राजप्रासाद के परकोटे के बाहर एक विशाल बरगद खड़ा था। एक दिन उसके नीचे एक व्यक्ति आसन लगाये आँखें बन्द कर ध्यान कर रहा था। विचित्र बात यह थी कि वह दाढ़ी साफ किये हुए था और सुन्दर दिखाई पड़ता था। प्रातःकाल से रात होने तक आँखें बन्द किये वह वहीं बैठा रहता। कुछ राहगीर चकित हो कुछ देर तक टकटकी लगाये उसे देखते और फिर चले जाते। कुछ अन्य, उसके सुन्दर चेहरे से आकर्षित हो इस उम्मीद से वहाँ बैठ जाते कि वह ज्ञान की कुछ बातें बता दे। उन्हें उससे बात करने का साहस नहीं होता। कुछ देर के बाद वे भी उठ कर और उसके सामने कुछ सिक्के डाल कर चले जाते। उन सिक्कों को देखकर और चढ़ावे आते। किसी ने उसे खाते-पीते नहीं देखा, इसलिए लोग उसे फकीर या साधु समझने लगे।
रात होने पर उसके ‘‘शिष्य'' उससे मिलते और वह, उनके द्वारा लाया जो भी भोजन होता, खा लेता और तब वे चुपचाप उस स्थान को साफ-सुथरा कर अपने काम-चोरी करने चले जाते। सुबह होने से पहले साधु पुनः बरगद के नीचे वापस आ जाता।

साधु ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं और राजा को आशीर्वाद दिया, ‘‘वत्स, चिरंजीवी भव!''
राजा ने कहा, ‘‘कृपया मेरे महल में पधारिये। मैं आप के आवास का प्रबन्ध कर दूँगा। आप शान्तिपूर्वक ध्यान कर सकते हैं।''
‘‘मुझे आने में बहुत प्रसन्नता होगी किन्तु एक शर्त पर कि आप को मेरे शिष्यों के मेरे साथ ठहरने में कोई आपत्ति नहीं होगी।'' साधु ने कहा और आँखें बन्द कर लीं। राजा ने सोचा कि यह उसके चले जाने का संकेत है।

राजा ने एक कुटिया बनाने का आदेश दिया। जब कुटिया तैयार हो गई, राजा ने अपने अंगरक्षक को साधु के पास भेजा। साधु ने कहा कि अपने शिष्यों के आ जाने पर उनके साथ महल की कुटिया में आ जायेगा।
जब साधु अपने तीन शिष्यों के साथ महल में गया, अंगरक्षक उनके स्वागत के लिए मुख्य द्वार पर खड़ा था। उसने द्वारपालों को आदेश दिया कि वे साधु या उसके शिष्यों को जब भी वे चाहें, महल से बाहर जाने दें।
दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही राजा कुटिया में गया। साधु गहरे ध्यान में डूबा था। एक शिष्य ने ऊपर जाकर साधु के कन्धे को स्पर्श किया। साधु ने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। राजा ने पूछा, ‘‘हे महात्मन, आशा है, कुटिया आरामदेह होगी।'' साधु ने सत्यभाव से पूछा, ‘‘वत्स, मैं तुम्हें क्या पुरस्कार दूँ?''
‘‘कृपया आशीर्वाद दीजिये कि मुझे एक पुत्र हो जो मेरा उत्तराधिकारी बने!'' राजा ने कहा।
‘‘तुम्हारी इच्छा परमप्रभु ने सुन ली है!'' साधु ने कहा।
अपने कक्ष में जाने के बाद राजा ने अपने अंगरक्षक को बुलाया और आदेश दिया कि साधु को शाही रसोई खाने से भोजन पहुँचा दो। शाम को राजा को मालूम हुआ कि साधु ने भोजन लौटा दिया है। राजा यह विश्वास करने लगा कि साधु यदि अन्न-जल के बिना रह सकता है तो अवश्य ही उसके पास चामात्कारिक शक्तियाँ होंगी।
जब लोगों को पता चला कि राजा ने साधु के लिए महल के अन्दर कुटिया बना दी है, तब धीरे-धीरे उन्हें पता चला कि वे किसी भी समय साधु के पास प्रणाम करने के लिए जा सकते हैं। जो भी हो, साधु सदा आँखें बन्द किये रहता और किसी के कुछ बोलने पर भी कभी अपना मुँह नहीं खोलता।
एक बार ऐसा हुआ कि राजा की एकमात्र पुत्री ने साधु से मिलना चाहा। राजकुमारी को आशा थी कि साधु अपनी शक्ति से यह बता देगा कि उसका पति कौन होगा। शायद वह उसके होनेवाले पति को अन्तर्दृष्टि में दिखा दे।

राजकुमारी ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में थी जब वह अकेले अपने कक्ष से बाहर जा सके ।एक रात को उसकी परिचारिकाएँ अगले दिन के त्योहार के लिए तैयारी में व्यस्त थीं। वह चुपचाप बाहर आ गई और कुटिया की ओर बढ़ी। जब साधु के आमने-सामने खड़ी हुई तो उसके हृदय की धड़कनें तेजी से चलने लगीं। उस समय साधु की आँखें खुली थीं। उसने सिर्फ यही कहा, ‘‘तुम्हारे आने के समय को देखते हुए मैं अनुमान करता हूँ कि तुम महल से आई हो।''
‘‘मैं राजकुमारी मालविका हूँ'', राजकुमारी ने उत्तर दिया।
‘‘मैं गौरवान्वित हुआ। मैं आप को कैसे प्रसन्न करूँ, हे सुन्दरी!'' ‘‘मैं एक प्रार्थना लेकर आई हूँ। क्या आप बतायेंगे कि किस राजकुमार से मेरा विवाह होगा? और उस राजकुमार को क्या अपनी अन्तर्दृष्टि से देख सकता हूँ?''
साधु ने आँखें बन्द कर लीं लेकिन कुछ क्षणों के लिए। फिर वह लम्बी मुस्कान के साथ बोला, क्या मैं इतना सुन्दर नहीं हूँ कि तुम्हारा पति बन सकूँ। और जब तुम मुझसे विवाह कर लोगी, तब स्वाभाविक ही मैं राजकुमार बन जाऊँगा।''
साधु ने जब प्यार से राजकुमारी का हाथ पकड़ लिया तब वह भौचक रह गई। उसने एक महात्मा से ऐसे आचरण की आशा नहीं की थी। क्या उसने उसके आशीर्वाद के लिए आकर मूर्खता की? वह जल्दी से कुटिया के बाहर आ गई।
साधु तब तक अनुरोध करता रहा, ‘‘हे राजकुमारी! मत जाओ! मैं तुम्हें तुमसे विवाह करनेवाले राजकुमार को देखने की अन्तर्दृष्टि प्रदान करूँगा।'' वह उसे भागने से रोकना चाहता था। उसने वहाँ रखे, एक दर्शनार्थी द्वारा लाये गये फलों का ट्रे उठाकर उसके पैर पर फेंककर मारा।
प्रधान ने वापस आकर बताया कि साधु के शिष्यों के बाहर जाने के बाद कोई महल में नहीं आया और शिष्य भी तब तक लौट कर नहीं आये थे। तब क्या कोई महल से ही आया होगा? साधु ने बताया कि वह आत्मा सुन्दर लड़की के रूप में आई थी। निस्सन्देह रानी और राजकुमारी की परिचारिकाएँ इस विवरण के अनुसार नहीं हो सकतीं। क्या राजकुमारी साधु के पास गई होगी? क्या उसके पाँव में चोट लगी है?
मालविका दरवाजे पर क्षण भर के लिए रुकी। उसे लगा कि किसी चीज से उसे चोट लग गई है। पैर के दर्द की परवाह किये बिना वह बाहर आ गई और शीघ्र ही अपने कमरे में लौट आई। उसने चैन की सांस ली। भगवान को धन्यवाद! किसी ने उसे देखा नहीं। परिचारिकाएँ अभी भी व्यस्त थीं। उसने पाँव को देखा। किसी चीज से कटने का वहाँ गहरा घाव हो गया था और उससे रक्त बह रहा था। उसने जड़ी-बूटी का मरहम लगा दिया और सोने का बहाना बनाकर बिस्तर में लेट गई।
अगले दिन प्रातःकाल जब राजा साधु से मिलने गया तो वह जाग रहा था। वह क्रोधित लग रहा था। ‘‘क्या हुआ, हे महात्मन?'' राजा ने पूछा। कोई उत्तर नहीं मिला। ‘‘क्या यह स्थान आरामदेह नहीं है?''
साधु ने सिर्फ राजा को घूरकर देखा। ‘‘मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ। तुम्हारे राज्य में एक दुष्ट आत्मा आ गई है।'' उसने कहा।
‘‘दुष्ट आत्मा? किस तरह की दुष्ट आत्मा?'' राजा ने पूछा।
‘‘पिछली रात एक सुन्दर लड़की यहाँ आई और उसने मेरा ध्यान भंग कर दिया। मैंने उसे वापस भेज दिया लेकिन उसके पाँव में चोट लग गई है।''
‘‘मैं निश्चय ही पता करूँगा कि वह कौन है और रात में यहाँ आने और आप का ध्यान भंग करने के लिए उसे सजा दूँगा।'' राजा ने महल में लौटने से पहले आश्वासन दिया।
उसने अंगरक्षकों के प्रधान को बुलाया और उसे पता करने के लिए कहा कि पिछली रात महल में कौन आया और क्या वह कोई युवती थी।

राजा ने गुप्त रूप में राजकुमारी की दो परिचारिकाओं में से एक को बुलाया और कहा, ‘‘राजकुमारी को मालिश करते समय क्या तुमने उसके पाँव में कोई जख्म देखा है?''
‘‘हाँ महाराज, हमलोगों ने राजकुमारी के टखने पर जख्म का दाग देखा है और वहाँ पर वह दर्द की शिकायत कर रही थीं। उन्होंने कहा कि वह उद्यान में एक टूटी शाखा पर गिरने से घायल हो गई हैं। किन्तु वह उद्यान में जहाँ-जहाँ गईं, हमलोग हमेशा साथ थीं। हमलोगों ने कोई टूटी टहनी नहीं देखी और उन्हें गिरते हुए भी नहीं देखा।'' परिचारिका ने बताया।

राजा ने तब प्रधान अंगरक्षक को बुलाकर साधु और उसके शिष्यों पर कड़ी नजर रखने का आदेश दिया। प्रधान अंगरक्षक के जाने के बाद राजा साधु से मिलने गया। साधु की आँखें बन्द थीं लेकिन कुटिया में किसी आनेवाले के प्रति सतर्क। उसने जैसे ही पदचाप सुने, उसने पूछा, ‘‘कौन है?'' राजा का उत्तर न पाकर साधु ने आँखें खोलीं और वह मुस्कुराया, ‘‘ओह! महाराज!'' राजा ने ध्यान दिया पिछले अवसरों की तरह उसने ‘वत्स' कह कर सम्बोधित नहीं किया। ‘‘क्या दुष्टात्मा को पकड़ लिया?''
‘‘नहीं, किन्तु उसे पहचान लिया गया है।'' उसके पाँव में चोट है। चोट ठीक होते ही उसे यहाँ लाकर सजा दी जायेगी।'' राजा ने कहा।
साधु अचानक अशान्त हो गया। उसने शिष्यों को पुकारा। स्पष्ट ही, केवल एक शिष्य मौजूद था। ‘‘मुझे थोड़ा जल ला दो।'' पानी पीने के बाद उसने क्लान्त होने का बहाना दिया, ‘‘महाराज, यदि आप अनुमति दें तो मैं अब विश्राम करूँगा।''
इससे राजा का सन्देह बढ़ने लगा। लेकिन उन्होंने निश्चय किया कि एक दो दिन के बाद ही अगला कदम उठायेंगे। दूसरे दिन प्रातःकाल प्रधान अंगरक्षक ने बताया कि पिछली रात को साधु भी बाहर गया था और अभी तक लौटा नहीं है। यह कहकर प्रधान चला गया लेकिन तुरन्त लौटकर राजा से बोला, ‘‘साधु अभी-अभी लौट आया, महाराज!'' राजा ने कहा,‘‘हम लोग अभी उससे मिलने चलेंगे।''

पहले की तरह साधु की आँखें बन्द थीं, लेकिन राजा के जाते ही उसने आँखें खोल दीं। राजा बिना उसके सम्बोधन की प्रतीक्षा किये बोला, ‘‘ये अगरक्षकों के प्रधान हैं। इन्होंने ख़बर दी है कि वह सुन्दर लड़की, जिसे आपने दुष्टात्मा कहा है, लापता हो गई है। हो सकता है, जब आप पिछली रात बाहर गये थे, यहाँ आ गई हो। इन्हें इस जगह की तलाशी लेने दीजिये जिससे, यदि वह यहाँ हो, तो उसे पकड़ा जा सके। आपके शिष्य कहाँ है, महात्मन?''
‘‘वे मेरे लिए भोजन लाने गये हैं।'' साधु ने कहा। राजा साधु के सामने बैठ गया। राजा का संकेत पाकर प्रधान अन्दर गया। कुछ देर के बाद वह लौट आया। उसके हाथों में सोने के आभूषण और चमकते हुए मूल्यवान रत्न थे। ‘‘महाराज, अन्दर कोई नहीं है, लेकिन ये सब मुझे एक थैले में मिले।'' प्रधान अंगरक्षक ने कहा।
‘‘क्या दुष्टात्मा घायल हो जाने के बाद यह सब छोड़ गई है?'' राजा ने व्यंग्यपूर्वक पूछा।
साधु को कुछ कहने के लिए शब्द नहीं मिला। तब तक उसके तीनों शिष्य भरे हुए थैलों के साथ अन्दर आये। उसके अन्दर की चीजें खाने-पीने लायक नहीं लगती थीं।
राजा अब खड़ा हो गया और प्रधान से बोला, ‘‘कुछ और रक्षकों को बुलाओ।'' उनके आते ही राजा ने चारों को कारागार में डालने और यहॉं की हर चीज को बरामद करने का आदेश दिया।
उन चारों को पकड़ कर जेल में भेज दिया गया और कुटिया में रखे सभी थैलों को राजा के सामने पेश किया गया।
‘‘साधु और इसके शिष्य चोर थे और यह सारा माल लोगों से लूटा हुआ है। यह पता करना चाहिये कि चोरों ने यह माल कहाँ से लूटा है और उन्हें वापस भेज देना चाहिये।''
राजा ने यह सोचकर बुद्धिमानी की कि वह राजकुमारी को यह नहीं बतायेगा कि जिस महात्मा से वह मिलने आई थी वह कपटी साधु था।

ReplyDeleteलखनऊ में तनाव तो धनीराम के गानों पर मस्त है सैफई
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