Thursday, June 30, 2011

ग्रामाधिकारी

रामापुर का ग्रामाधिकारी प्रसाद बड़ा भूस्वामी था। ऐसे तो उसे पिता से दस एकड़ खेत ही प्राप्त हुआ था, परंतु अपनी अ़क्लमंदी से और सूद का व्यापार करके उसने बहुत धन कमाया। उस गाँव के अधिकांश लोग गरीब थे। जब कभी भी उन्हें धन की ज़रूरत पड़ती थी, वे प्रसाद की सहायता पर ही निर्भर रहते थे। इसलिए उस गाँव में प्रसाद की ही मनमानी चलती थी। उसका विरोध करनेवाला कोई था ही नहीं।
परिस्थितियाँ प्रसाद के बिल्कुल अनुकूल थीं, इसलिए उसमें क्रमशः अहंकार बढ़ता गया। ग्रामाधिकारी होकर भी, वह गाँव की आवश्यकताओं के प्रति बिल्कुल लापरवाह रहता था। उसे इस बात का भय था कि गाँव के बच्चे अगर पढ़ेंगे- लिखेंगे तो बड़े हो जाने पर वे उसका विरोध करेंगे और ग्रामाधिकारी के पद से उसे हटा देंगे, इसलिए उसने उजडी पाठशाला की मरम्मत भी नहीं करवायी। अगर नये अध्यापक गाँव में आते तो उन्हें डरा-धमकाकर भगा देता था।
इन परिस्थितियों में सूरज नामक एक नया अध्यापक उस गाँव में पढ़ाने आया। यह युवक कृष्णापुर का निवासी था और प्रसाद की छोटी बहन का बेटा था। उसने मामा से किये जानेवाले अन्यायों और अत्याचारों को देखकर ग्रामीणों की सहायता करने का निश्चय किया।
चूँकि सूरज भानजा था, इसलिए प्रसाद उसे डरा न सका। उसने उसे घर बुलाया और समझाते हुए कहा, ‘‘इस कुग्राम में कर भी क्या सकते हो? शिक्षित हो। यहाँ पढ़ाते रहने से तुम ज़िन्दगी में आगे बढ़ नहीं सकते। कूप मंडूक ही बने रहोगे। किसी बड़े शहर में तुम्हारा तबादला करा दूँगा।''
‘‘शहरों में काम करने के लिए कितने ही शिक्षित लोग हैं। इन दूरस्थ गाँवों में आने के लिए कोई भी शिक्षित व्यक्ति तैयार नहीं। इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ। मामाजी, इन गाँववालों को शिक्षा की बड़ी ज़रूरत भी है।'' सूरज ने कहा।
उसकी बातों को सुनकर प्रसाद मन ही मन क्रोधित हो उठा, पर उसे प्रकट नहीं किया।

सूरज ने गाँववालों की सहायता से उजडी पाठशाला का पुनरुद्धार किया और बच्चों को पढ़ाने में लग गया। रातों में वह वयस्कों को पढ़ना-लिखना सिखाता था। साथ ही वह उन्हें आत्मनिर्भर होने के लिए आवश्यक पेशों के बारे में भी बताता रहता था और इसके लिए सरकार की तरफ़ से जो सहायताएँ मिलती हैं, उन पर विशद रूप से प्रकाश भी डालता रहता था। ग्रामीणों के जीवन में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा।
यह देखते हुए प्रसाद का क्रोध और बढ़ गया। उसे डर लगने लगा कि इससे ग्रमीण उसकी परवाह नहीं करेंगे । सूरज को गाँव से कैसे भगाना है, इसी बात को लेकर सोचते हुए वह एक दिन शाम को पाठशाला गया। उस समय सूरज बच्चों को कुछ बता रहा था। प्रसाद ने छिपकर उसकी बातें सुनीं।
‘‘प्रकृति में जो परिवर्तन होते रहते हैं, वे हमारे हस्तक्षेप के बिना ही होते हैं। किन्तु, हमारी ज़िन्दगियों में ये परिवर्तन तभी संभव हैं, जब हम इनके लिए प्रयत्न करते हैं। ऐसे तो हमारा जन्म एक समान हुआ है, परंतु जो अवकाश प्राप्त होते हैं, उनका सही उपयोग करने पर, उनका फ़ायदा उठाने पर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। परंतु हाँ, इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। जो ऐसा नहीं करते, वे पिछड़ जाते हैं। जो जीवन में आगे बढ़ते हैं, उन्हें चाहिये कि वे पिछड़े लोगों की मदद करें। उनमें यह उदारता अवश्य हो। द्वेष, ईर्ष्या, प्रतिकार इन दुर्गुणों से दूर रहना चाहिये। पूरा गाँव अच्छा हो, तभी हर कोई अच्छा रह सकता है।'' यों सूरज उन्हें हितबोध करता रहा, उन्हें उनका कर्तव्य समझाता रहा।
उसकी बातों में जो वास्तविकता व सच्चाई भरी हुई थी, प्रसाद उन्हें जान गया। उसमें इन बातों से अचानक परिवर्तन हुआ। वह सबके सामने आया और कहा,‘‘सूरज, तुम अभी युवक हो, पर तुमने मेरी आँखें खोल दीं। ग्रामाधिकारी होकर भी जो काम मैं नहीं करवाया, तुमने छे महीनों में वह कर दिखाया। तुम इस गाँव के ग्रामाधिकारी होने के योग्य हो।''
‘‘आपमें यह परिवर्तन आये, इसी की मैं प्रतीक्षा में था। मामाजी, अब आप सच्चे ग्रमाधिकारी हैं। आगे से गाँववालों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए अच्छा नाम कमाइये। कल सबेरे ही मुझे यहाँ से रंगापुर जाना है।'' सूरज ने कहा।

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