Thursday, June 30, 2011

दुख-दर्द अपने-अपने

सुकुमार और मनोहर मिर्जापुर के दिवान में काम करते थे। दोनों क्रमशः घने मित्र बन गये। हर शाम वे गोविंद की मिठाइयों की दुकान में आते रहते। कई कर्मचारी भी वहॉं खाते रहते थे। सुकुमार कुछ नहीं खाता था। किन्तु मनोहर कोई न कोई पकवान खरीद कर जरूर खाता था।
मनोहर, सुकुमार से अ़क्सर पूछा करता था, ‘‘तुम क्यों कभी भी कुछ नहीं खाते?'' सुकुमार कहता था, ‘‘सवेरे पेट भर खाके आता हूँ। दुपहर को भोजन कर लेता हूँ। भला, क्या खाऊँगा?''
‘‘तुम तो खुशनसीब हो। तुम्हारी पत्नी सवेरे ही रसोई बनाकर खिलाती है। मेरी पत्नी देरी से उठती है। इस बात पर अ़क्सर हममें विवाद होते रहते हैं,'' मनोहर ने कहा। सुकुमार कहता, ‘‘दुख-दर्द अपने-अपने।'' जब-जब सुकुमार यों कहता, तब-तब मनोहर को बहुत ताज्ज्ाुब होता था।
सुकुमार ने एक दिन मनोहर से कहा, ‘‘कल मेरा जन्म-दिन है। दिवान जाने के पहले मेरे घर आ जाना। एक साथ नाश्ता करेंगे और फिर वहॉं से दिवान जायेंगे।''
दूसरे दिन मनोहर, सुकुमार के घर आया। सुकुमार की पत्नी ने प्यार से उसका स्वागत किया और कहा, ‘‘बैठिये, नाश्ता ले आती हूँ। उसने वड़ा, पूरन पूड़ी दोनों को परोसा।
एक वड़ा को मुँह में रखते ही मनोहर भयभीत हो गया। वह कंकड़ की तरह सख्त था। उससे चबाया नहीं जा रहा था। पर, सुकुमार उन्हें आराम से खा रहा था।
खाने के बाद दोनों दिवान जाने निकल पड़े। रास्ते में सुकुमार ने मनोहर से पूछा, ‘‘नाश्ता कैसा रहा?'' मनोहर ने लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘अब समझ में आया कि तुम क्यों अ़क्सर कहते रहते हो - दुख-दर्द अपने-अपने।''


No comments:

Post a Comment