
महेंद्रपुरी राज्य में सर्पवर नामक एक गाँव हुआ करता था। उस गाँव में सांबशिव नामक एक सँपेरा रहा करता था। वह साँपों को बड़ी चालाकी से पकड़ता था और उनके विष उगलवाता था। साँप की डसन की चिकित्सा भी करता था। वह इसके लिए मशहूर भी था।
लंबे अर्से के बाद उसका एक बेटा हुआ। उसने बेटे का नाम नागराज रखा और बड़े लाड़-प्यार से उसकी परवरिश करने लगा। सांबशिव की पत्नी को जन्म-कुंडलियों पर अटूट विश्वास था। उसने एक बार एक प्रसिद्ध ज्योतिषी को बेटे की जन्म कुंडली दिखायी।
ज्योतिषी ने नागराज की जन्म-कुंडली बड़े ही ध्यान से देखी और चकित होकर सांबशिव दंपति से कहा, ‘‘अरे वाह, बड़ी ही विचित्र बात है। तुम्हारा बेटा राजा बनेगा। इसके भाग्य में राजयोग है।''
‘‘मेरा बेटा राजा बनेगा! हँसी-मज़ाक छोड़िये। असली विषय बताइये।'' सांबशिव ने कहा।
‘‘हँसी-मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। सच ही बता रहा हूँ। तुम्हारा बेटा जब राजा बनेगा तब मुझे भूलना मत,'' ज्योतिषी ने जन्म-कुंडली उसके हाथ में थमाते हुए कहा।
सांबशिव में, ज्योतिषी की बातों पर विश्वास पैदा हो गया। उसने सोचा कि बेटा अगर राजा बनेगा तो उसका अनपढ़ होना अच्छा नहीं होगा। उसने उसे पाठशाला में भर्ती करवाया।
अब नागराज दस साल का हो गया। पिता की ही तरह साँपों को पकड़ने में वह माहिर हो गया। पढ़ने-लिखने में भी वह बड़ा ही तेज़ था। दूसरे लड़के उसकी बराबरी नहीं कर पाते थे। उसके सहपाठी उससे ईर्ष्या करते थे, क्योंकि वह उनसे अधिक अ़क्लमंद था। इसलिए वे उसके राजयोग पर ताने कसते थे और उसे संपेरा राजा कहते हुए उसकी खिल्ली उड़ाते रहते थे।
नागराज के यौवन में प्रवेश करते-करते सांबशिव ने बुढ़ापे में क़दम रखा। तब तक नागराज ने सर्पों के बारे में सब कुछ जान लिया। साँप के डंक के लिए वह जो दवा देता था, वह अचूक होता था। सांबशिव को बड़ी आशा थी कि मरने से पहले बेटे को राजगद्दी पर आसीन देखूँ । परंतु वह दिन आया ही नहीं। नागराज की शादी की उम्र भी हो गयी। परंतु सांबशिव तुरंत उसकी शादी कर देने के पक्ष में नहीं था। वह चाहता था कि राजा बनने के बाद ठाठ-बाट से उसकी शादी कराऊँ और यह भव्य दृश्य देखकर धन्य हो जाऊँ। ज्योतिषी से वह फिर से इसके बारे में जानकारी पाना चाहता था, पर एक साल पहले उसकी मृत्यु हो चुकी थी।
दूसरे ही क्षण राजकुमारी जब जागी तो उसने नागराज से यह विषय जाना और उसके साहस की भरपूर प्रशंसा की। क्षणों में यह बात महाराज तक पहुँच गयी। महाराज विजयवर्धन ने बड़े ही प्यार से नागराज को गले से लगाते हुए कहा, ‘‘बेटे, मेरी इकलौती बेटी को तुमने प्राण भिक्षा दी।'' फिर उसने सविस्तार उससे बताया कि किन कारणों से उसने अपनी बेटी की शादी उससे करायी।

इतने में एक आकस्मिक घटना घटी। राजा का एक घुड़सवार सैनिक जब सर्पवर की गली से गुज़र रहा था, तब नागराज उसके सामने आया। सैनिक ने गरजते हुए उससे कहा, ‘‘कौन हो तुम? बुद्धिहीन हो या घमंडी? हटो मेरे सामने से।''
उसकी बातें सुनकर एक ग्रमीण ने सैनिक से कहा, ‘‘हमारे नागराज से इज्ज़त के साथ पेश आना। वह होनेवाला राजा है।''
सैनिक ने चकित होकर उन दोनों को देखा और वहाँ से चला गया। पर, एक हफ्ते के बाद कुछ सैनिक गाँव में आये और नागराज को अपने साथ लेकर महाराज विजयवर्धन के पास ले गये।
इस बात को लेकर गाँव में तरह-तरह की अफवाहें उड़ीं। एक ने कहा, ‘‘अगर राजा को मालूम हो जाए कि हम इसे होनेवाला राजा कहते रहते हैं तो वे क्या चुप रहेंगे? इसका सिर धड़ से अलग करने के लिए ही बुलवाया होगा।''
यह सुनते ही सांबशिव डर के मारे कांप उठा। वह निराश हो गया और ज्योतिषी की भविष्य वाणी पर से उसका विश्वास उठ गया। वह काली माता के मंदिर गया और हाथ जोड़कर कहा, ‘‘माते, मेरा बेटा राजा न भी बने, तो भी कोई बात नहीं। बस, उसे कोई हानि न पहुँचे, इसका ख्याल रखना।''
परंतु, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे, राजा विजयवर्धन ने घोषणा की कि नागराज का विवाह उसकी बेटी नागमोबा से होगी। यह सुनकर राज्य के सभी लोग आश्चर्य प्रकट करने लगे और कहने लगे कि एक सँपेरे से राजकुमारी का विवाह!
सांबशिव की खुशी का ठिकाना न रहा। उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ कि ज्योतिषी की वाणी जैसे सचमुच असलियत में बदल गई। सर्पवर गाँव के वासी भी बड़े प्रसन्न हुए और अपने को धन्य मानने लगे कि उन्हीं का एक साथी उनका राजा बनेगा।
एक महीने के अंदर ही राजकुमारी नागमोबा का विवाह बहुत बड़े पैमाने पर नागराज से संपन्न हुआ। नागराज के माता-पिता का भव्य स्वागत हुआ और उनका सम्मान भी।
एक दिन रात को जब नागराज, राजकुमारी के साथ शय्या पर सोया हुआ था तब उसने साँप की फूफकार सुनी। उसने तुरंत आँखें खोली तो देखा कि एक सर्प फन फैलाये राजकुमारी की ओर बढ़ता चला आ रहा है। नागराज फ़ौरन शय्या से उतरा और सर्प की पूँछ पकड़कर उसे घुमाते हुए ज़मीन पर पटक दिया। सर्प छटपटाता हुआ मर गया।

विजवर्धन के दादा अजयवर्धन ने दीर्घ काल तक शासन-भार संभाला। बुढ़ापे में उसने बेटे जयवर्धन का राज्याभिषेक किया और शेष जीवन में दैव पूजा में लीन होने के लिए अरण्य में स्थित एक मुनि के आश्रम में रहने लगा।

इसके कुछ दिनों के बाद, जयवर्धन आखेट करने जंगल गया। वहाँ विषैले साँप के डसने से उसकी मृत्यु हो गयी। तब विजयवर्धन महेंद्रपुरी का राजा बना। राजा होने के छे सालों के बाद रानी ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। अरण्य में स्थित् मुनि आश्रम में रहनेवाले कन्या के दादा से आशीर्वाद पाने विजयवर्धन वहाँ गया।
अजयवर्धन पोती को देखते ही चौंक उठा। आँखें बंद करके थोड़ी देर तक वह ध्यान में निमग्न रहा, फिर आँखें खोलकर विजयवर्धन से कहा, ‘‘तुम्हारे पिता जिस प्रकार सर्प के डसने से मर गये, उसी प्रकार तुम्हारी पुत्री को भी सर्प का ख़तरा है। इस शिशु का नाम नागमोबा रखो और हर दिन श्रद्धापूर्वक नाग देवताओं की पूजा करते रहो। खतरा टल जायेगा और भला होगा। यही नहीं, बड़ी हो जाने के बाद इसके विवाह और पति के चयन के विषय में सावधानी बरतना, जल्दबाज़ी मत करना। उसके पति का साहसी, पराक्रमी और निडर होना बहुत ही ज़रूरी है।''
राजकुमारी जब बालिग़ हुई, विजयवर्धन सर्प के ख़तरे के बारे में सोचता रहा और विवाह के प्रयत्नों में भी लगा रहा। ऐसे समय पर सैनिक ने आकर कहा कि ग्रामीण नागराज को होनेवाले राजा कहते हैं। राजा ने फ़ौरन नागराज को बुलवाया और उसके बारे में जानकारी प्राप्त की। राजकुमारी नागमोबा की जन्म-कुंडली और नागराज की जन्म-कुंडली बिलकुल ही मिलती जुलती थी। राजा को यह भी मालूम हुआ कि नागराज साँपों को पकड़ने में दक्ष है और उनकी डसन की चिकित्सा करने में भी प्रवीण है। सब कुछ दैव संकल्प मानते हुए राजा विजयवर्धन ने, नागराज से अपनी बेटी का विवाह रचाया।
वृद्ध होने पर के बाद विजयवर्धन ने नागराज का नाम नागराजवर्धन रखा और उसका राज्याभिषेक किया। परंतु, सर्पवर के ग्रामीण उसे प्यार से सँपेरा राजा ही कहकर पुकारते रहे ।

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