Thursday, June 30, 2011

स्मरण शक्ति

अमावस्या के दिन रामेश किसी काम पर कामेश के घर आया। तीर्थयात्रा पर निकला एक साधु उस समय कामेश के घर के सामने खड़ा था। रामेश ने तांबे के दो सिक्के उसे देते हुए कहा, "एक मेरा है और दूसरा कामेश का।"
साधु ने आशीर्वाद देते हुए कहा, "तुम दोनों की दोस्ती सराहनीय है। तुम अपने मित्र से तांबे का सिक्का वापस मत लेना। हर शुक्रवार के दिन अपने मित्र को तांबे का एक सिक्का देते रहो। इससे उसे कितना ही लाभ पहुँचेगा। उसी प्रकार अगर तुम्हारा मित्र भी हर पूर्णिमा के दिन तुम्हें तांबे का सिक्का देता रहेगा तो उससे तुम्हें लाभ पहुँचेगा। परंतु हाँ, तांबे के सिक्के के बारे में तुम दोनों को स्वयं याद रखना होगा, याद दिलाना मना है।" यों कहकर साधु चला गया।
दूसरे दिन प्रभाकर नामक एक व्यक्ति आया और गाँव में जिस-जिससे कर्ज़ लिया था, चुका दिया। उसने कामेश का भी सौ अशर्फियों का पुराना कर्ज़ चुका दिया। यह जानकर रामेश को लगा कि साधु का आशीर्वाद फलीभूत हुआ।
साधु के कहे अनुसार पूर्णिमा के दिन कामेश ने रामेश को तांबे का सिक्का नहीं दिया। पर, रामेश ने फिर से अमावास के दिन कामेश को जब तांबे का सिक्का दिया तो उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, "वाह, तुम्हें अब भी उस साधु की कही हुई बात अच्छी तरह से याद है?"
"जब तुम्हें इससे लाभ हुआ है, तब भला मैं वह बात कैसे भुला सकूँगा।" रामेश ने कहा।
कामेश ने हँसते हुए कहा, "प्रभाकर ने और कइयों का कर्ज़ चुका दिया। तुमने उन सबको तांबे का सिक्का थोड़े ही दिया।"
"पूजा करनेवाले के लिए बारिश होती है ता इससे पूजा न करनेवाले को भी लाभ पहुँचता है। शायद तुम्हारी ही वजह से उन लोगों को भी लाभ हुआ होगा," रामेश ने कहा।

कामेश का मुँह छोटा हो गया। फिर भी गंभीर स्वर में उसने कहा, "यह न समझना कि यह बात मेरी समझ में नहीं आयी। पर, पता नहीं क्यों पूर्णिमा के दिन के बाद ही यह बात मुझे याद आती है। तुम्हारी जैसी स्मरणशक्ति मुझमें भी होती तो कितना अच्छा होता।"
उसी रात को सिपाहियों ने उस चोर को पकड़ लिया, जो बहुत दिनों से बचकर निकल जाता था। वह उस समय चुराया हुआ धन व गहने एक पेड़ के कोटर में छिपा रहा था। उन गहनों में कामेश का भी खोया हुआ एक गहना था।
यद्यपि गाँव के कई लोगों को उन-उनके गहने मिल गये, पर कामेश को लगा कि इसका कारण रामेश का दिया हुआ तांबे का सिक्का होगा। फिर भी अगली पूर्णिमा के दिन उसने रामेश को तांबे का सिक्का नहीं दिया।
लेकिन, अगली अमावस्या को रामेश उसके घर आया और उसने तांबे का सिक्का उसे दिया। कामेश ने झेंपते हुए कहा, "तुम्हारे दिये तांबे के सिक्के से मुझे लाभ पहुँचता है। मैं याद रखकर तुम्हें तांबे का सिक्का नहीं देता, शायद, इसी कारण मुझे तो लाभ पहुँचता है, पर तुम्हें नहीं। तुम्हारी स्मरण शक्ति अद्भुत है!"
इसपर रामेश ने मुस्कुराते हुए कहा, "कर्ज़ देने की वजह से तुम्हें नुक़सान पहुँचा है। गहना खो दिया। मेरे लिए तो यही भाग्य की बात है कि मुझे ऐसे नुक़सान नहीं हुए। जो तांबे का सिक्का मैं तुम्हें देता रहता हूँ, उससे तुम नुक़सानों से बच रहे हो। अपने भाग्य के बारे में मैं जान गया हूँ, इसलिए अनावश्यक शर्मिंदा मत होना।" यों कहकर वह चला गया।
इसके बाद भी रामेश, कामेश को हर अमावस को तांबे का सिक्का देता रहा। इससे कामेश को लाभ होता रहा, फिर भी एक पूर्णिमा के दिन भी उसने रामेश को तांबे का सिक्का नहीं दिया।
एक बार रामेश आवश्यक काम पर बाहर जाने के कारण एक अमावस को तांबे का सिक्का उसे दे नहीं पाया। दूसरे दिन कामेश ने अपने घर के पिछवाड़्रे में ज़मीन खोदी तो उसे एक पेटी मिली जिसमें पत्थर भरे थे। उसे लगा कि अगर रामेश तांबे का सिक्का यथावत् देता तो वे पत्थर वज्रों में बदल गये होते। उसने सोचा कि इस पूर्णिमा को अवश्य ही वह रामेश को तांबे का सिक्का देगा।

इस बीच रामेश ने अपने घर के पिछवाड़्रे में पूर्णिमा के दिन कुआँ खुदवाने का निर्णय लिया। कामेश को यह समाचार मिल गया। वह सोचने लगा कि अगर मैं उस दिन रामेश को तांबे का सिक्का दूँगा तो हो सकता है, उसे निधि मिल जाए, इसलिए उसने उसे सिक्का देने का विचार छोड़ दिया। प्रतिपदा के प्रवेश के बाद ही वह रामेश के घर गया। रामेश ने उसका स्वागत करते हुए कहा, "आओ कामेश, यही सोच रहा था कि अब तक तुम आये क्यों नहीं।"
"मेरी स्मरण शक्ति बहुत ही कमज़ोर है, इसलिए साधु के बताये नियम का पालन नहीं कर सका। अब तुम्हें सिक्का देने ही आया हूँ।" कामेश ने अपनी बड़्राई जताने के उद्देश्य से कहा।
"शायद इसीलिए दस फुटों में ही पानी आने लगा है," रामेश ने कहा।
वहाँ उपस्थित किसी को भी उनकी बातें समझ में नहीं आयीं। वे एक-दूसरे का चेहरा देखते रह गये। तब रामेश ने, उन्हें साधु के दिये वरदान का विवरण देते हुए कहा, "पिछले अमावस को गाँव में नहीं था, इसलिए तांबे का सिक्का दे नहीं पाया। पर अब तो कभी भी इसे तांबे का सिक्का नहीं दूँगा।"
"अपनी अच्छाई और परोपकार के लिए ये महाशय प्रख्यात हैं। अब देख लिया न, इनका असली रंग", कामेश ने उसकी हँसी उड़्राते हुए कहा।
तब रामेश ने हँसते हुए जवाब दिया, "जब तक मैं तुम्हें तांबे के सिक्के देता रहा, तब तक तुम्हारी स्मरण शक्ति कुंठित रही, जब मैंने नहीं दिया, तब तुम्हारी स्मरण शक्ति काम करने लगी। तांबे का सिक्का न दूँ तो तुम्हें अधिक लाभ होगा। तुम्हें तांबे का सिक्का न देकर मैंने अपनी परोपकार बुद्धि को साबित कर दिया।" यह सुनते ही वहाँ उपस्थित सभी लोग हँस पड़्रे। फिर एक और बार कामेश, रामेश के हाथों चित हो गया। वह हक्का-बक्का रह गया।

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