
वैजयंती उज्जैन के राजा नरेंद्र की इकलौती पुत्री थी। उसके बचपन में ही उसकी माँ की मृत्यु हो गयी, इसलिए उसके पिता ने उसे बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा। राजोचित विद्याएँ सिखलायीं। जब वह बालिग हो गयी, तब राजा उसके विवाह को लेकर गंभीर रूप से सोचने लगे।
वैजयंती एक दिन अपनी सहेलियों के साथ पहाड़ पर स्थित राजेश्वरी मंदिर गयी। सहेलियाँ जब बाहर थीं तब उसने अकेले ही देवी के दर्शन किये और यथावत् पहाड़ के पीछे की ओर गयी।
उसने वहाँ देखा कि एक युवक एक पत्थर पर नर्तकी के शिल्प को तराश रहा है। युवरानी इस शिल्प को लगातार देखती रही और ध्यान मग्न शिल्पी को देखकर खुश हुई। उससे चुप रहा नहीं गया। ‘‘अद्भुत शिल्प है। बड़ा ही सुंदर है।'' कहती हुई वह शिल्पी के पास गयी।
युवक ने उसकी बातें सुनकर सिर उठाकर देखा। ‘‘मैं युवरानी वैजयंती हूँ,'' अपना परिचय देते हुए उसने कहा। ‘‘प्रणाम। मेरा नाम विशाल है,'' युवक ने विनयपूर्वक कहा।
‘‘तुम्हारा शिल्प नैपुण्य बहुत ही अद्भुत है। तुमसे अपनी प्रतिमा बनवाना चाहती हूँ।'' वैजयंती ने अपनी इच्छा प्रकट की।
‘‘इस अवसर को अपना भाग्य समझता हूँ। संगमरमर में आप की सुन्दर प्रतिमा बनाऊँगा। कम से कम एक महीना लगेगा। इसके लिए हर हफ्ते आपको मेरे सामने एक घंटे तक खड़ा रहना पड़ेगा।'' विशाल ने कहा।
‘‘इसमें इतनी देरी क्यों? जल्दी ही शुरू कर दो। परंतु एक शर्त है। इस विषय को जब तक मैं न कहूँ, तब तक किसी को मालूम होना नहीं चाहिये। तुम्हें इस बात को पोशीदा रखना होगा।'' वैजयंती ने उत्साह भरे स्वर में शिल्पी से कहा।
दूसरे दिन सवेरे वैजयंती अपने उद्यानवन में विचरण कर रही थी। संपूर्ण रूप से खिले एक गुलाब पुष्प को जब वह तोड़ने ही जा रही थीतभी उसे सुनाई पड़ा, ‘‘आपका सौंदर्य अद्भुत है युवरानी।'' उसने मुड़कर देखा कि एक क्षत्रिय युवक वहाँ खड़ा है। तब वैजयंती को कल रात पिता की कही बात याद आयी, ‘‘सालमेर के युवराज आज हमारे अतिथि बनकर आ रहे हैं।''
![]() ‘‘हर शुक्रवार को राजेश्वरी देवी के दर्शन करने यहाँ आती हूँ। दर्शन के बाद, नीचे उतरकर चली आऊँगी,'' वैजंयती ने कहा। फिर सहेलियों के साथ महल लौट गई। महल लौटते समय वह शिल्प और शिल्पी की कल्पनाओं में खोई रही। वह रास्ते भर विशाल की व्यवहार कुशलता, उसका माधुर्य, उसके शिल्प की प्रवीणता के बारे में सोचती रही। अगले शुक्रवार को वैजयंती ने देवी के दर्शन किये और वहाँ से उतरकर विशाल के घर के पास आ गयी। उस समय विशाल एक टीले पर एक संगमरमर की शिला को खड़ा करने का प्रयत्न कर रहा था। उसे देखते ही उसने कहा, ‘‘पधारिये, आप ही का इंतज़ार कर रहा हूँ।'' यों उसने सादर युवरानी का स्वागत किया। फिर इसके बाद विशाल के कहे अनुसार एक पेड़ से सटकर खड़ी हो गयी। विशाल ने तब एकाग्रता के साथ उसका रेखा-चित्र खींचा। विशाल ने बाद में कहा, ‘‘यहाँ बैठ जाइये।'' उसी समय उसकी दादी एक अलग प्रकार का पकवान बनाकर ले आयी। वैजयंती ने ऐसा पकवान इसके पहले कभी नहीं खायाथा । वह उसे बहुत अच्छा लगा और उसने दादी की खूब तारीफ की और कहा, ‘‘आगे से तुम्हें पकवानवाली दादी कहकर पुकारूँगी। ठीक है न?'' ‘‘हम जैसे ग़रीबों के घर आयीं और अपार प्यार दिखाया। इससे बढ़कर हम जैसों को और क्या चाहिये?'' दादी ने कहा। विशाल ने प्रतिमा को तराशने में विशेष रुचि दिखायी, जिसके कारण तीन हफ्तों में ही वह काम ख़त्म हो गया। वैजयंती एक दिन अपनी प्रतिमा को देखने आयी। तब विशाल ने कहा, ‘‘इसे अंतिम रूप देने में तीन-चार दिन और लगेंगे। तब आप इसे ले जा सकती हैं।'' वैजयंती ने अपनी प्रतिमा को बड़े ध्यान से देखा और संतुष्ट और प्रसन्न होकर लौटी। |
‘‘आपका स्वागत है युवराज। हमें आपको देखकर बड़ी खुशी हुई।'' कहती हुई उसने माली को बुलाया और युवराज को उद्यानवन दिखाने का आदेश दिया। फिर वह अंतःपुर चली गयी।
उस दिन रात को पिता नरेंद्र ने वैजयंती से कहा, ‘‘बेटी, जयंत को तुम बहुत पसंद आयी हो। तुम्हें देखते ही उन्होंने तुमसे विवाह करने का निर्णय ले लिया। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें देखने के लिए वे अपने माता-पिता को शीघ्र ही भेजेंगे। तुम्हारा क्या अभिप्राय है पुत्री?''
‘‘विवाह का स्थान जीवन में बहुत ही प्रधान होता है। इसका निर्णय करने से पूर्व खूब सोच विचार कर लेना चाहिये। अभी न मैं युवराज के बारे में कुछ जानती हूँ, न युवराज ही मेरे विचारों व भावनाओं के बारे में जानते हैं। हमें किसी ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिये जब परिस्थिति स्वयं एक दूसरे के स्वभाव को स्पष्ट कर दे। विवाह जैसे सम्बन्ध के पहले एक दूसरे को जानना आवश्यक है। मुझे भी सोचने का मौक़ा दीजिये।'' वैजयंती ने कहा।
दूसरे दिन प्रातःकाल ही एक सहेली दौड़ती हुई आयी और कहने लगी, ‘‘युवरानी, आपसे मिलने एक बूढ़ी आयी है। कहती है कि उसका नाम पकवानवाली दादी है।''
वैजयंती ने उसे अंदर ले आने की आज्ञा दी। जैसे ही वह आयी, वैजंयती उसे अंदर ले गयी और पूछा, ‘‘तुम्हारी आँखों में ये आँसू कैसे? दादी, कहना, बात क्या है?''
दादी ने सविस्तार वह विषय बताया, जो पिछले दिन की शाम को घटा।
सालमेर का युवराज जयंत परिवार सहित जब लौट रहे थे तब पीने के पानी के लिए उसके घर के सामने रुके। विशाल की दादी ने पीने के लिए सबको छाछ दिया। वहाँ से निकल जाने के पहले उसकी नज़र वैजयन्ती की प्रतिमा पर पड़ गई।
उसे देखते ही वह एकदम नाराज़ हो उठा और अपनी तलवार से प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । ‘‘इस जयंत की होनेवाली पत्नी के शिल्प को यहाँ रखने का इतना साहस किस द्रोही ने किया?'' गरजते हुए उसने पूछा।

‘‘मैंने ही इस शिल्प को तराशा है,'' विशाल ने विनयपूर्वक कहा।
‘‘युवरानी को तुमने कब, कहाँ देखा?'' जयंत ने पूछा। विशाल चुप रहा। उसने कुछ भी नहीं बताया।
जयंत ने मुड़कर अपने अंगरक्षक को देखा। दूसरे ही क्षण वह विशाल को कोड़े से मारने लगा। फिर भी विशाल चुप ही रहा। जयंत क्रोधित हो उठा और शिल्प को टुकड़ों में तोड़कर कहा, इस दुष्ट को इसी घर में बंदी बनाकर रखो। और इसका भोजन-पानी बन्द कर दो। उसने यह आज्ञा देकर दो सैनिकों को उसपर निगरानी रखने के लिए तैनात किया। बेचारी बूढ़ी उसके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाती रही, पर उसने एक न सुनी। फिर घोड़े पर सवार होकर चला गया।
विशाल की दादी यह समाचार सुनाकर फूट-फूट कर रोने लगी और वैजयन्ती के पाँव पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘मेरे बच्चे की रक्षा करो, राजकुमारी। मेरे बेटे का क्या कसूर है जिसके लिए उसे इतनी भारी सजा मिल रही है।'' वैजयंती ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘तुम डरो मत। विशाल को कोई छू भी नहीं सकता।'' उसी समय उसके पिता राजा बेटी से मिलने वहाँ आये।
वैजयंती ने पूरा वृत्तांत पिता को सुनाया और कहा, ‘‘आपकी जानकारी के बिना मैंने यह काम किया, इसके लिए मुझे माफ़ कीजिये। जन्म-दिन पर आपको आश्चर्य में डालने के उद्देश्य से मैंने यह किया और इस विषय को गोपनीय रखा। उस शिल्प को वहाँ देखकर यह जाने बिना वह शिल्प वहाँ क्यों है, जयंत क्रोधित हो उठा। हमारे ही राज्य के एक नागरिक को कठोर दंड दियाजो उसकी अधिकार सीमा से बाहर है। उसके व्यवहार से यह स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है कि उसमें आवश्यकता से अधिक दम्भ और स्वार्थ है। उसमें राजकीय उच्च कुल के परिस्कृत संस्कार का अभाव है। वह उद्दण्ड और क्रूर है। उसमें चिन्तन शक्ति का अभाव है। वह अशान्त और उग्र है।
उसे देखते ही वह एकदम नाराज़ हो उठा और अपनी तलवार से प्रतिमा के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । ‘‘इस जयंत की होनेवाली पत्नी के शिल्प को यहाँ रखने का इतना साहस किस द्रोही ने किया?'' गरजते हुए उसने पूछा।

‘‘मैंने ही इस शिल्प को तराशा है,'' विशाल ने विनयपूर्वक कहा।
‘‘युवरानी को तुमने कब, कहाँ देखा?'' जयंत ने पूछा। विशाल चुप रहा। उसने कुछ भी नहीं बताया।
जयंत ने मुड़कर अपने अंगरक्षक को देखा। दूसरे ही क्षण वह विशाल को कोड़े से मारने लगा। फिर भी विशाल चुप ही रहा। जयंत क्रोधित हो उठा और शिल्प को टुकड़ों में तोड़कर कहा, इस दुष्ट को इसी घर में बंदी बनाकर रखो। और इसका भोजन-पानी बन्द कर दो। उसने यह आज्ञा देकर दो सैनिकों को उसपर निगरानी रखने के लिए तैनात किया। बेचारी बूढ़ी उसके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाती रही, पर उसने एक न सुनी। फिर घोड़े पर सवार होकर चला गया।
विशाल की दादी यह समाचार सुनाकर फूट-फूट कर रोने लगी और वैजयन्ती के पाँव पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘मेरे बच्चे की रक्षा करो, राजकुमारी। मेरे बेटे का क्या कसूर है जिसके लिए उसे इतनी भारी सजा मिल रही है।'' वैजयंती ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘तुम डरो मत। विशाल को कोई छू भी नहीं सकता।'' उसी समय उसके पिता राजा बेटी से मिलने वहाँ आये।
वैजयंती ने पूरा वृत्तांत पिता को सुनाया और कहा, ‘‘आपकी जानकारी के बिना मैंने यह काम किया, इसके लिए मुझे माफ़ कीजिये। जन्म-दिन पर आपको आश्चर्य में डालने के उद्देश्य से मैंने यह किया और इस विषय को गोपनीय रखा। उस शिल्प को वहाँ देखकर यह जाने बिना वह शिल्प वहाँ क्यों है, जयंत क्रोधित हो उठा। हमारे ही राज्य के एक नागरिक को कठोर दंड दियाजो उसकी अधिकार सीमा से बाहर है। उसके व्यवहार से यह स्पष्ट रूप से मालूम हो जाता है कि उसमें आवश्यकता से अधिक दम्भ और स्वार्थ है। उसमें राजकीय उच्च कुल के परिस्कृत संस्कार का अभाव है। वह उद्दण्ड और क्रूर है। उसमें चिन्तन शक्ति का अभाव है। वह अशान्त और उग्र है।
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