्न हुआ।
इस विवाह के कुछ समय के बाद कुरुक्षेत्र संग्रम शुरू हो गया। अभिमन्यु ने युद्ध क्षेत्र में अद्वितीय वीरता और साहस का प्रदर्शन किया और इस प्रकार से युद्ध किया, मानों शत्रुओं के सामने वह साक्षात यमराज हो!
कुरुक्षेत्र युद्ध में भीष्म के पतन के बाद द्रोण ने कौरव सेनाध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली और पाँच दिनों तक लगातार युद्ध किया। एक दिन द्रोण ने कौरव सेना को चक्रव्यूह में खड़ा किया। चक्रव्यूह के छेदन का रहस्य अर्जुन और अभिमन्यु मात्र को ज्ञात था। किन्तु उस दिन अर्जुन रणक्षेत्र के दूसरे भाग में युद्ध करने चले गये थे। अतः चक्रव्यूह के छेदन का भार अभिमन्यु के कंधों पर आ पड़ा।
परंतु, अभिमन्यु को चक्रव्यूह में प्रवेश करना मात्र मालूम था, उससे बाहर निकलने का उपाय उसे मालूम नहीं था। उसने पांडवों को यह बताया भी। पर धर्मराज आदि पांडवों ने उससे कहा, ‘‘डरने की कोई बात नहीं, हम सब तुम्हारे साथ चक्रव्यूह में प्रवेश करेंगे और इस बात की सावधानी रखेंगे कि शत्रुओं की सेना से तुम्हें अकेले ही युद्ध करना न पड़े।''

अभिमन्यु ने शत्रु सेना का संहार करते हुए चक्रव्यूह में प्रवेश किया। कौरव सेना के बड़े-बड़े वीरों ने एकदम उसे घेर लिया, फिर भी निर्भीक होकर वह उनके ऊपर टूट पड़ा। एक तरफ़ द्रोण पर, दूसरी तरफ कर्ण और कृतवर्मा पर बाणों की बौछार करने लगा। उसके बाणों का शिकार हुआ, दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण। दुश्शासन युद्ध क्षेत्र से भाग गया, वृषसेन बेहोश हो गया। अजेय बनकर बाणों की वर्षा करनेवाले अभिमन्यु को देखकर कौरवों ने उसे धोखे से मारने का निश्चय किया। पीछे से आकर कर्ण ने उसे रथ से उतरने पर बाध्य किया। कृप ने उसके अश्वों को मार डाला। अभिमन्यु भूमि पर कूद पड़ा और युद्ध करने लगा। जिन पांडवों ने पीछे-पीछे आने का भरोसा दिया, उनमें से कोई भी उसकी सहायता करने नहीं आया। सैंधव ने उन्हें आगे बढ़ने से चक्रव्यूह के बाहर ही रोक रखा।
अभिमन्यु अकेले ही कौरवों से लड़ते-लड़ते थक गया। सरोवर में उतरे हाथियों को जिस प्रकार से किरात घेरकर उन्हें विविध हथियारों से घायल करते हैं, उस प्रकार से सिंह जैसे अभिमन्यु को कौरवों ने घेर लिया। कौरवों की सेना के बीच में वह अकेले ही फँस गया। द्रोण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कर्ण, दुर्योधन आदि महारथियों ने उस पर एक साथ आक्रमण कर दिया।
उसके शस्त्रहीन होने पर भी शत्रु उसपर चारों ओर से उस पर प्रहार करते रहे। उसने अन्त में रथ के पहियों से उनका सामना किया। सभी महारथी उसकी वीरता और रणकौशल देखकर हैरान थे। जब वे धर्मयुद्ध से उसे जीत न सके तो उन सबने उसे धोखे से मार दिया। गीदड़ों के झुण्ड के हाथों अन्त में सिंह के समान युद्ध करते-करते अभिमन्यु युद्ध भूमि में सो गया। उत्तरा के गर्भ से जन्में अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित ही पांडवों का एकमात्र उत्तराधिकारी बनकर रह गया।

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