Thursday, June 30, 2011

साहसी युवक

राजा विजयेंद्र, सिंधु नदी प्रांत के महेंद्रपुरी नामक राज्य का शासक था। उस समय, उत्तरी प्रांत के पर्वतारण्यों से हूण नामक असम्भ जातियाँ महेंद्रपुरी पर आक्रमण करती रहती थीं।
विजयेंद्रवर्मा ऐसे युवकों को ही अपनी सेना में भर्ती करते थे, जो पराक्रमी व साहसी ही नहीं, बल्कि राज्य की रक्षा के लिए अपनी जान भी निछावर करने को सन्नद्ध हों परंतु भर्ती करने के पहले उनके प्रधान मंत्री उन युवकों के पराक्रम और साहस की परीक्षा लेते थे।
एक दिन बीस साल की उम्र का एक युवक राजा के दर्शन करने आया। उसके विचित्र हाव-भावों को देखकर उसका मज़ाक उड़ाते हुए पहरेदारों ने उससे पूछा, ‘‘महाराज से तुम्हारा क्या काम है?'' वह युवक भांप गया कि पहरेदार उसका मज़ाक क्यों उड़ा रहे हैं। उसने नाराज़ होते हुए कहा, ‘‘मेरी बायीं तरफ़ की मूंछ से दायीं तरफ़ की मूंछ छोटी है, इसीलिए तुम लोग हँस रहे हो न? इसके पीछे बड़ी ही साहसपूर्ण कहानी है।'' इस पर पहरेदारों ने ठठाकर हँसते हुए कहा, ‘‘कहो तो सही, वह कहानी क्या है?''
युवक ने कमर में लटकती हुई तलवार की मूठ पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘हर ऐरे-ग़ैरे को यह कहानी सुनायी नहीं जा सकती। इसे सुनने के योग्य केवल महाराज या प्रधानमंत्री हैं। मुझे आगे जाने दोगे या नहीं,'' कहते हुए उसने म्यान से तलवार निकाली।
पहरेदार स्तब्ध रह गये। उन्होंने एक पहरेदार को यह खबर सुनाने प्रधान मंत्री के पास भेजा। मंत्री ने उस युवक को अपने पास बुलाया।
निर्भय होकर मंत्री को देखते हुए उस युवक ने पूछा, ‘‘क्या आप ही प्रधान मंत्री हैं?''
‘‘हाँ, हाँ, मैं ही प्रधान मंत्री हूँ। तुम्हारा क्या नाम है? किस काम पर आये?''मंत्री ने पूछा।
युवक ने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा, ‘‘महामंत्री जी, मेरा नाम नरसिंह वर्मा है। मालूम हुआ है कि महाराज ऐसे पराक्रमी और साहसी युवकों को अपनी सेना में भर्ती कर रहे हैं, जो हमारे राज्य पर हमला करनेवाले हूणों का सामना कर सकें और उनके छक्के छुडा सकें। इसी काम पर यहाँ आया हूँ।''

‘‘इसका यह मतलब हुआ कि योद्धा बनकर हूणों से युद्ध करने का इरादा लेकर आये हो। परंतु तुम्हारी मूंछ को देखते हुए कोई भी दुश्मन तुम पर बार करने से हिचकेगा, संकोच करेगा।'' मंद मुस्कान भरते हुए प्रधान मंत्री ने कहा।
‘‘महामंत्रीजी, मेरी मूंछ ऐसी क्यों है, इसके पीछे लंबी कहानी है,'' नरसिंहवर्मा ने कहा। मंत्री ने कहा, ‘‘वह कहानी ज़रा संक्षेप में बताना।''
नरसिंहवर्मा ने अपना गला साफ़ करते हुए कहा ‘‘मैं देशभक्त हूँ। मेरी नस-नस में देशभक्ति कूटकूटकर भरी हुई है। मैंने जान की बाजी लगायी और हूणों के सरदार के शिबिर में घुस गया।
वह बाघ के चर्म के आसन पर भल्लूक चर्म ओढ़कर बैठा हुआ था। उसके चारों ओर बाज और तलवार लिये सैनिक खड़े थे। वे मुझसे पूछें कि तुम कौन हो, उसके पहले ही मैंने हूणों के सरदार से कहा, ‘‘जो भी तुम्हें देखेगा, उसे शंका होगी कि तुम कुत्ते हो या सियार हो। हमारे राज्य पर हमला करने का तुम्हारा इतना साहस ! तुम्हें...'' मैं अपनी बात पूरी करूँ, इसके पहले ही उसने सैनिकों को मुझे मार डालने की आज्ञा दी। एक सैनिक ने फ़ौरन मेरे गले को अपना निशाना बनाते हुए तलवार फेंकी। निशाना चूक गया और मेरे दायीं ओर की मूँछ उस तलवार से आधी कट गयी । दूसरे ही क्षण तेज़ी से मैं वहाँ से भाग निकला। मुझे पकड़ने की उनकी कोशिश नाकाम हुई।''
‘‘वाह, वाह, यह सब कुछ कब हुआ?'' मंत्री ने पूछा। ‘‘यह बहुत पहले की घटना नहीं, पंद्रह मिनटों के पहले ही घटी है।'' नरसिंहवर्मा ने बिना सकपकाये कह डाला।
प्रधानमंत्री ठठाकर हँसा और बोला, ‘‘अब राजा को चाहिये, एक विदूषक, आस्थान विदूषक। मेरे साथ आओ और राजा से मिलो।'' यों कहते हुए प्रधान मंत्री उसे अपने साथ ले गये।

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