भाग्यपुरी में सत्यवान नामक महापंडित रहा करता था। चमत्कारपूर्ण बातें करने में वह दक्ष था। उसके इस कौशल की प्रशंसा करते हुए लोग थकते नहीं थे। सकल शास्त्रों में वह पारंगत था, फिर भी वह बड़ा ही विनम्र था। सच कहा जाए तो किसी भी विषय में उसकी बराबरी का कोई था नहीं। ग्रमीण उसका बड़ा आदर करते थे।
कीर्तिकामी नामक एक विद्वान उस गॉंव में बस जाने के लिए नया-नया आया था। उसे इस बात पर गर्व था कि कोई ऐसी विद्या नहीं, जिसे वह नहीं जानता हो। अपनी प्रशंसा सुनना उसे बहुत प्रिय था। इसके लिए वह धन खर्च करने के लिए भी तैयार रहता था।
शहर में कोई उसकी बात सुनने के लिए तैयार नहीं था, इसलिए वह गॉंव में बसने आ गया। वहीं उसने भवन बना लिया और सौ एकड़ की उपजाऊ भूमि भी खरीद ली। कीर्तिकामी के स्वभाव के बारे में कुछ स्वार्थियों ने सुन रखा था। अब वे उसी के इर्द-गिर्द घूमने लगे। हर पल उसकी प्रशंसा के पुल बॉंधने लगे, उसे सातवें आसमान में बिठाने लगे और उससे धन ऐंठने लगे। यह उनका पेशा-सा हो गया।
इस वजह से भाग्यपुरी गॉंव कीर्तिकारी को बहुत अच्छा लगा। यों वह आनंदमय वातावरण में समय आराम से गुज़ारने लगा। कीर्तिकामी की पत्नी सुवर्णा शहर में पैदा हुई और बड़ी हुई थी। उसे यह गॉंव बिलकुल ही अच्छा नहीं लगा। प्रशंसा पाने के लिए उसका पति पानी की तरह धन बहा रहा था, जो उसे बिलकुल पसंद नहीं आया। वह इसको लेकर परेशान भी होने लगी। इसलिए उसने शहर में रह रहे अपने भाई शुभाकर को गॉंव में बुला लिया। शुभाकर ने गॉंव में आते ही वहॉं की परिस्थिति को भली-भांति भांप लिया।
वह नहीं चाहता था कि उससे उम्र में बड़े बहनोई और उसके बीच कोई बखेड़ा खड़ा हो। इसलिए उसने यही उत्तम समझा कि उसे धीरे-धीरे समझाया जाए। तत्संबंधी उपायों पर उसने खूब सोचा-विचारा। आख़िर उसने फ़ैसला कर लिया कि प्रशंसाओं के द्वारा ही उनपर विजय पायी जाए। एक दिन उसने अपने बहनोई से कहा, ‘‘किसी भी देश के लिए गॉंव ही रीढ़ की हड्डी के समान है। गॉंव में ही बस जाने के आपके निर्णय की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। किन्तु आप कृषि में नहीं, व्यापार में दक्ष हैं, इसलिए मेरी समझ में अच्छा यही है कि आप शहर लौटें, व्यापार करें और लाखों रुपये कमायें। यही मेरी विनती भी है। आपके आशय की पूर्ति के लिए मैं भाग्यपुरी में ही रह जाऊँगा और खेती संभालूँगा।’’
कीर्तिकामी ने उसकी बात मानने से साफ़-साफ़ इनकार कर दिया। उसने शुभाकर से कहा, ‘‘यहॉं मुझे अपार गौरव मिल रहा है। चाहे धन कितना भी कमा लिया जाए, शहर में ऐसा आदर नहीं मिलता। मुझे यही जगह अच्छी लगती है।’’ शुभाकर को पहले से ही मालूम था कि बहनोई यही उत्तर देंगे। उनके उत्तर से निराश हुए बिना उसने शांत स्वर में कहा, ‘‘बहनोई जी, गॉंवों में लोग धन को महत्व नहीं देते। वे प्रतिकार को ही महत्व देते हैं। बिना धन लिए वे निस्वार्थ भाव से कवियों, पंडितों तथा अन्य कलाकारों को चाहते हैं और उनका आदर करते हैं। ऐसा आदर सत्यवान को इस गॉंव में भारी मात्रा में मिल रहा है। आपके प्रशंसक आपसे धन ऐंठने के लिए ही आपकी तारीफ़ के पुल बॉंध रहे हैं।’’ यों उसने स्थिति स्पष्ट कर दी।
उसकी इन बातों से कीर्तिकामी में रोष उभर आया, उसका पौरुष जाग उठा। अब तक उसके मन में सत्यवान के प्रति आदर की भावना थी। जैसे ही अपने साले की बातो ंसे उसे मालूम हो गया कि आदर के विषय में सत्यवान उसका प्रतिद्वंद्वी है तो वह ईर्ष्या के मारे जल उठा और बोला, ‘‘पैसा ही परमात्मा है। उससे कोई भी काम संभव है। उस सत्यवान के मुँह से ही यह कहलवाकर रहूँगा कि इस संसार में मेरे जैसा कोई है नहीं। तुम देखते जाना, क्या-क्या करता हूँ।’’
फिर दूसरे दिन उसने सत्यवान को संदेश भेजा। ‘‘मैं आपका सत्कार धन से करना चाहता हूँ।’’ सत्यवान ने पूछा, ‘‘सम्मान किसलिए?’’ कीर्तिकामी ने सोचा तक नहीं था कि ऐसा उत्तर सत्यवान से मिलेगा, इसलिए वह बौखला पड़ा, ‘‘यह आदमी कौन है, जो सत्कार कराने से इनकार कर रहा है। वह या तो अहंकारी होगा या बहुत बड़ा मूर्ख। गॉंव के लोग बिना समझे-बूझे उसे गौरव दे रहे हैं और खुद अपना मूल्य कम कर रहे हैं। यह सत्य प्रकट करूँगा और अपनी प्रतिष्ठा को अत्यधिक बढ़ाऊँगा।’’ उसने शुभाकर से कहा।
कीर्तिकामी उसी दिन सत्यवान के घर गया। सत्यवान ने घर आये मेहमान का स्वागत आदरपूर्वक किया और उनके आने का कारण जानना चाहा। ‘‘प्रतिभा को मुकुट पहनाने के लिए यह कोई ज़रूरी नहीं है कि प्रतिभा ही हो। आपका सम्मान करने की मेरी तीव्र इच्छा है। आप इनकार मत कीजिए।’’ यों कहते हुए कीर्तिकामी ने अपने आगमन का कारण बताया।
‘‘आपका आशय प्रशंसनीय है। पर, मुझमें जो प्रतिभा है, वह केवल पांडित्य में ही है। पंडित ही मेरा सम्मान करेंगे तो मुझे संतृप्ति होगी। कृपया बताइये कि मेरे पांडित्य के कौन-से अंश आपको अच्छे लगे?’’ सत्यवान ने पूछा। कीर्तिकामी को इन बातों ने चोट पहुँचायी, पर उसे प्रकट कियेबिना उसने कहा, ‘‘आर्य, कारण जाननेे के लिए आप इतना आग्रह करते हैं तो मेरी श्रेष्ठता के बारे में आप लोगों से कहिए। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है कि कवि और पंडित उनका आदर सम्मान करनेवालों की प्रशंसा करते रहने से थकते नहीं।’’ ‘‘हो सकता है, मैं सम्मान में आपकी बराबरी का नहीं हूँ। परंतु कि स पक्ष को लेकर आपकी प्रशंसा करूँ?’’ सत्यवान ने पूछा।
‘‘प्रशंसा करने मात्र के लिए आप इतनी माथापच्ची क्यों कर रहे हैं? शहर में मैं एक सफल व्यापारी रहा। अपनी आमदनी को भी त्यजकर गॉंव में बसने आ गया हूँ। यही मेरा बड़प्पन है, मेरी महानता है।’’ कीर्तिकामी ने कहा।
‘‘मेरा मानना है कि प्रशंसा पाने के लिए ही यहॉं आनेवालों से गॉंव को कोई लाभ नहीं होता। एक दूसरे की प्रशंसा करते रहने की यह सोच ग़लत है।’’ यों सत्यवान ने स्पष्ट कह दिया और उसे वहॉं से भेज दिया। कीर्तिकामी आग-बबूला हो उठा। तब से उसने सत्यवान के विरुद्ध दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। धन के लालच में आकर कुछ ग्रमीण कहने लगे कि सत्यवान अहंकारी है। उसने कीर्तिकामी का अपमान किया है आदि आदि। कुछ लोगों ने उनकी बातों का विश्वास किया तो कुछ लोगों ने नहीं किया। सत्यवान ने इस प्रचार पर ध्यान नहीं दिया।
एक सप्ताह के बाद, सत्यवान तालाब में नहाते समय सीढ़ियों पर फिसलकर गिर गया और लगभग दस दिनों तक घर में खाट पर ही पड़ा रहा। कीर्तिकामी इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए कहने लगा, ‘‘जो भी काम करता हूँ, अच्छा काम ही करता हूँ, इसीलिए मुझपर भगवान की कृपा है। मेरे साथ जिसने दुर्व्यहार किया, भगवान ने उसे दंड दिया।’’ यों कहते हुए अपने अनुचरों के द्वारा प्रचार को और तीव्र किया।
इस पर सत्यवान को दुख हुआ। वह ग्रमाधिकारी से मिलकर बोला, ‘‘कीर्तिकामी ने मुझे अहंकारी ठहराते हुए मेरे विरुद्ध दुष्प्रचार किया, पर मैंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि अपनी-अपनी राय बनाने का पूरा हक़ सभी को है। परंतु मैं नहीं जानता कि जो आकस्मिक दुर्घटना हुई है, तद्वारा भगवान ने मुझे दंड दिया। मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप सुनवाई करें कि मुझसे क्या ग़लती हो गयी।’’
ग्रमाधिकारी ने तुरंत इसपर सुनवाई शुरू कर दी। ग्रम देवी के मंदिर के सामने यह सुनवाई शुरू हुई। ग्रमीणों का विश्वास था कि पुजारी के मुँह से ग्रम देवी कहलवाती है कि कौन-सा गवाह सच और कौन-सा गवाह झूठ बोल रहा है। इस कारण से कोई भी यह बताने आगे नहीं आया कि सत्यवान ने कीर्तिकामी का अपमान किया।
कीर्तिकामी ने अपनी सफाई देते हुए कहा, ‘‘मेरे साथ जिसने दुर्व्यवहार किया, उसे हानि पहुँचकर ही रहेगी। मेरा विश्वास है कि सत्यवान दुर्व्यवहार के कारण ही सीढ़ियों पर फिसलकर गिरा है।’’ यों उसने बचने की कोशिश की। उसकी खोखली दलीलों से ग्रमाधिकारी को यह जानने में देर नहीं लगी कि कीर्तिकामी झूठ बोल रहा है। उसने कीर्तिकामी से कहा, ‘‘यह जानने के लिए कि आपकी बातों में कितनी सच्चाई है, हमें ग्रम देवी की सहायता लेनी पड़ेगी।’’
तब सत्यवान ने दखल देते हुए तुरंत कहा, ‘‘मैं विश्वास करता हूँ कि कीर्तिकामी की बातों में सच्चाई है। अपनी प्रशंसा करने के लिए मुझपर उन्होंने दबाव डाला पर मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। यही मेरी ग़लती हो सकती है और भगवान ने इसीलिए मुझे सज़ा दी होगी। इसलिए ग्रम देवी से अभ्यर्थना करने की क्या आवश्यकता है?’’
उसकी इन बातों पर ग्रमाधिकारी सहित सब लोग हँस पड़े। कीर्तिकामी अपमान के भार से दब गया। उसके साले ने उसे चेतावनी भी दे रखी थी कि प्रतिभावानों से टकराओ मत, पर उसने जान-बूझकर यह ग़लती कर दी। उसे पश्चाताप हुआ। उसने कृषि का काम शुभाकर को सौंप दिया और शहर चला गया। फिर इसके बाद कीर्तिकामी एक बार भी उस गॉंव में नहीं आया। फिर भी भाग्यपुरी के निवासी सत्यवान की चमत्कार भरी बातों के बारे में अ़़क्सर जो कथाएँ सुनाते रहते हैं, उन कथाओं में उसने शाश्वत स्थान प्राप्त कर लिया।
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