Thursday, June 30, 2011

निकम्मा

लोकनाथ तीस साल की उम्र का था। उसका अपना कोई नहीं था। गाँव के लोग जो भी काम उसे सौंपते, बिना हिचकिचाये, वह कर डालता था। भूख, नींद आदि समस्याओं को लेकर वह कभी चिंतित नहीं होता था। भूख लग जाए, तो किसी के भी घर पर वह निःसंकोच चला जाता था और उसे भोजन मिल जाता था। रातों में वह किसी गृहस्थ के घर के चबूतरे पर आराम से सो जाता था। वह अपने जीवन से पूरी तरह सन्तुष्ट था और उसे किसी प्रकार का अभाव नहीं खटकता था।
एक बार वह, पुजारी के बताये काम पर पास ही के गाँव में लगनेवाली हाट में कुछ चीजें खरीदने गया। आवश्यक चीज़ें उसने खरीद लीं और वहाँ के विचित्र प्रदर्शनों को देखने के बाद गाँव लौट पडा। तब तक सूर्यास्त हो चुका था और अंधेरा छा रहा था।
बिना किसी चिन्ता के मस्ती में लोकनाथ गुनगुनाता हुआ जाने लगा। ‘‘जब वह अपने गॉंव की सरहद पर पहुँच गया, तब सामने से एक आदमी आया और कहने लगा, ‘‘उस दिन तुमने छिपकर मुझ पर हमला किया और मुझे मारा-पीटा। देखना, अब मैं तुम्हारा क्या हाल करता हूँ।'' यह कहते हुए उसने उसके कंधे पर ज़ोर से मारा।
लोकनाथ गिर तो गया, पर तुंरत ही उस पर ‘‘अहा, अहा'' कहते हुए ज़ोर से हँसने लगा। उस आदमी ने आश्चर्य-भरे स्वर में उससे पूछा, ‘‘गधे की तरह दांत क्या दिखा रहे हो?'' कहते हुए उसने उसे मारने के लिए फिर हाथ उठाया।
लोकनाथ ने हँसते हुए ही कहा, ‘‘मैं कोई गधा नहीं हूँ, मेरा नाम लोकनाथ है।'' यह कहते हुए जोर से वह हँसता ही गया।

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