Thursday, June 30, 2011

पन्ना दाई का अनुपम त्याग

लगभग पाँच सौ साल पहले राणा संग्रम सिंह ने राजस्थान के मेवाड़ पर शासन किया। वे अपने धैर्य, साहस व धर्मनिष्ठ शासन के लिए सुप्रसिद्ध थे। उनका नाम सुनते ही प्रजा उनके प्रति आदर भाव दर्शाती थी।
बाबर ने भारत पर हमला किया और 1526 अप्रैल 1 को प्रथम पानीपत युद्ध में इब्राहिम लोदी को हरायातथा दिल्ली और आगरा को भी अपने अधीन करके उन्होंने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। फिर उसकी दृष्टि राजस्थान पर पड़ी।
राजपूत सैनिकों ने जमकर मुग़ल सैनिकों के साथ लड़ाई लड़ी। उनकी बहादुरी और साहस बहुत ही प्रशंसनीय था। किन्तु अपनी ही सेना के दलनायक के द्रोह के कारण राणा संग्रम को पास ही के पर्वतों में जाकर छिप जाना पड़ा। किसी भी हालत में वे मुग़ल सेना को हराना चाहते थे, उन्होंने इसके लिए भरसक प्रयत्न किये। पर 1527 में राणा की मृत्यु हो गई। इसके बाद बाबर ने सोचा कि राजपूत वीरों को और सताना उचित नहीं होगा, इसलिए वे दिल्ली चले गये। बाबर को इस बात का डर भी था कि राजपूत योद्धाओं से और लड़ने से उसे ही नुकसान होगा और उसके कितने ही सैनिक मारे भी जायेंगे।
राणा संग्रम सिंह का ज्येष्ठ पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का राजा बना। किन्तु पड़ोसी राज्य के युवराज से जो लड़ाई हुई, उसमें वह मारा गया। तब उसका छोटा भाई विक्रमजीत सिंहासन पर आसीन हुआ।
वह दुरहंकारी और विनोद प्रिय था। जनता के क्षेम के विषय में वह सोचता ही नहीं था। वह सदा मल्ल युद्धों तथा अन्य क्रीड़ाओं में ही दिलचस्पी लेता था। सामंतों व प्रमुखों की इज्ज़त करता नहीं था। इस वजह से मेवाड़ में अराजक परिस्थितियाँ उत्प हो गयीं। इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए गुजरात सुल्तान बहादुरशाह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को घेर लिया।


राजपूत योद्धाओं ने डटकर सामना किया, पर जीतने की आशा न थी । इस संकटपूर्ण स्थिति से बचने की कोई उम्मीद नहीं रही। अतः चित्तौड़ के किले की चौदह हज़ार स्त्रियों ने चिता जलाकर उसमें साहसपूर्वक प्रवेश करके प्राण त्याग दिये।
इस वीरोचित कार्य को करवाया, राणा संग्रमसिंह की वीर पत्नी ने, जो युवराज उदय सिंह की माँ रानी कर्नावती थी। उदयसिंह उस समय शिशु था। पिता की मृत्यु के बाद उसका जन्म हुआ। शत्रुओं से बचाने के लिए उदयसिंह सुरक्षित स्थान में भेज दिया गया। इसके उपरांत यद्यपि मुगलों ने विक्रमजीत को सिंहासन सौंपा पर प्रजा उसके दुःशासन को सह नहीं पायी।
सिंहासन का वारिस उदयसिंह जब तक बालिग़ न हो, तब तक शासन का भार कौन संभाले? राजपूत प्रमुखों ने चाहा कि राणा संग्रमसिंह के भाई पृथ्वीराज का बेटा बनवीर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले। उसने प्रमुखों की सलाह को स्वीकार किया।
शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के बाद बनवीर में दुराशा जगी कि वही भविष्य में भी राजा बना रहे। इसके लिए उसने राजा संग्रहसिंह के दोनों पुत्रों को मार डालना चाहा। प्रजा की घृणा व द्वेष का शिकार बनकर जब विक्रमजीत भाग रहा था तब बनवीर ने उसे मार डाला। अब शिशु उदयसिंह मात्र जीवित था। उस शिशु का भी अंत करने के लिए क्रूर, दुष्ट बनवीर ने एक व्यूह रचा।
प्रशांत रात थी। चित्तौड़ किले के अंतःपुर से मधुर लोरी सुनायी दे रही थी। पा दाई सोये हुए राजकुमार का पालना हिलाती हुई लोरी गा रही थी। उसका भी अपना एक शिशु था, जो राजकुमार की उम्र का ही था।
आधी रात के समय एक नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और पा के कानों में कुछ कहा। उसकी बातें सुनते ही पा दाई का चेहरा फीका पड़ गया।


वह एकदम घबरा गयी। उसने तुरंत अपने बेटे को पालने में लिटाया। पालने में सोये राजकुमार के आभूषणों व वस्त्रों को अपने बच्चे को पहनाया। भवन के रसोइये को बुलाया और उससे फलों की टोकरी ले आने को कहा। राजकुमार को बड़ी ही सावधानी से उस टोकरी में सुलाया और उस टोकरी को पत्तों से ढक दिया। रसोइये से उसने विनती की कि वह शिशु को क़िले से बाहर ले जाए।
थोड़ी देर बार दुष्ट राज प्रतिनिधि बनवीर वहाँ आया। उसने शिशु के शरीर में तलवार भोंकी और उसे सदा के लिए सुला दिया। बिना विलंब किये वह तेज़ी से वहाँ से चला गया। युवराज को मरा समझकर राजा के परिवारवाले ज़ोर-ज़ोर से रोने बिलखने लगे। किन्तु ऐसी स्थिति में भी पा दाई ने पुत्र शोक को निगल डाला और राजभवन से तुरंत बाहर आयी।
जब वह नदी के तट पर पहुँची तब विश्वासपात्र रसोइया टोकरी सहित पा की प्रतीक्षा कर रहा था। अच्छा हुआ, शिशु अब भी सोया हुआ था। वे तुरंत डोला गये और युवराज के लिए आश्रय माँगा। युवराज के प्रति यद्यपि सहानुभूति थी, पर दुष्ट बनवीर से वे डरते थे, इसलिए उन्होंने आश्रय देने से इनकार किया। वहाँ के शासक ने अपनी असहायता जताते हुए उन्हें वहाँ से भेज दिया।
किसान औरत के वेष में शिशु को लेकर रसोइये के साथ वह डोंगरपुर जाने निकली। आशा-निराशा के बीच परेशान वह पर्वत पर के भवन में पहुँची। किन्तु वहाँ भी उसे निराश होना पड़ा। सामंत राजा रावल अयुस्कुर्न ने भी उन्हें वहाँ से भेज दिया, क्योंकि वह भी निर्दयी व क्रूर बनवीर से डरता था।
मेवाड़ के भविष्य के राजा को बचाने के लिए पा ने हर प्रकार का प्रयत्न किया। उसका एकमात्र लक्ष्य था, युवराज की रक्षा करना। इसके लिए उसने सब प्रकार के कष्ट सहे। वह पर्वतों व जंगलों को पार करती हुई अरावली पर्वत श्रेणियों में स्थित कोमुल्मेर की ओर जाने लगी। रसोइया अकस्मात् बीमार पड़ गया। स्थानीय दयालु भीलों ने रसोइये की सहायता करने का वचन दिया और पा को रास्ता दिखाया।
सवेरे-सवेरे छोटे-से पर्वत पर कोमुल्मेर का राजभवन बादल महल जब पा को दिखायी पड़ा, तब उसमें नयी आशाएँ पैदा हुईं। राजा अत्सासाह ने उसपर दया दिखायी और उसका आदर किया। पा ने चित्तोड़ की दुर्गति का वर्णन किया और कहा, ‘‘इस शिशु राजकुमार को सुरक्षित इस स्थल पर आश्रय देंगे तो मेरा मन शांत होगा''।

उस समय उसकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। अत्सासाह कुछ बता नहीं पाये। वे किसी निर्णय पर नहीं आ पा रहे थे। तब उसकी माँ ने अपने बेटे से कहा, ‘‘इसको लेकर इतना क्यों सोच रहे हो? यह शिशु राणा संग्रमसिंह का पुत्र है। जिनमें राजा के प्रति विश्वास और प्रेम है, उन्हें डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे सामने जो पा खड़ी है, वह एक साधारण दाई है। उसने जो अद्वितीय त्याग और असमान धैर्य दिखाया और जो कठोर कष्ट सहे, उन्हें जानने के बाद भी इतना संकोच क्यों कर रहे हो? यह दुविधा कैसी?''
तब राजा ने शिशु को अपने हाथ में लिया और आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘इस शिशु राजकुमार की रक्षा का भार मुझ पर है। तुम निश्चिंत जा सकती हो।''
इस आश्वासन से पा के चेहरे पर खुशी छा गयी। उसका अशांत मन शांत हुआ। उसने शिशु को एक बार अपने हाथों में लिया, हृदय से लगाया और फिर से राजा को सौंपा। आँसू भरे नयनों से उसने एक और बार राजा को प्रणाम किया। शिशु की माँ रानी को उसने वचन दिया था कि वह हर हालत में राजकुमार की रक्षा करेगी। उसने वह वचन निभाया। इसी तृप्ति को लेकर वह भवन से बाहर आयी।
सात साल गुज़र गये। अत्सासाह का बेटा भी उदयसिंह की उम्र का ही था। दोनों साथ-साथ पलने लगे। अत्सासाह का मित्र एक राजपूत प्रमुख उसके राजभवन में अतिथि बनकर आये। उदयसिंह को देखते ही चकित होकर उसने पूछा, ‘‘यह राजकुमार कौन है?'' अत्सासाह को सच बताना पड़्रा। राजपूत प्रमुख ने उदयसिंह को नमस्कार किया। बहुत ही कम अवधि में ही सबको यह बात मालूम हो गयी। मेवाड़ के प्रमुखों और आसपास के नेताओं ने न्यायबद्ध युवराज को अपना समर्थन जताया।
अति दुष्ट और दुरहंकारी बनवीर के प्रति प्रजा में तीव्र विरोध शुरू हो गया। छोटे युवराज के नेतृत्व में बड़ी सेना ने चित्तौड़ के किले को घेर लिया। बनवीर की सेना उनका सामना नहीं कर सकी। बनवीर डर के मारे भाग गया। जनता के आनंद व उत्साह के बीच राणा उदयसिंह 1587 में मेवाड़ सिंहासन पर आसीन हुए।




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