
अजय, विजय दोनों दोस्त थे। अजय मेहनती था। एक ही दिन में बड़ा बन जाऊँ, पर्याप्त धन कमाऊँ, कभी भी उसकी यह इच्छा नहीं थी। मेहनत के बल पर ही, सतत प्रयत्नों के द्वारा ही, सही मार्ग पर चलकर ही जीवन में कुछ बनने की उसकी तीव्र इच्छा थी और इसी दिशा में वह क़दम बढ़ाता था। पर, विजय का स्वभाव इसके बिलकुल विपरीत था। वह हमेशा ऊँचा ही सोचा करता था। वह कहता था, ‘‘बाघ हाथी के दिमाग़ को ही खाना चाहता है, भूख लगने पर वह हरी घास थोड़े ही खाता है। मैं भी बाघ की ही तरह हूँ।
अजय की तरह इधर-उधर से कुछ न कुछ बटोरने का आदी नहीं हूँ।'' चूँकि वह धनी परिवार का था, इसलिए घर के बड़े लोग उसकी बातों पर ध्यान नहीं देते थे। वे कभी भी शिकायत नहीं करते थे कि बेकार बैठा रहता है और कुछ भी कमाता नहीं है। परंतु, उसके भविष्य को लेकर उसके माता-पिता को चिंता थी।
विद्यासागर उन दोनों के गुरु थे। इन दोनों को उन्होंने ही शिक्षा प्रदान की। वे अपने विद्यार्थियों से मिलने एक बार उनके यहाँ आये। दोनों विद्यार्थियों ने उनका स्वागत किया और आतिथ्य दिया। गुरु ने खुश होते हुए उनकी स्थिति के बारे में पूछताछ की। ‘‘खेती में और व्यापार में मैं अपने पिता की मदद कर रहा हूँ। स्वयं व्यापार करने में थोड़ा और समय लग सकता है,'' अजय ने विनयपूर्वक कहा। ‘‘यह जानकर बहुत खुश हुआ। जो पेशा अपनाना चाहते हो, उसमें प्रशिक्षण और अनुभव की भी आवश्यकता पड़ती है। तुम बिलकुल ठीक कर रहे हो,'' गुरु ने कहा।
फिर विजय से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? ‘‘मैं अभी कुछ नहीं कर रहा हूँ। कुछ करने की कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि मेरे पिताजी बहुत बड़े व्यापारी हैं। वे गहनों की बहुत बड़ी दुकान संभाल रहे हैं।
इतनी बड़ी दुकान इस शहर में है नहीं। हमारी दुकान में बेचे जानेवाले गहने अपनी श्रेष्ठता के लिए प्रसिद्ध हैं। जिस दिन मैं दुकान का मालिक बनूँगा, अपनी इच्छा के अनुसार व्यापार करूँगा और खूब कमाऊँगा भी। पिताजी से दस गुना अधिक ही कमाकर दिखाऊँगा। शहर भर में मैं धनाढ्य कहलाऊँगा। धन के साथ-साथ नाम भी कमाऊँगा।'' विजय ने दंभ-भरे स्वर में कहा।

गुरु ने उसकी बातों पर आश्र्चर्य-प्रकट करते हुए कहा, ‘‘देखो, कोई भी व्यापार धर्मविरुद्ध हो, तो दुराशा, लोभ, अरिष्ट का कारक होता है । मैं तुम्हें उस लंबोदर की कहानी सुनाऊँगा, जिसने दुराशा के वश में आकर अपना नाश कर लिया।'' फिर उन्होंने यों कहाः लंबोदर नामक एक पेटू रहा करता था। जितना भी खा ले, और खाने की उसकी इच्छा बनी रहती थी।
घर में जो भी पकता था, खा लेता था, और खाने के लिए माँगता रहता था। बड़े उससे बारंबार कहा करते थे कि काम पर ध्यान रखो और खाना कम कर दो, पर वह उनकी बात मानता ही नहीं था। घर में खाली बरतन दिखते तो गाँव के घर-घर पर जाकर खाना माँगने लगता था। गाँव के लोग भी भला कितने दिनों तक उसे खाना खिलाते रहेंगे? कुछ दिनों के बाद उन्होंने इनकार कर दिया।
कोई भी उसकी माँग पूरी करने को तैयार नहीं था। इसलिए आधी रात को किसी न किसी घर में घुस जाता था और बचा-खुचा खाना खा लेता था। एक दिन पास ही के जंगल में चला गया। वहाँ के जंतुओं को देखते ही उन्हें खा जाने की उसमें इच्छा जगी। एक भाले से जंतुओं का शिकार किया और उन्हें खा लिया। पेटू लंबोदर को देखते ही छोटे-मोटे जंतु भय के मारे भागने लगे।
लंबोदर ने एक दिन एक हाथी को देखा। पहले तो उसे देखकर वह डर गया। वह हाथी बड़े-बड़े वृक्षों की शाखाओं को तोड़ने लगा और उन्हें खाते जाने लगा। उसे लगा कि इतने बड़े हाथी को खा सकूँगा तो कितना अच्छा होगा। पर अपने पेट को देखकर वह निराश हुआ, क्योंकि इतने छोटे पेट में इतना बड़ा हाथी कैसे समा सकेगा? परंतु लंबोदर के मन में हाथी को खाने की इच्छा तीव्र होती गयी।

एक दिन उसने एक मुनि को देखा। वह दौड़ता हुआ गया और मुनि के पैरों पर गिर पड़ा। फिर अपनी इच्छा प्रकट की और पूछा कि इस इच्छा के पूरे होने का मार्ग क्या है? उसकी इच्छा जानकर मुनि निश्र्चेष्ट रह गये। पर वे करें भी क्या? क्योंकि माँगनेवाले की इच्छा पूरी करना उनका नियम था। वे इस नियम से बद्ध थे।
उन्होंने लंबोदर से कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक मंत्रोपदेश देता हूँ। देखो, वहाँ जो गुफ़ा दिखायी दे रही है, उसमें प्रवेश करना और दीक्षा के साथ इस मंत्र का जप करना। तुम्हारी इच्छा पूरी होगी।'' फिर उन्होंने उस मंत्र का उपदेश दिया। लंबोदर तुरंत गुफ़ा के अंदर चला गया और कहने लगा, ‘‘मुझे इतना बड़ा पेट दो, जिसमें बड़ा हाथी भी समा जाए।'' यों कहते हुए वह बड़े ही आग्रह के साथ मंत्र का जप करने लगा। तीसरे दिन सुबह को लंबोदर का पेट बहुत बढ़ने लगा।
उसके आनंद की सीमा न रही। यह सोचते हुए गुफ़ा से बाहर आने को तैयार होने लगा कि अब मैं जंगल के सब प्रकार के जंतुओं को आराम के साथ खा सकता हूँ। पर, भारी शरीर के कारण वह गुफ़ा के बाहर नहीं आ पाया। उसका दम घुटने लगा। बाहर आने का कोई और दूसरा मार्ग नहीं था।
जब उसने गुफ़ा में प्रवेश किया था तब उसने इसपर ध्यान नहीं दिया कि उस मार्ग से एक ही आदमी अंदर प्रवेश कर सकता है। उसे अपनी दुराशा और लालच पर पश्र्चाताप होने लगा और भूख सह न सकने के कारण गुफ़ा के अंदर ही उसकी मृत्यु हो गयी। गुरु ने यह कहानी सुनाने के बाद विजय से कहा, ‘‘देखा, दुराशा के वश में आकर लंबोदर की कैसी मौत हुई? याद रखो, दुराशा सदा दुख का कारक होता है।
यह सोचते मत रहना कि आकाश तक पहुँचने के लिए निसेनी कैसे डालूँ। पहले अपने ही पेड़ पर चढ़कर फलों को तोड़ना सीखो।'' ‘‘अब मेरी अ़क्ल ठिकाने आ गयी गुरुवर। आज ही से पिताजी की दुकान पर जाऊँगा और व्यापार की बारीकियाँ सीखूँगा।'' विनय ने गुरु को प्रणाम करते हुए कहा।

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