
वज्रपुरी का जयराम महा परोपकारी था। जो भी उससे माँगने आते थे, वह उन्हें निराश नहीं करता था। कुछ न कुछ देकर ही उन्हें भेजता था। वह ग़रीबों की तकलीफों से भली-भाँति परिचित था, क्योंकि पहले वह भी बहुत ग़रीब था। अपनी मेहनत के बल पर उसने बहुत धन कमाया। उसने अपनी ज़िन्दगी एक पंसारी की दुकान से शुरू की। अब वह वज्रपुरी के धनाढ्यों में से एक है। इंद्र भवन जैसा अब उसका एक भवन भी है।
शिशिर, वसंत, हेमंत उसके तीन बेटे थे। तीनों विवाहित थे और वे तीन प्रकार के व्यापारों को पिता की ही तरह बड़ी दक्षता के साथ संभाल रहे थे। जैसे-जैसे जयराम की उम्र बढ़ती गयी, वैसे-वैसे बेटों को जायदाद सौंपने की इच्छा उसमें बल पकड़ती गयी। जायदाद का बँटवारा करके वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहता था।
एक दिन उसने अपने आप्त मित्र निपुण को बुलवाया और उससे अपने मन की बात बतायी। दोनों ने आपस में चर्चा की और निर्णय किया कि घर को छोड़कर बाकी जायदाद समान रूप से तीनों में बाँट दी जाए। जयराम को यह बिलकुल ही पसंद नहीं था कि घर को तीन भागों में विभाजित किया जाये।
‘‘मेरा घर अन्नपूर्णा की तरह है। हर दिन कम से कम चार-पाँच लोगों को यहाँ आतिथ्य मिलता है। मेरा आशय है कि मैं रहूँ या न रहूँ, इस घर में यह परम्परा बनी रहे,'' जयराम ने निपुण से कहा। ‘‘अगर यही करना चाहते हो तो संभव है, भाइयों में एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो, स्वार्थ उनमें बढ़ जाये। खूब सोचना और तब निर्णय लेना,'' निपुण ने कहा।

‘‘मैं तो चाहता हूँ कि जो हमारी इस परम्परा को क़ायम रखे उसी को यह घर दिया जाये। तुमसे सलाह माँगने का मेरा यही उद्देश्य है। पूरी जायदाद मैंने खुद कमायी। बँटवारा मेरी इच्छा के अनुसार ही होगा। किन्तु मैं नहीं चाहता कि इस वजह से भाइयों में वैर बढ़े, वे एक-दूसरे को शत्रु समझें। मैं तो चाहता हूँ कि तीनों एकसाथ इस घर में ही रहें और मिल-जुलकर रहें।
यह ज़रूरी है कि यह घर उसी को सौंपा जाये, जो परोपकारी हो। इन तीनों में से कौन परोपकारी है, इसका निर्णय करना अब तुम्हारे हाथ में है। इस विषय में मुझे तुम्हारी सहायता चाहिये।'' जयराम ने अपने मन की बात स्पष्ट शब्दों में अपने मित्र निपुण से कह डाली। निपुण के लिए इस समस्या का समाधान करना परीक्षा बन गयी।
उसने कहा, ‘‘तुम्हारे तीनों बेटे अच्छे हैं। वे किसी को भी हानि नहीं पहुँचाते। उनमें से किसी एक को इसके लिए चुनना कठिन काम है।'' इसी को लेकर वह सोचते हुए घर गया। तीन दिनों तक सोचने के बाद उसे एक उपाय सूझा। उसने तुरंत जयराम से यह उपाय बताया। उसके ‘हाँ' कहने के बाद उसने इस दिशा में काम शुरू कर दिया।
उसने पहले जयराम के बड़े बेटे शिशिर को बुलाया और कहा, ‘‘बेटे, तुम मेरे जिगरी दोस्त के बेटे हो। मेरे बेटे जैसे हो। हाल ही में हिमालय से आये एक तपस्वी अपने साथ अद्भुत महिमावान चार फल ले आये। उन्हें खाने से अश्विनी देवताओं का आशीर्वाद मिलेगा, हमेशा स्वस्थ रहोगे और कुबेर के पास जितना धन है, उतना धन तुम्हें मिलेगा।


मैंने अपने तीनों बच्चों को तीन फल दे दिये और अब एक ही बच गया है। मैं और तुम्हारे पिता ऐहिक बंधनों से विमुक्त होना चाहते हैं, इसलिए हमें इसकी ज़रूरत नहीं है। इसे तुम ले लो। अभी मेरे ही समक्ष इसे खाओगे तो मुझे बड़ी खुशी होगी।''
यह सुनते ही शिशिर की आँखें आनंद से चमक उठीं। उसने कहा, ‘‘मामाजी, मैं आपका बहुत कृतज्ञ हूँ। आपका मैं सदा ऋणी हूँ।'' कहते हुए उसने निपुण से वह फल ले लिया और पूरा फल वहीं खा गया और बड़े ही आनंद के साथ घर जाने के लिए निकल पड़ा।
इसके बाद निपुण ने वसंत को बुलवाया और वही बात दोहरायी, जो शिशिर से कही थी। ‘‘यह जानकर बड़ी खुशी हुई, मामाजी। परंतु इतने महिमावान फल को मैं अकेले ही नहीं खा सकता। यह फल बड़े और छोटे भाई को दीजिये। हम तीनों में यह फल बाँटना चाहते हों तो इसे हम तीनों में समान रूप से बाँटिये। तीनों मिलकर खायेंगे। स्वास्थ्य और ऐश्वर्य आख़िर सभी को चाहिये न।'' वसंत ने कहा।
‘हाँ' कहकर निपुण ने उसे भेज दिया। अब तीसरे बेटे हेमंत की बारी आयी। निपुण की बातें सुनकर वह खुशी से झूम उठा। उसने कहा, ‘‘मैं नहीं जानता कि कैसे आपको कृतज्ञता जताऊँ । पर, मेरी एक इच्छा है।''
निपुण ने पूछा, ‘‘कहो, तुम्हारी वह इच्छा क्या है?'' ‘‘मेरी पत्नी, संतान के साथ स्वस्थ हो, उन्हें ऐश्वर्य प्राप्त हो, इससे बढ़कर मेरे लिए कोई आनंद नहीं है।

आप मान जाएँ तो मैं उन्हें चुपचाप बुला ले आऊँगा। हम सब उस फल को मिलकर खायेंगे। कहिये, मैं क्या करूँ?'' निपुण ने ‘हाँ' कहा। इसके दो दिनों के बाद निपुण ने जयराम को अपने घर बुलाया और कहा, ‘‘घर की पूरी जिम्मेदारी वसंत को सौंप देना। जैसी तुम्हारी चाह है, लोग तुम्हारे परोपकार के गुण को शाश्वत रूप से याद रखेंगे। घर का मान बना रहेगा।''
‘‘तुम कैसे इस निर्णय पर पहुँचे?'' मित्र से जयराम ने पूछा। निपुण ने, जो हुआ, सविस्तार बताया और, ‘‘निस्संदेह ही तुम्हारे तीनों बेटे अच्छे हैं। परंतु तुम्हारा बड़ा बेटा शिशिर अपने ही बारे में सोचता है। दूसरों के बारे में वह सोचता ही नहीं। तीसरा बेटा हेमंत अपनी पत्नी व संतान ही को लेकर सोचता है। वहीं तक उसकी सोच व दृष्टि सीमित है। वह भी दूसरों के बारे में सोचना नहीं चाहता। अब रही तुम्हारे दूसरे बेटे वसंत की बात।
वही एकमात्र है जो अपने और अपने परिवार के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण चाहता है। उसकी दृष्टि विशाल है। उसकी सोचने की पद्धति अनोखी है। वह भी तुम्हारी ही तरह परोपकार को परमार्थ मानता है। तुम्हारा योग्य वारिस है।
इसलिए तुम निश्चिंत होकर अपने घर की जिम्मेदारियाँ उसे सौंप सकते हो। तुम्हारा आशय भी पूरा होगा और तुम्हारे परिवार की मर्यादा सदा बनी रहेगी। मैंने जो फल उन्हें दिये, वे मेरे घर के पिछवाड़े के पेड़ों के मीठे फल मात्र थे।'' मुस्कुराते हुए निपुण ने जयराम से कहा। ‘‘बड़ी ही सूझ-बूझ से तुमने मेरी समस्या का हल किया, इसे मैं कभी भी भूल नहीं सकता हूँ,'' कृतज्ञता जताकर जयराम घर चला गया।
थोड़े दिनों के बाद जयराम ने अपने बेटों को वे सब व्यापार सुपुर्द कर दिये, जिन्हें वे संभाल रहे थे। शेष अपनी जायदाद को दो हिस्सों में शिशिर और हेमंत में समान रूप से बाँटा। घर और घर की जिम्मेदारी वसंत को सौंप दी। अपने पिता के आशयों के अनुरूप ही चलते हुए सब बेटों ने पिता का नाम रोशन किया।

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