Thursday, June 30, 2011

आधी रात

नारायणपुर का भूस्वामी धनुंजय मेहनती किसान था। उसका बेटा प्रसाद अ़क्लमंद था, पर वह अव्वल दर्जे का सुस्त था। धनुंजय उसे समझाया करता था, ‘‘बैठकर खाते रहने से पर्वत भी पिघल जाते हैं। पसीना बहाकर काम न करो, पर कम से कम साथ रहकर काम कराओ तो सही।'' पर प्रसाद खेत जाने का नाम ही नहीं लेता था। जोर देने पर अगर जाता भी तो काम करनेवालों से अंटसंट और वे सिर पैर के सवाल किया करता था। उनका काम भी बिगाड़ा करता था। उसके सवालों का कोई मतलब ही नहीं होता था। गाँव में जो भी दिखायी पड़ता, उससे भी ऐसे ही सवाल करता था, जिससे वह नाराज़ हो उठता था। इसलिए प्रसाद को देखते ही लोग उससे दूर भागते थे और उससे पिंड छुडाने पर आराम की सांस लेते थे।
एक बार वह अपने नौकर लच्छू को लेकर मेला देखने राजवर गया। वहाँ से निकलते-निकलते अंधेरा छा गया। गाँव पहुँचने की जल्दी में वे भटक गये और उनकी समझ में नहीं आया कि क्या करें और गाँव कैसे पहुँचें। तब उन्होंने एक झिलमिलाती रोशनी देखी। वे वहाँ गये तो एक झोंपडी में उन्होंने एक बैरागी को देखा। उसे देखते ही प्रसाद पूछने लगा, ‘‘यहाँ तो कोई दूसरा आदमी ही दिखायी नहीं देता। इस जंगल में अकेले ही क्या करते हो, कैसे रहते हो? गाँव से दूर रहने मात्र से क्या सब तकलीफ़ें दूर हो जायेंगी? यहाँ तो खाने के लिए भी कुछ नहीं है? तुम सचमुच बैरागी हो या पारिवारिक कष्टों को सह न पाने के कारण यहाँ भाग आये हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि अपराध करके अपने को बचाने के लिए यहाँ छिपे हो?'' यों आदत के अनुसार सवाल पूछता गया।

बैरागी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘लगता है, बहुत थक गये हो। यह केला खा लेना और आराम से सो जाना। सवेरे तुम्हारे सारे संदेहों को दूर करूँगा।''
प्रसाद ने केला खा लिया और उसी झोंपड़ी में सो गया। लच्छू उससे थोड़ी दूरी पर सो गया।
इतने में प्रसाद को कई लंबे-लंबे पेड़ दिखायी पड़े। वहाँ तो अंधेरा ही नहीं था। बिलकुल दिन जैसा लगता था। प्रसाद तेज़ी से जाकर वहाँ पहुँच गया। उसे देखते ही कुछ लंबे-लंबे लोग पेड़ों से उतरकर ज़मीन पर आ गये। वे सबके सब उसके पास आ गये और उसे घेर लिया।
उनमें से एक लंबे आदमी ने उसे नमस्कार करते हुए कहा, ‘‘महोदय, मेरा नाम मोरी है। लंबे समय के बाद यहाँ आये अतिथि हैं आप। इस गाँव की तरफ़ से आपका स्वागत करता हूँ। हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिये।''
‘‘आप सबके सब पेड़ों पर से उतरे। तो आपके घर कहाँ हैं?'' प्रसाद ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।
‘‘हमारे घर पेड़ों पर ही होते हैं'', कहते हुए मोरी ने ऊपर दिखाया।
सिर उठाकर प्रसाद ने देखा कि उन लंबे-लंबे पेड़ों पर खपरैलों के सुंदर घर हैं। उन्हें देखकर चकित प्रसाद ने पूछा, ‘‘जहाँ तक मैं जानता हूँ, यह आधी रात है। फिर यहाँ तो रोशनी ही रोशनी है, मानों दिन हो। यह तो अजीब बात है।''
तब मोरी ने कहा, ‘‘हम सूरजपुर के गाँव के हैं। यहाँ सूर्यास्त नहीं होता। हमारे पूर्वजों ने कहा कि यहाँ जो भी आते हैं, उनका आतिथ्य करना। बड़ों ने जिन नियमों को लागू करने के लिए कहा, उन्हें लागू करना हम अपना कर्तव्य मानते हैं। ऐसा न करने पर सूरज डूब जायेगा और यहाँ अंधेरा ही अंधेरा होगा। अतिथियों के लिए विशेष रूप से एक सुंदर अतिथि गृह का भी प्रबंध किया गया है।''
‘‘क्या वह अतिथि गृह भूमि पर है या इन्हीं में से किसी पेड़ पर?'' प्रसाद ने पूछा।
‘‘वह अतिथि गृह इन पेड़ों से भी लंबे एक पेड़ पर है'', कहते हुए उसने प्रसाद को एक लंबे पेड़ पर बनाये गये अतिथि गृह को दिखाया।

‘‘मुझे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता'', प्रसाद ने कहा। ‘‘आप इस विषय को लेकर परेशान मत होइये। निश्चिंत रहिये। इसका पूरा प्रबंध हम करेंगे।'' कहते हुए मोरी ने प्रसाद के पैरों में चक्र बांध दिये। प्रसाद उन चक्रों के सहारे प़ेड़ पर बने अतिथि गृह में पहुँच गया। उसके पीछे-पीछे बाकी लोग आ गये और बांस से बनाये एक सुंदर सिंहासन पर उसे बिठाया।
प्रसाद ने देखा कि वहाँ के पत्थरों के चूल्हे के चारों ओर एक काली बिल्ली इधर-उधर घूम रही है। उस बिल्ली की ओर एकटक देखते हुए प्रसाद से मोरी ने कहा, ‘‘जो लोग सुस्त होते हैं, परिश्रम करना नहीं चाहते और निठल्ले बैठकर खाना चाहते हैं, उन्हें दण्ड के रूप में काली बिल्लियों के रूप में हम बदल देते हैं और उतना ही नहीं हम उनसे सबके लिए रसोई बनवाते हैं।'' यह सुनकर प्रसाद चौंक उठा।
इतने में नीचे शोरगुल सुनायी पड़ा तो प्रसाद ने झुककर नीचे देखा। वहाँ कई लोग नाच रहे थे।
‘‘लंबे अर्से के बाद मेहमान बनकर आप आये हैं, इसलिए इस अवसर पर हम उत्सव मना रहे है'', मोरी ने कहा।
ज़मीन पर नाचनेवाले लोग प्रसाद से नीचे आने का इशारा कर रहे हैं। प्रसाद ने फिर से पैरों में चक्र बांधे और नीचे उतरा। उसने देखा कि वे लोग बांस से बने एक पात्र में भरा रस पी रहे हैं। उनमें से एक ने एक पात्र प्रसाद को दिया। उस रस को थोड़ा-सा पी जाने के बाद प्रसाद ने कहा, ‘‘बड़ा ही रुचिकर है। पर यह तो बताना कि इस रस को जो दो लोग बांस के पात्रों में भर रहे हैं, वे मौन क्यों हैं और क्यों दुखी दीख रहे हैं?''
‘‘उन दोनों मौन स्वामियों ने ही पाँच प्रकार के फलों के रस में शहद मिलाकर इस अद्भुत पेय को तैयार किया है। वे व्यर्थ के सवाल पूछ कर सबका समय नष्ट किया करते थे और उन्हें नाराज भी कर देते थे। अर्थहीन प्रश्नों से हमें नाराज़ करनेवाले उन दोनों की जीभों को हमने काट दिया है, जिससे वे ऐसे प्रश्न हमसे फिर से न पूछें और उन्हें इस पेय को बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है। ऐसे लोगों को हम इसी प्रकार का दंड देते हैं'', एक लंबे आदमी ने विवरण दिया।
प्रसाद भयभीत हो गया। उसका पूरा शरीर पसीने से भीग गया। इतने में वहाँ आग की वर्षा होने लगी। वे इस वर्षा में बड़े ही उत्साह के साथ नाचने-गाने लगे।

‘‘तुम्हारे आने की ही वजह से आग की यह वर्षा हो रही है। हम तुम्हारे ऋणी हो गये। पूछो, तुम्हें क्या चाहिये? तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे'', एक लंबे बूढ़्रे आदमी ने पूछा।
‘‘मुझे तुरंत गाँव पहुँचाइये। मुझे और कुछ नहीं चाहिये। नहीं तो किसी पेड़ से लिपट जाऊँगा और आत्महत्या कर लूँगा।'' प्रसाद ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
‘‘ऐसा मत कीजियेगा। जैसा आप चाहते हैं, आपको गाँव पहुँचायेंगे।'' यों कहकर चार लोगों ने उसे घुमा-घुमाकर फेंक दिया।
प्रसाद हवा में पल्टियाँ मारता हुआ, ‘बचाओ, बचाओ' कहकर चिल्लाने लगा।
पास ही लेटे लच्छू ने प्रसाद को जगाते हुए कहा, ‘‘क्या हुआ मालिक? क्या कोई सपना देखा?''
आँखें खोलकर प्रसाद ने कहा, ‘‘हाँ, सपना देखा था'', लंबी सांस खींचते हुए उसने कहा। ‘‘यह एक बड़ा ही विचित्र असम्भव सा सपना था।''
इसके बाद वह सो नहीं पाया। झोंपड़ी से बाहर आया। कंपा देनेवाली सर्दी में, शरीर पर किसी आच्छादन के बिना एक ही पैर पर खडे बैरागी को देखकर स्तंभित रह गया। सवेरे-सवेरे आँख खोले बैरागी के पैरों पर गिरकर प्रसाद ने प्रणाम किया।
बैरागी ने मुस्कुराते हुए उसे उठाकर पूछा, ‘‘क्या तुम्हारे संदेह दूर हो गये पुत्र?''
प्रसाद ने ‘हाँ' के भाव में सिर हिलाया।
‘‘समय दैव स्वरूप है। सुस्ती बहुत ही नीच स्वभाव है। अनावश्यक वाचालता से समय को व्यर्थ मत करना। समय का सही उपयोग करना'' बैरागी ने यों कहकर उसे आशीर्वाद दिया।
नौकर के साथ लौटे प्रसाद ने उस दिन से लेकर अनावश्यक प्रश्न पूछने की आदत छोड़ दी। सुस्ती त्यज दी और खेत कर जाकर मेहनत करने लगा। पिता के कहे अनुसार काम करते हुए वह उसके हर काम में सहायता करने लगा। शान्त और गंभीर स्वभाव का प्रसाद अब सबसे योग्य कहलाने लगा।




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