Thursday, June 30, 2011

कमेर की चेतावनी

लक्ष्मण दास सिंहपुरी का निवासी था। उसके तीन बेटे और तीन बेटियाँ थीं। सबकी शादियाँ हो गयीं और वे सबके सब उसी गांव में रहने लगे । लक्ष्मण दास की बहुत पहले से ही तीव्र इच्छा थी कि अपना एक चित्र खिंचवाऊँ। पर उस गांव में कोई चित्रकार नहीं था। वह अपने पोते शंकर को बहुत चाहता था, इसलिए उसके बचपन से ही वह उससे बारंबार कहता रहा कि वह चित्रकला का अभ्यास करे।
शंकर ने अपने दादा से साफ़-साफ़ कह दिया कि चित्रकला में उसकी कोई अभिरुचि नहीं है। किसी भी हालत में वह चित्रकार बनना नहीं चाहता था। अब शंकर अठारह साल की उम्र का हो गया। पर अब भी उसे चित्रकला में कोई रुचि नहीं है। जब लक्ष्मण दास सख्त बीमार पड़ गया तब उसने अपने पोते से कहा, ‘‘मैं शायद जल्दी ही मर जाऊँगा। मरने के पहले अपना चित्र बनवाने का मेरा सपना, सपना ही बनकर रह जायेगा।'' दर्द भरी आवाज़ में उसने अपना दुख व्यक्त किया।
शंकर ने ढाढ़स बंधाते हुए कहा, ‘‘मैं आपकी इच्छा पूरी करने के लिए शहर जाऊँगा और वहाँ से एक अच्छे चित्रकार को ले आऊँगा।''
पोते के आश्वासन से लक्ष्मण दास बेहद खुश हुआ। उसने अपने पोते से कहा, ‘‘तुम्हारा निर्णय सही है, पर यह जानने पर लोग हँसेंगे। इस उम्र में मेरी इस इच्छा पर ताने कसेंगे। हमारे परिवार के सदस्य होंगे, लगभग तीस लोग। उस चित्रकार से बताना कि हमारे पूरे परिवार का चित्र वह खींचे। उसमें मेरा भी चित्र होगा ही।''
शंकर शहर गया। उसने चित्रकार को सौ अशर्फ़ियाँ देने का निर्णय कर लिया था। परंतु चित्रकारों की मांग थी कि दस हज़ार अशर्फियाँ मिलने पर ही यह काम हो सकता है।

उनका कहना था कि इतने लोगों से भरे हुए चित्र को बनाने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है; हर एक का चेहरा स्पष्ट रूप से दिखे, यह कोई आसान काम नहीं है। उनकी इस मांग को सुनकर शंकर ठंढा पड़ गया। अब उसकी समझ में आया कि उसके दादा उसे चित्रकार बनने पर इतना ज़ोर क्यों दे रहे थे। उसे लगा कि इतनी बड़ी रक़म चुकाना उसके लिए संभव नहीं है। जब वह सिंहपुरी लौटने लगा तब संयोगवश उसकी मुलाक़ात कमेर से हुई।
कमेर के पास एक यंत्र था। उस यंत्र में सफेद कपड़े को रखकर मंत्रोच्चारण करते हुए जिस दृश्य को देखा जाता है, वह उस कपड़े पर तस्वीर के रूप में अंकित हो जाता है। चित्रकारों के चित्रों से भी यह स्पष्ट तथा स्वाभाविक होता है।
‘‘मैं तुम्हारी इच्छा के बारे में सुन चुका हूँ। तुम्हारे परिवार का चित्रांकन करने के लिए इस यंत्र का उपयोग करेंगे। इसके लिए मुझे बस, पचास अशर्फियॉं मात्र दो।'' कमेर ने कहा।
शंकर खुश तो हुआ, पर संदेह व्यक्त करते हुए उसने पूछा, ‘‘ऐसा यंत्र तुम्हें कहाँ से मिला?''
कमेर ने बिना सकपकाये कहा, ‘‘मेरे मामा मंत्र-तंत्रों में माहिर हैं। एक साल पहले उन्होंने इस यंत्र का निर्माण किया और मुझे दिया। अपने सब रिश्तेदारों से भरा एक चित्र भी मैंने बनाया। ‘‘देखो'' कहते हुए उसने एक छोटा-सा कपड़ा बाहर निकाला। उसपर एक ऐसा चित्र था, जिसमें बहुत लोग स्पष्ट दिखायी दे रहे थे। पर उनमें से एक आदमी ऐसा था, जिसे देखते ही हँसी फूट पड़ती थी ।
‘‘ये कौन हैं, जो इतने विकृत दिख रहे हैं?'' शंकर ने आश्र्चर्य-भरे स्वर में पूछा।
कमेर ने हँसते हुए कहा, ‘‘इनका नाम है, सुरूपी। जो भी चित्र मैं बनाता हूँ, उसमें अवश्य ही कोई न कोई ऐसा आपको देखने को मिलेगा।''
शंकर ने क्षण भर तक रुककर कहा, ‘‘मेरे दादा चाहते हैं कि उनके पूरे परिवार का एक चित्र बनवाया जाए। उनकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए मैं कोई भी त्याग करने को सन्नद्ध हूँ। मुझे तो इस बात का भय है कि कहीं मेरे बदले, मेरे दादा की तस्वीर न कहीं विकृत लगे।''
‘‘पहले ही तुम मान जाओगे तो तुम्हारी ही तस्वीर विकृत होगी।'' कमेर ने कहा।

दोनों सिंहपुरी पहुँचे। शंकर ने अपने परिवार के सब सदस्यों को यंत्र की महिमा बतायी। उस यंत्र से चित्र खिंचवाने के लिए सभी सदस्य उताबले थे। चित्र खिंचवाने वे अपने बगीचे में इकठ्ठे हुए। सबने अच्छे वस्त्र पहन रखेथे। औरतों ने तरह-तरह के आभूषणों से अपने को सजाया।
कमेर अपना यंत्र लेकर सबके सामने खड़ा हो गया। यंत्र में उसने एक धवल वस्त्र रखा। आंखें बंद करके उसने मंत्रोच्चारण किया। फिर आंखें खोलकर उसने वह वस्त्र शंकर को दिया। उसमें अपनी तस्वीर देखकर शंकर उदास हो गया। उस चित्र को देखने पर कोई क्रोधी भी ठठाकर हँस पड़ेगा। इतने में बाकी लोग भी चित्र देखने को होहल्ला मचाने लगे। शंकर ने वह चित्र उन्हें दे दिया और खुद दूर जाकर खड़ा हो गया।
कमेर ने शंकर की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अपने दादा का चित्र देखने की तुम्हारी तीव्र इच्छा थी। उनका चित्र ठीक लग रहा है न?''
‘‘मैंने उनका चित्र नहीं देखा। मेरा चित्र बिगड़ गया, इससे मेरा मन भी बिगड़ गया। अब सब लोग मेरी खिल्ली उड़ाने लगेंगे,'' शंकर ने कहा। इसपर कमेर ने ज़ोर से हँसते हुए कहा, ‘‘तुमने अपने दादा की तस्वीर के लिए बहुत बड़ा त्याग किया, पर अचरज की बात तो यह है कि तुमने उनकी तस्वीर नहीं देखी, बल्कि अपनी ही तस्वीर मात्र देखी। उधर देखो।''
शंकर ने अपने परिवार के सदस्यों की ओर देखा। अपनी अपनी तस्वीर देखते हुए वे खुश हो रहे थे। उनमें से कोई भी दूसरे की तस्वीर नहीं देख रहा था।
तब कमेर ने शंकर से कहा, ‘‘देखा, वे अगल-बगल के किसी भी व्यक्ति की तस्वीर देख नहीं रहे हैं। सबके सब अपनी तस्वीर देखने में ही लगे हुए हैं। मनुष्य की मनोदशा ऐसी ही होती है। इसलिए यह न समझना कि तुम्हारी बिगड़ी तस्वीर को देखकर वे तुम्हारी खिल्ली उड़ायेंगे। कमेर की इन बातों से शंकर की उदासी ग़ायब हो गयी। अब उसका चेहरा शांत लगने लगा। उसने कमेर को निर्धारित रक़म से अधिक रक़म दी और सहर्ष उसे बिदा किया।

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