Thursday, June 30, 2011

युवराज का अक्षराभ्यास

सूर्यसेन विंध्यगिरि राज्य का राजा था। वह बड़ा ही धार्मिक था। सदा लोगों का क्षेम ही सोचता था। अतः खज़ाने का अधिक भाग उनके कल्याण के लिए खर्च करता था। एक बार इस कारण से खज़ाना खाली हो गया। सूर्यसेन नहीं चाहता था कि इसके लिए जनता से अधिक कर वसूल किये जाएँ। वह सोच में पड़ गया कि राज्य की आमदनी कैसे बढ़ायी जाए।
विदर्भ और वैशाली, विंध्यगिरि के पड़ोसी राज्य थे। विदर्भ के राजा चंद्रकांत और वैशाली के राजा महीधर की दृष्टि विंध्यगिरि की आर्थिक व सैनिक बल की बलहीनता पर पड़ी। वे दोनों अपने-अपने राज्य को विस्तृत करने की तीव्र आकांक्षा रखते थे। एक-दूसरे को निगल जाने के लिए वे मौक़े की ताक में रहते थे। वे पहले विंध्यगिरि पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में सम्मिलित कर लेना चाहते थे, फिर एक-दूसरे के राज्य को हडपने का षड्यंत्र रचना चाहते थे।
सूर्यसेन को यह समाचार गुप्तचरों के द्वारा मालूम हुआ। सूर्यसेन मंजा हुआ एक राजनीतिज्ञ भी था। वह युद्ध निवारण के लिए मार्गों का अन्वेषण करने लगा। इतने में उसके हाथ एक सुअवसर आया।। जयंत सूर्यसेन का चार साल का इकलौता पुत्र था। उसके अक्षराभ्यास के लिए राजपुरोहित ने एक शुभ मुहूर्त निश्चित किया। राजा इस सुअवसर को अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहता था। उसने अपने शत्रु राजा चंद्रकांत और महीधर को इस अवसर पर निमंत्रित करने का निश्चय किया। दोस्ती का हाथ बढ़ाने के उद्देश्य से उसने उन दोनों को निमंत्रण-पत्र भेजा।
दोनों शत्रु राजा भी इस मौक़े की ताक़ में थे। वे चाहते थे कि कोई न कोई बहाना बनाकर सूर्यसेन से झगड़ा मोल लें और युद्ध के लिए ललकारें। यह उनकी चाल थी। दोनों युवराज जयंत के अक्षराभ्यास के दिन उपस्थित हुए। सूर्यसेन ने उन दोनों अतिथियों का आदर-सत्कार किया। स्नेहपूर्ण वातावरण में उस दिन का भोज समाप्त हुआ।

इसके बाद विदर्भ के राजा चंद्रकांत ने एक स्वर्ण पटिया देते हुए सूर्यसेन से कहा, ‘‘अक्षराभ्यास के उत्सव के समय इसका उपयोग कीजिये।''
वैशाली के राजा महीधर ने भी हाथी के दंत से तैयार की गयी सुंदर पटिया देते हुए कहा, ‘‘सरस्वती के मंदिर में पूजाएँ करके लायी गयी पटिया है यह। युवराज से, इस पटिया पर अक्षर लिखवायेंगे तो वह बड़ा विद्यावान् होगा।''
अब सूर्यसेन की स्थिति बड़ी नाजुक हो गयी। फिर भी मुस्कुराते हुए उसने कहा, ‘‘आप दोनों को मेरी हार्दिक कृतज्ञता।''
चंद्रकांत और महीधर गंभीरता के साथ सोचते हुए अतिथि गृह पहुँचे।
चंद्रकांत मन ही मन चाह रहा था कि सूर्यसेन अपने पुत्र के अक्षराभ्यास का प्रारंभ महीधर की समर्पित पटिया पर कराये। इसे वह अपना अपमान घोषित करेगा और इस बहाने की आड़ में सूर्यसेन को युद्ध के लिए ललकारेगा। महीधर की भी यही सोच थी। दोनों का उद्देश्य सूर्यसेन से झगड़ा मोल लेना था।
पटियों के विषय में, सूर्यसेन ने उन दोनों के मनोभावों को भांप लिया। परंतु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी स्थिति में क्या किया जाए। दूसरे दिन युवराज के अक्षराभ्यास का शुभ मुहूर्त आ ही गया । राज्य की परम्परा के अनुसार जनता के आशीर्वाद के लिए सुंदर रूप से सजाये गये शाही हाथी पर आसीन होकर सूर्यसेन व युवराज जयंत निकले। राजमार्ग के दोनों ओर लोग क़तार में खड़े थे। वे पुष्प बरसाते हुए युवराज को आशीर्वाद देने लगे।
उस समय महाराज की दृष्टि अचानक एक बालक पर पड़ी। उसकी उम्र पाँच साल की होगी। उसके हाथ में पटिया थी और युवराज की ओर इशारा करते हुए वह रोये जा रहा था। उसकी माँ सांत्वना देने की भरसक कोशिश कर रही थी।
सूर्यसेन ने महावत से हाथी को रोकने के लिए कहा और उस बालक की माँ के पास गया। राजा को देखते ही वह डरती हुई बोली, ‘‘क्षमा कीजिये, महाराज। इस शुभ समय पर इसका रोना अपराध है, परंतु विवश हूँ,'' कहते हुए उसने हाथ जोड़े।

‘‘डरो मत। बताना कि यह बालक क्यों रो रहा है?'' महाराज ने पूछा। ‘‘इसने मुझसे पूछा कि महाराज और युवराज हाथी पर सवार होकर क्यों आ रहे हैं। मैंने बताया कि युवराज के अक्षराभ्यास का शुभ मुहूर्त है। लोगों से आशीर्वाद लेने आ रहे हैं। यह सुन इसने जिद पकड ली कि अपनी पटिया युवराज को देकर ही रहूँगा।''
यह सुनकर सूर्यसेन अति प्रसन्न हुआ। मन ही मन सोचा, ‘एक नादान बालक बड़े ही प्रेम से अपनी पटिया युवराज को देना चाहता है। यह तो बहुत बड़ी बात है। प्रेम की भेंट से बढ़कर क्या और भेंट हो सकती है?' फिर उसने प्रेमपूर्वक बालक का हाथ पकड़ा और उससे पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?''
बालक ने आँसू पोंछते हुए कहा, ‘‘सुधाम।''
‘‘सुनो सुधाम, रोना बंद कर दो और हँसते हुए अपनी यह पटिया युवराज को दे दो।'' सूर्यसेन ने कहा।
सुधाम ने बड़ी ही प्रसन्नता के साथ पटिया युवराज को दी। राजा ने सुधाम की माँ से कहा, ‘‘राजभवन में रात को भोज है। तुम दोनों अवश्य आओ।'' वहाँ उन्हें ले आने की जिम्मेदारी एक सैनिक को सौंपी।
जुलूस की समाप्ति के बाद, राजभवन में युवराज के अक्षराभ्यास का कार्यक्रम शुरू हुआ। राजपुरोहित ने, युवराज से अक्षर लिखवाने के लिए पटिया माँगी। चंद्रकांत और महीधर इस बात को जानने के लिये बड़े ही उत्सुक थे कि उनमें से किसकी पटिया युवराज को दी जायेगी।
तब, सूर्यसेन उठा, राजाओं की ओर ध्यान से देखा और कहा, ‘‘युवराज के अक्षराभ्यास के उत्सव में भाग लेने विशेष अतिथि बनकर राजा चंद्रकांत और राजा महीधर यहाँ पधारे। मेरे इन दोनों मित्रों ने, युवराज की विद्याभिवृद्धि की इच्छा प्रकट करते हुए एक ने स्वर्ण पटिया दी और दूसरे ने, सरस्वती के मंदिर में पूजी गयी हाथी के दंत की पटिया दी। उन्हें मेरा हृदयपूर्वक धन्यवाद। राज्य की परम्परा के अनुसार जनता के आशीर्वाद पाने के लिए जब हम निकले, तब सुधाम नामक एक दरिद्र बालक अपनी एकमात्र पटिया युवराज को देने के लिए लालायित था। मैंने खुद जाकर उसे स्वीकार की। अब यहाँ तीन पटिये हैं। प्रजा की इच्छा के अनुसार ही चलना हमारी परिपाटी और परम्परा है। इसलिए, आप ही बताइये कि इनमें से किस पटिया पर युवराज के अक्षराभ्यास का प्रारंभ हो।''

दोनों राजा कुछ कहने ही वाले थे कि इतने में सभी सभिकों में से एक ने कहा, ‘‘हमारे राजा धर्मप्रभु हैं। राजा और रंक दोनों उनके लिए समान हैं। नादान सुधाम ने जो पटिया प्रेमपूर्वक दी, उसी से युवराज के अक्षराभ्यास का प्रारंभ होना चाहिये।'' कहते हुए सबने हर्षध्वनि की।
राजा सूर्यसेन ने राहत की सांस ली। वे जान गये थे कि यदि वे किसी एक राजा की पटिया का प्रयोग करेंगे तो दूसरे राजा से शत्रुता मोल लेनी होगी। उन्हें यह भी भय था कि सुधाम की पटिया पर युवराज का अक्षराभ्यास करने पर शायद दोनों राजा नाराज हो जायें। पर प्रजा का पूरा सहयोग मिलेगा, यही एक मात्र भरोसा था।
युवराज जयंत का अक्षराभ्यास सुधाम की पटिया पर ही हुआ। चंद्रकांत और महीधर ने स्वयं देख लिया कि राजा सूर्यसेन अपनी सामान्य प्रजा को भी कितना चाहते हैं और प्रजा भी उन्हें कितना मानती है। इस अनन्य प्रेम व आदर को देखकर वे चकित रह गये। दोनों ने अब भली-भांति समझ लिया कि राजा को केवल आर्थिक व सैनिक बल ही नहीं बल्कि प्रजा का प्रेम व आदर भी अवश्य चाहिये। चूँकि सूर्यसेन अपनी प्रजा को सगी संतान मानते हैं, इसलिए प्रजा भी उन्हें उसी दृष्टि से देखती है, उनसे प्रेम और आदर विपुल राशि में प्राप्त होते हैं। दोनों राजाओं को लगा कि राजा के प्रति शत्रु भाव धर्म विरुद्ध है, इसलिए दोनों ने मैत्री का हाथ बढ़ाया।
इसके बाद, सूर्यसेन ने, विदर्भ-वैशाली राजाओं का आदर-सत्कार बड़े पैमाने पर किया और मूल्यवान भेंट देकर उन्हें बिदा किया।
सूर्यसेन को लगा था कि यह समस्या बड़ी ही गंभीर होने जा रही है और उसके विपरीत परिणाम भी होंगे, पर सुधाम के कारण समस्या आसानी से सुलझ गयी। उसने युवराज के साथ ही सुधाम के भी विद्याभ्यास का प्रबंध किया।



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  1. लखनऊ में तनाव तो धनीराम के गानों पर मस्‍त है सैफई
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