Thursday, June 30, 2011

उन्निद्र पिशाचिनी

शिवपुर गाँव से थोड़ी दूरी पर एक जंगल हुआ करता था। उस जंगल के आरंभ में घने वृक्षों के बीच कुछ पिशाचिनियाँ वक्त गुज़ारती रहती थीं। किचकिच नामक पिशाचिनी वहाँ नयी-नयी आयी थी। उसे नींद ही नहीं आती थी। शेष पिशाचिनियाँ रात भर जाग करती थीं और दिन में घोड़े बेचकर सो जाती थीं। उसने अपना दुखड़ा किंकिणी पिशाचिनी को सुनाया।
तब किंकिणी ने उसे सलाह दी, ‘‘परेशान होने की कोई बात नहीं। सोने के लिए मेरे पास कई गुर हैं।'' फिर उसने एक गुर सुझाया। उसके मुताबिक किचकिच उल्टे लटकती रही और सोने की कोशिश की, पर कोई फायदा नहीं हुआ।
किचकिच उसके बताये अनेक उपायों को अमल में लाती रही। उसने पेड़ों के ऊपर आसमान में चक्कर लगाये। पेड़ की डालों पर झूलती रही। श्मशान घाटों पर जा-जाकर जलते मुर्दों के धुएं पीती रही। पर फिर भी उसे नींद नहीं आई। किंकिणी ने एक और गुर सुझाते हुए कहा, ‘‘दुखी मत होना। शिवपुर में रंगाचारी नामक बहुत बड़ा वैद्य है। मानव के रूप में जाओ और अपनी शिकायत उसे सुनाओ। पल भर में तुम्हारा रोग दूर हो जायेगा।''
किचकिच किसान का वेष धारण करके वैद्य के पास गयी। उसे देखते ही वैद्य ने कहा, ‘‘तुम्हारा चेहरा एकदम फीका है। बताना, तुम्हारी बीमारी आख़िर है क्या?'' किचकिच ने अपनी शिकायत सुनायी। उसने कहा, ‘‘बहुत कोशिश करने पर भी मैं सो नहीं पाती। आँखों में बहुत दर्द होता है और चक्कर आता रहता है।'' वैद्य ने दवा देकर उसे भेज दिया। पर इससे भी कोई फ़ायदा नहीं हुआ। फिर उसने किंकिणी को अपना दुखड़ा सुनाया।

फिर उसने किंकिणी को अपना दुखड़ा सुनाया। किंकिणी पिशाचिनी ने कहा, ‘‘लगता है, तुम्हारी बीमारी बहुत ही अजीब है। और उपाय बताना मेरे बस की बात नहीं है।'' उसने कई अन्य पिशाचिनियों से अपना दुख बताया और उनकी सलाह माँगी। पर किसी का उपाय काम न आया।
किचकिच बहुत व्याकुल हो गयी। जब वह अपने पेड़ के पास आयी तब उसने देखा कि अधेड़ उम्र का एक आदमी मस्त सो रहा है। उसका मन ईर्ष्या से जल उठा और उसने एक सींक उसपर फेंक दी। उस आदमी ने आँखें खोलीं तो देखा कि एक पिशाचिनी उसके सामने खड़ी है। वह चौंककर उठ बैठा। वह एक क्षण भर के लिए डर गया। इसके बाद उसके हाव-भाव को देखकर संभल गया और बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘ऐ दोस्त पिशाचिनी, मेरा नाम कन्हैया है। शिवपुर का निवासी हूँ। तुम बहुत ही दुखी लग रही हो। बताना, तुम्हारे कष्टों की क्या वजह है?'' हो सके तो मैं दूर करूँगा।''
किचकिच को लगा कि इस आदमी में उसके कष्टों को दूर करने की शक्ति है। तब उसने अपना कष्ट बताया। कन्हैया ने कहा, ‘‘कुछ दिनों के पहले मैं भी इसी प्रकार के कष्ट से गुज़रा। इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए मैं बहुत समय तक घूमता-फिरता रहा। कितने ही वैद्यों को अपना कष्ट बताया। उन्होंने जो भी दवाएँ दीं, खाता रहा। परंतु कोई फायदा नहीं हुआ। किन्तु अंत में एक संन्यासी के बताये उपाय ने कमाल कर दिखाया।


‘‘कहो कहो, वह उपाय क्या था?'' आतुरता-भरे स्वर में उसने पूछा। ‘‘दिन भर मैं गाता रहता था, रात में गाढ़ी नींद आती थी। पर गाँववाले मेरा गाना सह नहीं सके और मुझे उस गाँव से बाहर भेज दिया। आज रात को ज़ोर-ज़ोर से गाते रहना। फिर कल दिन भर मस्त सो सकती हो। तेरी क़सम, मैं सच कहता हूँ। जब तक तुम्हारा कष्ट दूर नहीं होगा, तब तक मैं यहीं रहूँगा।'' कन्हैया ने ज़ोर देते हुए कहा।
‘‘वैसा ही करूँगी, जैसा तुमने कहा।'' किचकिच ने खुश होते हुए कहा। जैसे ही सूर्यास्त हुआ और अंधेरा छा गया, किचकिच ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी। वह गाना इतना कर्णकटु था कि कन्हैया से सहा नहीं गया। उससे बचकर जाने का मार्ग उसे दिखायी नहीं पड़ा तो वह घबरा गया। उसे उन ग्रमीणों की याद आयी, जिन्होंने उसका गाना न सहन कर सकने के कारण उसे गाँव से निकाल दियाथा । उसे लगा कि बदला लेने का यह अच्छा मौक़ा है। फिर उसने किचकिच से कहा, ‘‘तुम्हारा स्वर कितना मधुर है। अपने इस मधुर स्वर को शिवपुर के ग्रमीणों को सुनाना। पेड़ पत्तों को गाना सुनाने के बदले मनुष्यों को सुनाओगी तो फल दुगुना होगा।''
दूसरे ही क्षण, किचकिच हवा में उड़ती हुई शिवपुर पहुँची। अपना गला साफ़ करती हुई गाने लगी। उस आवाज़ को सुनकर ग्रमीणों को लगा कि कहीं बिजली गिरी है। वे तुरंत बाहर आये तो उन्होंने देखा कि एक पिशाचिनी हवा में उड़ती हुई गा रही है। भय के मारे वे घर के अंदर भागे और दरवाज़ा बंद कर लिया।

रात भर किचकिच गाती रही और गाँव भर में चक्कर काटती रही। सवेरे वह जंगल लौटी और मस्त सो गयी। शाम को जब वह जागी तो पेड़ के ही नीचे बैठे कन्हैया के पास आयी। उसने कहा, ‘‘बहुत दिनों के बाद मैं खूब सोयी। तुम्हारा ऋण चुकाकर ही रहूँगी।'' यों कहकर वह ग़ायब हो गयी और क्षण भर में एक गठरी ले आयी।
गठरी को खोलकर कन्हैया ने देखा तो उसमें सोने की अशर्फियाँ, सोने के आभूषण भरे हुए थे। उसने वह गठरी ले ली और पिशाचिन को प्रणाम करके वहाँ से निकल पड़ा।
दिन भर किचकिच सोती रही, इसलिए रात भर उसने बड़े आनंद से समय बिताया। फिर सवेरा होते ही वह निद्रा की गोद में चली गयी। दूसरे दिन रात को उसे पता नहीं क्यों, गाने के लिए उसकी इच्छा नहीं हुई। पिशाचिनियों के साथ वह खेलती-कूदती रही।
पिशाचिनी के दिये धन को लेकर कन्हैया घर पहुँचा। उस क्षण से वह सो नहीं पाया। उसके मन में किसी व्याकुलता ने घर कर लिया। साथ ही, लगातार दो रातों तक किचकिच के न आने पर, उसे ढूँढ़ते हुए जंगल गया। उस समय पेड़ पर बैठकर किचकिच जंभाई ले रही थी। उसने उसे जगाया और पूछा, ‘‘दो रातों तक तुम गाने गाँव में क्यों नहीं आयी?''
‘‘आने की ज़रूरत नहीं पड़ी। अब मेरी समझ में आ गया है कि नींद मुझ से क्यों दूर भागती रही। मैं आज तक अपने पेड़ के कोटर में जो धन था, उसकी रखवाली करती रही। दुर्घटना के कारण मेरी आकस्मिक मृत्यु हुई और पिशाचिनी बन गयी। अपना धन अपने साथ ले आयी और उसे कोटर में छिपाकर उसकी रक्षा करती रही। जब तक पाप से भरी यह संपत्ति मेरे पास थी, तब तक मैं सो नहीं पायी। तुम्हें इसे सौंपने के बाद अब आराम से, पैर फैलाकर सो रही हूँ।'' कहते हुए जोर की जंभाई लेते हुए वह लेट गयी।
कन्हैया की समझ में अब आया कि उसकी अशांति और व्याकुलता का क्या कारण है। पिशाचिनी के दिये धन को उसने दान में दे दिया। अब दिन भर वह मेहनत करने लगा और रात भर निश्चिंत होकर चैन की नींद सोने लगा।


No comments:

Post a Comment