Thursday, June 30, 2011

भाग्य का खेल

हेलापुरी की दुर्गा सुसंपन्न गृहिणी थी। रघुनाथ उसका इकलौता बेटा था। पति के देहांत के बाद उसने उसे बड़े लाड़-प्यार से पाला-पोसा।


बालिग होने पर वह उसका विवाह कर देना चाहती थी। सुगंधिपुर के निवासी नारायण की पुत्री सिंधूर को देखते ही रघुनाथ उसपर लट्टू हो गया। वह बड़ी ही सुंदर व सुशील कन्या थी।


पर, नारायण अमीर नहीं था। वह दहेज देने की स्थिति में नहीं था। दुर्गा को यह रिश्ता पसंद नहीं था, क्योंकि वे दहेज दे नहीं सकते थे। पर रघुनाथ ने जिद की कि अगर शादी करूँगा तो सिंधूर से ही करूँगा। दुर्गा ने साफ़-साफ़ बता दिया कि किसी भी हालत में यह शादी हो नहीं सकती। रघुनाथ माँ का विरोध नहीं कर सका और चुप रह गया। परंतु, वह अपने मन से सिंधूर को निकाल नहीं पाया।


ऐसी परिस्थिति में नारायण का रिश्तेदार सत्तर साल का व्यवहार दक्ष वृद्ध श्रीकर दुर्गा से मिलने आया। अपना परिचय दे चुकने के बाद उसने दुर्गा से कहा, ‘‘सिंधूर का पिता नारायण मेरा आत्मीय बंधु है। चूँकि उसकी कोई जायदाद नहीं है, इसलिए उसकी बेटी से अपने बेटे की शादी करवाने से आप इनकार कर रही हैं। मैं आपको एक रहस्य बताना चाहूँगा। सिंधूर को उसकी मौसी की तरफ़ से बहुत बड़ी जायदाद मिलनेवाली है। सिंधूर के गले में जैसे ही आपका बेटा मंगलसूत्र पहनायेगा, उसके दूसरे ही क्षण बीस लाख रुपयों से अधिक रक़म उसकी हो जायेगी। इससे ज्यादा मैं और कुछ कहना नहीं चाहता।’’


यह सुनते ही दुर्गा खुशी से फूल उठी। उसने सोचा कि सिंधूर की धनिक मौसी ने अवश्य ही इस विषय में वसीयत लिखी होगी। दुर्गा ने श्रीकर को ध्यान से देखते हुए कहा, ‘‘आप वृद्ध हैं, बडे हैं।

मुझे पूरा-पूरा विश्वास है कि आप झूठ नहीं कहेंगे। परंतु याद रखियेगा, आपने जैसा कहा, वैसा नहीं हुआ तो विवाह रद्द करने से भी मैं पीछे नहीं हटूँगी। नारायण से कह दीजिये कि वह विवाह की तैयारियॉं शुरू कर दे।’’


इसके पंद्रह दिनों के अंदर ही, सिंधूर का विवाह रघुनाथ से धूमधाम से हो गया। लोग दुर्गा की उदारता की प्रशंसा किये जा रहे थे। नारायण के रिश्तेदार खुद उससे मिलकर उसकी तारीफ़ के पुल बांधने लगे।

नारायण से जितना हो सकता था, उसने दिया और बेटी सिंधूर को ससुराल भेजा। पर दुर्गा की आँखों को वे बीस लाख रुपये ही दिखायी दे रहे थे। इसलिए उसने इसपर ग़ौर ही नहीं किया कि नारायण ने बेटी को क्या दिया और क्या नहीं दिया। देखते-देखते एक महीना गुज़र गया। सिंधूर की मौसी की वसीयत की धन-राशि अब तक प्राप्त न होने के कारण दुर्गा ने श्रीकर को सुगंधिपुर से बुलवाया। उसके आते ही दुर्गा ने कड़े स्वर में उससे पूछा, ‘‘तुमने बताया था कि मेरा बेटा रघुनाथ जैसे ही सिंधूर के गले में मंगलसूत्र पहनायेगा, उसके दूसरे ही क्षण उसकी मौसी की जायदाद उसे मिल जायेगी, पर अब तक ऐसा नहीं हुआ। क्यों? तुम्हारा क्या कहना है?’’


इस पर श्रीकर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘दुर्गाजी, मैंने कहा था कि बहू हो जाते ही सिंधूर की सास यानी आप से बीस लाख रुपये मिल जायेंगे। लगता है आपने मेरा मनोभाव नहीं समझा। सिंधूर की मॉं नहीं रही। आप मॉं नहीं सही, पर मौसी के समान तो हैं न! अब सिंधूर ग़रीब नारायण की बेटी नहीं, संपन्न सास यानी मौसी दुर्गा की बहू है।’’


यह सुनते ही दुर्गा स्तब्ध रह गयी। इसके लिए किसी की निंदा नहीं कर सकते। फिर मन ही मन उसने सोचा, ‘लाखों रुपये भले ही न मिले, पर बेटे की इच्छा तो पूरी हुई। गुणवती कन्या उसकी बहू बनी। इससे बढ़कर और क्या चाहिये।’ अपने भाग्य पर खुश होती हुई दुर्गा ने मन ही मन श्रीकर की अ़क्लमंदी की प्रशंसा की और इसे भाग्य का खेल समझा।


फाँसी का फन्दा किसके लिए

एक जंगल में एक ऋषि का एक प्रसिद्ध गुरुकुल था जिसमें देश के कोने-कोने से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। विद्यार्थियों में अनेक राज्यों के राजकुमार भी होते थे जो बिना किसी विशेष सुविधा के सामान्य छात्रों के समान ही रहते थे। गुरु सब के साथ एक समान व्यवहार करते थे। सामान्य रूप से छात्र पाँच वर्षों तक वहाँ विद्या अध्ययन करते और उसके बाद अपने घर या राज्य में वापस चले जाते। उसी समय गुरुअपने शिष्यों में से चुने हुए एक शिष्य को अपने साथ लम्बी तीर्थ यात्रा पर ले जाते। तीर्थयात्रा से लौटने के बाद नये छात्रों के साथ नये सत्र का आरम्भ करते।
एक साल गुरु सत्यानन्द ने प्रताप नामक अपने एक शिष्य को अपने साथ यात्रा पर ले जाने का निश्चय किया। उन्होंने उससे पूछा, ‘‘प्रताप, मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ, जहाँ मन्दिरों के दर्शन के साथ भि-भि राज्यों के राजाओं से भी मिलकर उन्हें शासन सम्बन्धी सलाह दूँगा। क्या तुम मेरे साथ चलना पसन्द करोगे?''
प्रताप अभी पन्द्रह वर्ष का ही था। उसने सोचा कि गुरु के साथ कुछ दिन और रहने का सौभाग्य मिल रहा है, इसलिए इसका लाभ उठाना चाहिये। वह प्रसतापूर्वक तैयार हो गया।
एक दिन प्रातःकाल गुरु और शिष्य यात्रा केलए निकल पड़्रे। प्रचलित प्रथा के अनुसार यात्रा के दौरान चलते समय बातचीत करना मना था। लेकिन मार्ग में कोई दर्शनीय या विचारणीय वस्तु या दृश्य मिलने पर उसका निरीक्षण करना शिष्य के लिए अपेक्षणीय था। गुरु से इसका स्पष्टीकरण शिष्य तभी करता था जब कहीं वे रुककर विश्राम करते थे। विश्राम के समय गुरु या तो शिष्य से प्रश्न करता था या शिष्य के प्रश्नों का उत्तर देता था। इस प्रकार विश्राम का समय दोनों आनन्द के साथ काट लेते।

जब वे किसी मन्दिर के दर्शन करते तो उस गाँव के लोगों का आतिथ्य स्वीकार कर उनके पास एक-दो दिन ठहर जाते। और जब वे किसी राजधानी से होकर गुजरते तो वहाँ के राजा से मिलकर शासन सम्बन्धी समस्याओं पर विचार-विमर्श करते। पर उनका आतिथ्य स्वीकार न कर पुनः यात्रा पर चल पड़ते।
एक बार ये दोनों गुरु-शिष्य-ऋषि सत्यानन्द और प्रताप, बोधपुरी राज्य की राजधानी में पहुँचे। जब वे महल में राजा से मिलने जा रहे थे, तब लोगों से उन्हें मालूम हुआ कि वहाँ का राजा महामूर्ख है। उसकी हर हरकत मूर्खतापूर्ण होती है। वह मूर्खों को अपना मंत्री बनाता है और उन्हें ऊँचे वेतन देता है। उसके दरबार के बुद्धिमान लोगों को इतना कम वेतन दिया जाता है कि उनके परिवार को भर पेट भोजन नहीं मिलता। इसलिए वे भ्रष्टाचार से धन कमाते हैं जो राजा को मालूम नहीं होता। राजा का हुक्म है कि हर चीज-चाहे वह सब्जी, कपड़ा, जूता हो या टेबुल-कुर्सी- एक दाम पर बेचो। उसने गरीबों पर यह कह कर जुर्माना कर दिया कि तुम मूर्ख हो और बीमार पड़नेवाले लोगों को अर्थदण्ड की सजा इसलिए दी कि तुम काम पर क्यों नहीं जाते।
राजा के बारे में यह सब सुनकर, प्रताप ने, जो राज परिवार का था, गुरु से कहा, ‘‘गुरु जी, हमलोगों को इस राजा से नहीं मिलना चाहिये और महल की ओर भी नहीं जाना चाहिये। इस मूर्ख राजा से बात करने पर हो सकता है कि हम परेशानी में पड़ जायें। हमलोग लौटकर मार्ग बदल दें तो अच्छा रहेगा।''
परन्तु गुरु के विचार कुछ और थे। उसने कहा, ‘‘यह कैसे कह सकते हैं कि जो कुछ हमने सुना है, वह सच है? हमें स्वयं इसकी सचाई का पता लगाना चाहिये।''
जब वे महल के मुख्य द्वार पर पहुँचे तब उन्हें द्वारपालों ने कहा कि राजा दरबार कर रहे हैं और आप चाहें तो दरबार में जाकर राजा से आज्ञा ले सकते हैं। गुरु ने जब कहा कि वे गुरुकुल के ऋषि हैं और साथ में उनका शिष्य है तब द्वारपालों ने उन्हें दरबार में जाने की अनुमति दे दी।
अन्दर दो औरतें राजा से अनुरोध कर रही थीं। एक औरत ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे पति चोर हैं। वे एक व्यापारी के घर में, उसकी अनुपस्थिति में, सेन्ध लगा रहे थे।

दीवार ढह गई और...।'' औरत यह कहते-कहते भावुक हो उठी और रो पड़ी। दूसरी औरत ने वाक्य पूरा किया, ‘‘...और हम दोनों के पति दीवार के ढहने से उसके नीचे दबकर मर गये। यदि दीवार मजबूत होती तो हमारे पति नहीं मरते। व्यापारी को, इसके लिए सजा मिलनी चाहिये और हमलोगों को उसे भारी मुआवजा देनी चाहिये।''
राजा ने आज्ञा दी, ‘‘व्यापारी को उपस्थित करो।'' यह सुनकर दोनों औरतों ने एक दूसरे को सान्त्वना दी।
शीघ्र ही व्यापारी को दरबार में पेश किया गया। ‘‘महाराज, मेरी गलती से दीवार नहीं गिरी। पिछले वर्ष मैंने राजमिस्त्री को घर की मरम्मत के लिए बुलाया था। लेकिन लगता है कि उसने ठीक से घर की मरम्मत नहीं की। इसलिए यह राजमिस्त्री की गलती है।'' व्यापारी ने अपनी सफाई में कहा।
‘‘राजमिस्त्री को पेश करो।'' राजा ने आज्ञा दी। राजमिस्त्री आते ही राजा के पैरों पर गिरकर बोला, ‘‘महाराज, इसमें हमारी क्या गलती है? मशकवाले ने गारे में ज़्यादा पानी डाल दिया, इसीलिए दीवार कमजोर हो गई। अतः यह गलती मशकवाले की है।''
राजा क्रोध में कड़क कर बोला, ‘‘दुष्ट मशकवाले को पकड़ कर लाओ।''
मशकवाला राजा के सामने खड़ा होकर कुछ कहनेवाला था, परन्तु राजा धीरज खो चुका था। उसने कहा, ‘‘इसे ले जाकर फाँसी पर चढ़ा दो।''
यह सुनकर दरबार का हर आदमी हक्का-बक्का रह गया। ‘‘यह कैसी बेइन्साफी है!'' सब बड़-बड़ाने लगे, लेकिन राजा को सुनाई नहीं पड़ा।
शिष्य दरबार की इन हरकतों को देख कर भौचक्का रह गया। उसने गुरु के कानों में धीमे से कहा, ‘‘गुरु जी, हमलोगों को जल्दी यहाँ से खिसक जाना चाहिये। भगवान ही जानता है कि आगे वह क्या नहीं कर बैठे!''
‘‘नहीं प्रताप'', गुरु ने कहा, ‘‘यदि मैं राजा के मन में कुछ ज्ञान की बातें न डाल सका तो मैं अपने कर्त्तव्य से चूक जाऊँगा।''
ऋषि ने दूसरे क्षण राजा की ओर मुड़कर उसे सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘महाराज, जरा क्षण भर के लिए विचार कीजिये। क्या आप मशकवाले के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं?''

राजा चकित होकर बोला, ‘‘तुम यह कहनेवाले कौन हो कि मैं न्याय कर रहा हूँ अथवा अन्याय। मैं तुम्हारी यह धृष्टता बर्दाश्त नहीं कर सकता।''
फिर क्रोध में चिल्लाकर सिपाहियों से कहा, ‘‘इसे ले जाओ और मशकवाले के बदले फाँसी पर चढ़ा दो।''
दो सैनिक ऋषि को पकड़कर ले जाने लगे। शिष्य भी उसके साथ साथ जाने लगा। वह गुरु के कानों में कुछ फुसफुसाया। अचानक राजा की ओर मुड़ कर ऋषि बोला, ‘‘कृपया फाँसी से पहले हमारी आखिरी इच्छा पूरी कर लेने दीजिये।''
‘‘तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है? मैं उसे अवश्य पूरी करूँगा।'' राजा ने कहा।
‘‘महाराज, क्या मैं अपने शिष्य से बात कर सकता हूँ।'' ऋषि ने अपनी अन्तिम इच्छा बताई। राजा ने संकेत से उसे अपने शिष्य से मिलने की स्वीकृति दे दी।
शिष्य से बात करने के बाद ऋषि ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, मेरे शिष्य ने अपनी अन्तर्दृष्टि से देखा कि स्वर्ग के अधीश्वर अपने रथ में सवार नीचे धरती पर उतर रहे हैं। उन्होंने मेरे शिष्य से कहा, ‘तुम्हारा गुरु निर्दोष है। इसलिए मैं उसे स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं आया हूँ।' महाराज, यदि आप मुझे फाँसी पर लटका दें तो मैं प्रसता के साथ स्वर्ग चला जाऊँगा।''
राजा इस पर क्रोधित हो उठा। उसने कहा, ‘‘वैकुण्ठाधीश तुम्हारे लिए क्यों आयेंगे, मेरे लिए क्यों नहीं? मैं एक राजा हूँ और तुम केवल एक ऋषि हो। इसलिए तुम्हारे स्थान पर मैं फांसी पर लटकूँगा और वैकुण्ठ जाऊँगा।'' इतना कहकर वह फाँसी के तख्ते पर आ गया जहाँ जल्लाद फाँसी का फन्दा तैयार कर रहा था।
किन्तु जल्लाद मूर्ख राजा से कहीं अधिक बुद्धिमान था। काँपते हुए हाथों के साथ वह बोला, ‘‘महाराज, आप के सिर के लिए फाँसी का फन्दा बहुत छोटा है।'' राजा निराश होकर अपने सिंहासन पर चला गया।
ऋषि शिष्य से बोला, ‘‘प्रताप, राजा को सुधारने की कोशिश करना व्यर्थ है। इस संसार में कुछ जन्मजात मूर्ख होते हैं, कुछ परिस्थितियों के कारण मूर्ख हो जाते हैं, कुछ अन्य लोग धूर्त व्यक्तियों के द्वारा मूर्ख बनाये जाते हैं। चलो, देखते हैं कि दुनिया में क्या कम से कम कुछ बुद्धिमान लोग भी रहते हैं?''
कहानी का शेषांश आप की कल्पना पर छोड़ दिया जाता है।



ध्रुवीकरण पत्र

जमींदार बजरंग राय स्वयं व्यक्तियों के व्यवहार -ज्ञान तथा उनकी ईमानदारी के बारे में तहक़ीक़ात करते थे और उन्हें ग्रामाधिकारी के पद पर नियुक्त करते थे। उन्हें समाचार मिलने लगे कि इनमें से चंद ग्रामाधिकारी घूसखोर हैं। एक दिन पहले उन्हें गुप्तचरों से समाचार मिला कि ग्रामाधिकारी नवीनचंद्र अव्वल दर्जे का घूसखोर है। उन्होंने तुरंत दिवान को बुलवाया और हुक्म दिया कि उस घूसखोर के बारे में विवरण इकठ्ठे किये जायें। पूरा विवरण मिल चुकने के बाद दिवान को इसमें संदेह नहीं रह गया कि नवीनचंद्र बड़ा ही घूसखोर है।
दिवान ने एक हफ्ते के अंदर ही उसका तबादला समस्तपुर में कर दिया। समस्तपुर वह गाँव है, जहाँ लोग आपस में नहीं झगड़ते, चोरियाँ नहीं होतीं। जहाँ सदा शांति छायी रहती है। दिवान ने सोचा कि ऐसे प्रशांत गाँव में भेजने से नवीनचंद्र को घूस लेने का कोई मौक़ा ही नहीं मिलेगा।
महीना बीत गया, पर कोई भी शिकायत लेकर नवीनचंद्र के पास नहीं आया। इससे वह बड़ा ही दुखी हुआ। बिना घूस लिये उससे रहा नहीं गया।
एक दिन वह सबेरे खिडकी के पास खड़े होकर गली से होते हुए आने जानेवालों को देख रहा था। उसने देखा कि दो आदमी ऊँची आवाज़ में वाद-विवाद करते हुए गुज़र रहे हैं। नवीनचंद्र ने चिल्लाकर उन्हें बुलाया और उनसे पूछा, ‘‘बीच रास्ते में किस बात को लेकर तुम दोनों आपस में झगड़ रहे हो?'' उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, ‘‘महोदय, हम दोनों जिगरी दोस्त हैं। हम चर्चा कर रहे थे कि इस साल उड़द दाल का दाम अधिक होगा या मूँग दाल का।''
‘‘ठीक है, दोनों दस-दस रुपये दो। तुम दोनों दोस्त हो, इसका ध्रुवीकरण पत्र दूँगा।'' नवीनचंद्र ने कहा।


शिवदास की कविता


गंगावर नामक गाँव में शिवदास नामक एक कवि रहा करता था। जो भी उसकी कविता सुनते थे, उसकी प्रशंसा किये बिना रह नहीं सकते थे। सरल भाषा में भाव चित्रों से भी भरी उसकी कविता हरेक को भाती थी।
उसकी कविता सुनकर ग्रामीण उससे कहा करते थे, "शिवदास, एक बार जाकर राजा से मिलो। तुम्हारी कविता सुनेंगे तो तुम्हारा कनकाभिषेक करायेंगे। तुम्हारी ग़रीबी हमेशा के लिए दूर हो जायेगी।"
शिवदास इसके जवाब में कहता था, "मेरी कविता जब उस स्तर की होगी, तब अवश्य ही राजा से मिलने जाऊँगा।"
शिवदास की कविता की प्रशंसा हर गाँव में होने लगी। यह समाचार कनकपुर के ज़मींदार भुवनशंकर को भी मालूम हुआ। भुवनशंकर खुद एक कवि थे। उन्होंने शिवदास को बुलवाया और कविता सुनाने के लिए कहा। उसकी कविता ज़मींदार को बहुत ही अच्छी लगी। ज़मींदार ने उसका सत्कार किया और मूल्यवान भेंटें दीं। उन्होंने उसे विदा करते हुए कहा, "कभी-कभी आकर अपनी मधुर कविता सुनाते रहियेगा, अन्यथा मुझे ही आपका गाँव आना पड़ेगा।"
"यह आपने क्या कह दिया मालिक। मैं खुद कभी-कभी चला आऊँगा और नयी कविता सुनाऊँगा।" शिवदास ने कहा।
ग्रामीणों को जब मालूम हुआ कि शिवदास गाँव लौट आया है, तो गाँव के कुछ प्रमुख लोग उससे मिलने खुद चले आये। उसका अभिनंदन करते हुए उन्होंने कहा, "शिवदास, हम कितने ही दिनों से कह रहे थे, पर तुमने हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया। तुम्हारी प्रतिभा का जीता-जागता उदाहरण है, ज़मींदार से प्राप्त सत्कार। अब राजा से भी मिल आना।"

"इसके लिए कुछ और समय लगेगा।" उनकी बात को टालते हुए उसने कहा।
तीस दिनों के बाद ज़मींदार ने फिर से शिवदास को अपने यहाँ बुलवाया। परंतु ज़मींदार किसी ज़रूरी काम पर अचानक कहीं गये थे। वे अब कनकपुर से थोड़ी दूरी पर प्रवाहित होनेवाली गंगा नदी के तट पर स्थित क़िले में थे। ज़मींदार के नौकर उसे उस जगह पर ले गये।
शिवदास की सुनायी मधुर कविता को सुनकर ज़मींदार मंत्रमुग्ध हो गये। उन्होंने शिवदास से कहा, "आपने कमाल की कविता सुनायी। इतनी मधुर कविता मैंने इसके पहले कभी नहीं सुनी। मेरी इच्छा है कि कुछ दिनों तक आप यहीं ठहर जाएँ और हमारा आतिथ्य स्वीकार करें।" फिर उन्होंने उसके रहने के लिए आवश्यक प्रबंध किये।
शिवदास सूर्योदय के पहले ही जाग गया और नदी तट पर गया। वहाँ का वातावरण कितना ही सुहावना था ! गंगा नदी में जल भरा हुआ था। उसके गंभीर प्रवाह को देखता ही रह गया। उसे लगा, मानों वह ओंकार नाद हो। सूर्योदय के बाद उसकी किरणें जल पर चमक रही थीं। उसे लगा, मानों स्वर्ण प्रवाहित हो रहा हो। इस दृश्य का मनन करते हुए वह किले में पहुँचा और उस दृश्य के भाव चित्रों को तालपत्रों पर लिख डाला। उसे पढ़ते हुए उसे अलौकिक आनंद हुआ।
तब से लेकर वह हर दिन सुबह और शाम को नदी तट पर चला जाता था, गंगा को जी भरके देख लेता था। वहाँ के सुंदर वातावरण का वर्णन करते हुए कविताएँ लिखता था। उन कविताओं में गंगा माँ की करुणा का वर्णन करता था, जिसकी कृपा से करोड़ों प्राणी जीवित होते हैं।
एक सप्ताह के बाद ज़मींदार की अनुमति लेकर स्वग्रम पहुँचा।
शिवदास जब अपनी ही कविता गुनगुनाने लगा, तब उसे विश्वास होने लगा कि अब मेरी कविता राजा को सुनाने के योग्य है। उसमें राजा से मिलने की इच्छा प्रबल होती गयी। उसका निर्णय सुनकर ग्रामीण बहुत ही खुश हुए।
शिवदास को भेजने के लिए आये ग्रामीणों में से एक ने कहा, "इतने लंबे अर्से के बाद हमारी बात मानकर तुम राजा के दर्शन करने जा रहे हो।"

यह बहुत खुशी की बात है। गाँव के एक और प्रमुख ने कहा, "राज सम्मान पाने के बाद, आस्थान कवि बन जाने के बाद कहीं हमें और हमारे गाँव को भूल तो नहीं जाओगे?" तब एक और ग्रामीण ने टिप्पणी की, "हमारा शिवदास ऐसे आदमियों में से नहीं है। स्वभाव से यह बहुत ही अच्छा है।"
चौथे व्यक्ति ने टिप्पणी की, "भला अभी यह कैसे कह सकते हैं? पता नहीं, संपन्न हो जाने के बाद इसमें कितना परिवर्तन हो जायेगा।"
"अरे, तुम तो संपदा की ही बात कर रहे हो। आगे जाकर बड़े-बड़े लोगों से इसकी दोस्ती होगी, उनसे संबंध जुड़ेंगे। तब जाकर हम जैसे साधारण मनुष्यों को भूल भी जाए तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?" एक और प्रमुख ने कहा। इस विषय को लेकर वे तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने लगे और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
गाँववालों से शिवदास बिदा लेकर आगे बढ़ा, पर उसे लगा कि ये टिप्पणियाँ उसके लिए चेतावनी के समान हैं। इसी को लेकर वह सोच में पड़ गया। मन में तरह-तरह की शंकाएँ पैदा होने लगीं। उसके मन में खलबली मच गयी। वह राजधानी की ओर नहीं गया और गंगा तट पर पहुँच गया। नदी को देखते ही उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह गंगा माँ से कहने लगा, "माँ, मुझे क्षमा करना। तुम्हारी महानता की प्रशंसा करते हुए मैंने कविताएँ रचीं। पर, क्यों? उन्हें समर्पित करके राजाश्रय पाने के लिए? सुख में डूबकर अहंकारी कहलाने के लिए? ऐहिक सुखों में लिप्त होकर अपनों से दूर रहने के लिए? कविताएँ हम दोनों के बीच में माँ-बेटे के अनुबंध के सूचक मात्र हैं। इसके लिए किसी और की प्रशंसा पाने की आवश्यकता नहीं है, किसी का सम्मान पाने की ज़रूरत नहीं है। मैं इन्हें तुम्हें ही समर्पित कर रहा हूँ। मेरे अपराध को क्षमा कर देना।" कहते हुए आँखें बंद करके उन ताल पत्रों को एक-एक करके वह नदी में छोड़ता गया।
सभी तालपत्रों को गंगा माता को समर्पित करने के बाद उसने आँखें खोलीं तो शिवदास ने एक अद्भुत दृश्य देखा। जिन तालपत्रों को उसने नदी में छोड़े, वे सुवर्ण पत्रों में परिवर्तित हो गये। प्रवाह वेग में वे बह नहीं गये। शिवदास के पास के पानी के पास ही वे टिक गये। इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर उसे संदेह होने लगा कि यह सच है या सपना? उसने तुरंत एक तालपत्र को अपने हाथ में लिया। उसकी कविता बड़े ही सुंदर ढंग से उसमें लिखी हुई थी।

उसी समय एक मृदु स्वर सुनायी पड़ा, "कोई भी कला तभी सार्थक मानी जायेगी, जब वह जन हित में हो। अमृत तुल्य तुम्हारी कविता भी इसी श्रेणी में आती है। अनावश्यक संशयों को त्यजो और संयम का पालन करो। सब शुभ ही शुभ होगा।"
शिवदास ने सब तालपत्रों को जमा किया और भक्ति और श्रद्धापूर्वक उन्हें आँखों से स्पर्श किया। उसने देखा कि ज़मींदार का परिवार उसी की ओर बढ़ता चला आ रहा है। शिवदास के पास पहुँचने के बाद ज़मींदार ने कहा, "मुझे अभी-अभी मालूम हुआ कि आप यहाँ पधारे तो आपसे मिलने यहाँ चला आया। यह भी मालूम हुआ कि गंगा माँ ने आपकी कविताओं को आशीर्वाद दिया। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। चलिये, चलते हैं।"
"क्षमा कीजिये। मैं कहीं नहीं जाऊँगा। मुझपर कृपा करके मेरे लिए यहाँ एक कुटीर बनवा दीजिये।" शिवदास ने कहा।
ज़मींदार ने उसकी इच्छा पूरी की। राजधानी लौटने के बाद उसने राजा से इस अद्भुत दृश्य के बारे में सविस्तार कहा। साहित्य प्रिय राजा स्वयं शिवदास से मिलने चले आये। उसकी कविताओं को सुनकर वे तन्मय हो गये। साथ ही, आस्थान कवि बनने के लिए उन्हें आमंत्रित किया।
पर शिवदास ने विनयपूर्वक इनकार करते हुए कहा, "मेरी एक विनती है। गंगा तट पर एक मंदिर का निर्माण करवाइये। उस ज्ञान गंगा की सेवा करते हुए यहीं रह जाऊँगा। मैं सदा के लिए आपका कृतज्ञ बना रहूँगा।"
वहाँ बहुत ही शीघ्र एक मंदिर का निर्माण हुआ, जिसमें स्वर्ण तालपत्र सुरक्षित रखे गये। शिवदास बिना आडंबर के वहीं रहने लगा और उसने अनेक कविताएँ रचकर प्रजा को समर्पित किया।





दुश्मन में फूट

दुश्मन में फूट वेंकटगिरि नामक गाँव में वीरबाहू नामक एक किसान था। उसके चार एकड़ जमीन थी। वह कड़ी मेहनत करके फ़सल पैदा करता और उससे होनेवाली आमदनी से ज़ैसे-तैसे अपना परिवार चला लेता था।
एक साल बरसात न होने की वज़ह से अकाल पड़ा, साथ ही उस प्रदेश में चोरों का बोलबाला हो गया। मगर दूसरे साल अच्छी वर्षा हुई और खेत लहलहाने लगे।
वीरबाहू के खेत में ज्वार हरा-भरा था। उसमें भुट्टे निकल आये थे। पिछले साल अकाल पड़ने से चोरों का डर बना रहता था, इसलिए वीरबाहू रात के व़क्त खेत पर पहरा देता था। एक दिन की ठण्ढी रात में वह अपनी झोंपड़ी में लेटा हुआ था कि खेत में कोई आहट हुई। वीरबाहू ने सोचा कि खेत में चोर घुस आये होंगे। वह कंबल ओढ़, हाथ में लाठी लेकर खेत की ओर चल पड़ा।
थोड़ी दूर पर चार चोर खेत में घुसकर भुट्टे काट रहे थे। चांदनी रात थी। वीरबाहू ने उन्हें पहचान लिया। वे चारों उसी के गाँव के थे। उसे डर लगा कि अकेले ही चारों का सामना करना जान पर खेलना है।
वह सोच ही रहा था कि उसके दिमाग में एक उपाय सूझा। वह लाठी को वहीं पर छोड़ निडर चोरों के पास पहुँचा।
वीरबाहू के खेत से भुट्टे काटनेवाले चोरों में एक ब्राह्मण, एक बनिया, एक क्षत्रिय और एक किसान था।
वीरबाहू ने पहले ब्राह्मण के निकट पहुँचकर प्रणाम किया और कहा, ‘‘ब्राह्मण देवता, आपको इस आधी रात के व़क्त यहाँ आकर कष्ट उठाने की क्या ज़रूरत थी? आप किसी से कहला भेजते तो मैं ख़ुद भुट्टे लाकर आपके घर पहुँचा देता, आप जितने चाहें, उतने काट लीजिये। यह सब आपके आशीर्वाद का फल है।''

किसान की बातें सुन ब्राह्मण उछल पड़ा और तेजी के साथ भुट्टे काटने में निमग्न हो गया।
इसके बाद वीरबाहू क्षत्रिय के पास पहुँचा और बोला, ‘‘राजा साहब, यह खेत आपका ही है, आप भी जितने चाहें, उतने भुट्टे काट लीजिये। हम तो आपकी प्रजा हैं। यह खेत आपका है।''
क्षत्रिय भी निश्चिंत होकर भुट्टे काटने लगा। तब वीरबाहू बनिये के पास जाकर बोला, ‘‘सेठजी, आप मौक़े - बे मौक़े उधार देकर हमें उबारते हैं। इसलिए यहाँ पर आप को रोकने ही वाला कौन है? आप भी मन चाहा भुट्टे काटकर ले जाइये।'' इस पर बनिये का डर भी जाता रहा।
वीरबाहू तब किसान के पास जाकर बोला,‘‘अरे भाई, इन तीनों को हम-जैसे लोगों को दान देने, कर चुकाने या कर्ज के रूप में धन देना पड़ता है, लेकिन तुम मुझ जैसे एक किसान होकर चोरी करने आये हो, यह बिलकुल ठीक नहीं है । चलो, मेरी माँ के पास! वही इस चोरी का फ़ैसला करेंगी।'' यों कहकर उस किसान को वीरबाहू झोंपड़ी के पास ख़ींच कर ले गया। बाक़ी ने सोचा कि वीरबाहू के खेत से भुट्टे काटने का उन्हें हक़ है। लेकिन किसान को नहीं है, इसलिए उन लोगों ने किसान की कोई मदद नहीं की।
वीरबाहू थोड़ी देर बाद लौट आया और ब्राह्मण के निकट जाकर बोला, ‘‘महाशय, मेरी माँ कहती हैं कि ब्राह्मण को चाहिये कि दान देने पर ले, पर चोरी करना अपराध है, चलो उनके पास!'' यों कहते वीरबाहू ब्राह्मण का हाथ पकड़ कर खींच ले गया।

थोड़ी देर बाद फिर वीरबाहू लौट आया, तब तक बाक़ी दोनों चोर भुट्टे काट रहे थे। इस बार वह बनिये का हाथ पकड़ कर खींचते बोला, ‘‘अजी सेठ साहब, मेरी माँ कहती हैं कि आपने हमें कभी कर्ज़ नहीं दिया, इसलिए आपका भुट्टे काटना अपराध है, इसलिए माँ के पास आकर आप ही अपनी सफ़ाई दीजिये।''
बनिये ने क्षत्रिय की ओर याचना भरी दृष्टि से देखा, लेकिन क्षत्रिय ने कुछ नहीं कहा। वह भुट्टे काटने में मशगूल था।
बनिये को झोंपड़ी के पास छोड़ वीरबाहू लाठी लेकर खेत में आ पहुँचा। तब तक क्षत्रिय भुट्टों की गठरी बांध रहा था। वीरबाहू के हाथ में लाठी देख वह गठरी के साथ तेज़ी से भागने लगा।
वीरबाहू ने क्षत्रिय का पीछा किया और उस पर लाठी चलायी। क्षत्रिय मार खाकर नीचे गिर गया। वीरबाहू ने रस्सी से उसके हाथ बांध दिये और कहा, ‘‘तुम्हें तो और लोगों को चोरी करते देख दण्ड देना चाहिये, मगर तुम भी चोरी करने पर तुल गये हो! इसकी सज़ा तुम्हें भोगनी है, चलो, तुम्हें भी वही सज़ा दिलाता हूँ जो सजा बाक़ी तीनों को मिलने वाली है।''
‘‘मुझे भी अपनी माँ के पास ले चलो, बाक़ी तीनों को तुम्हारी माँ ने माफ़ कर दिया तो मुझे भी माफ़ करेंगी।'' क्षत्रिय ने कहा।
वीरबाहू ने हँसकर कहा, ‘‘भाई, मेरी माँ और कोई नहीं, यही ज़मीन है। उसकी ओर से मैंने तुमको बाँध दिया। बाक़ी तीनों को भी मैंने अपनी झोंपड़ी में बांध कर रखा है।''
इसके बाद वीरबाहू ने चिल्ला कर आसपास के खेतों में काम करनेवालों को बुलाया, और सारी घटना उन्हें सुनाकर सवेरे होते ही सबको थाने में भिजवा दिया।
इस प्रकार वीरबाहू ने अकेले ही अपनी बुद्धि के बल पर चारों चोरों का सामना किया और अपनी फसल की रक्षा के साथ-साथ चोरों को उचित सबक भी सिखाया।


सावरकर की दुस्साहसपूर्ण वीरता

सन् 1909 में पहली जुलाई को लंदन नगर स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। ब्रिटिश भारतीय सरकार के सर कर्जन विलि को गोली से मार दिया गया। मारनेवाला था, इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त कर रहा गुप्त भारतीय क्रांतिकारी संस्था का कार्यकर्ता मदनलाल धिंग्र।
फ़ौरन ही प्रमुख अंग्रेजों तथा लन्दनवासी भारतीयों ने एक सभा आयोजित कर इस हत्या की भर्त्सना करते हुए प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव का विरोध किया, केवल एक व्यक्ति ने। सबने उस ओर मुड़कर देखा। वहाँ खड़ा था, दुबला-पतला सावरकर। वहाँ उपस्थित लोग चिल्ला पड़े, ‘‘उसे लात मारो और बाहर निकालो''। इतने में एक क्रोधित व्यक्ति उसके पास गया और उसने सावरकर के मुँह पर जोर से घूँसा मारा। इससे उसकी आँखों के पास चोट लगी और खून बहने लगा। फिर भी सावरकर ने अपना दायाँ हाथ उठाया और दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘अब भी मैं इस प्रस्ताव का विरोध करता हूँ।''
विनायक दामोदर सावरकर 1883 में मई 28 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर नामक गॉंव में जन्मे। उनके पिता पंडित थे। वे दामोदर सावरकर को बचपन से ही ऐतिहासिक कथाएँ और राणा प्रताप व शिवाजी की वीरगाथाएँ सुनाया करते थे।
बहुत ही कम उम्र में उनके हृदय में कविता के प्रति रुचि उत्पन्न की गई और देशभक्ति के बीज बोये गये। पाँच साल की उम्र में ही वे अपनी मातृभाषा मराठी में गीत रचने लगे। बारह साल की उम्र में ही उनके लिखे लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। सहविद्यार्थी उन्हें पंडित, वक्ता और नेता मानकर उनका आदर करते थे ।
सन् 1897 में तब के बंबई के परगणे में उग्र आंदोलन शुरू हो गये। भारत देश में रहनेवाले कुछ क्रूर ब्रिटिश अधिकारियों की हत्याएँ की गयीं। भारत की स्वतंत्रता के लिए जिन-जिन क्रांतिकारियों ने ये हत्याएँ कीं, उन्हें मृत्यु दंड दिया गया।

मृत्यु दंड जिस दिन अमल में लाया जाना था, उस दिन वे शांति से भगवद्गीता के श्लोकों का पठन कर रहे थे। इन दृश्यों को देखकर सावरकर का हृदय दुख और क्रोध से उमड़ पडता था। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि भारत देश की दास्य शृँखलाओं को तोड़ने के लिए वे अपना जीवन समर्पित करेंगेएवं युवकों में स्वतंत्रता की दीप्ति प्रज्वलित करेंगे। इसके अनुरूप उन्होंने एक गुप्त संस्था का संगठन किया और स्वतंत्रता संग्रम करने के लिए देश के नागरिकों को हथियारों का उपयोग करने हेतु प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने का निर्णय लिया। आवश्यकता पड़ने पर इसके लिए प्राण त्याग करने के लिए भी वे सन्नद्ध हो गये।
सन् 1905 में स्नातक बनने के बाद इंग्लैण्ड में कानून की शिक्षा के लिए वे चुने गये। उनसे बताया गया कि इसके लिए उन्हें छात्रवृत्ति भी दी जायेगी। ब्रिटिश अधिकारियों ने यह सोचा कि इस बहाने से ही सही, सावरकर के कार्यकलापों पर रोक लगायी जा सकेगी। इसीलिए उन्होंने वैसा ही किया।
सन् 1906 में वे शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड निकले। वहाँ पहुँचने के बाद विद्याभ्यास के साथ-साथ बड़े ही उत्साह के साथ वहाँ भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ उन्होंने शुरू कर दीं। उन्होंने वहाँ गुप्त संस्थाओं की स्थापना की और उसमें यूरोप में पढ़नेवाले भारतीय युवकों को शामिल किया। धीरे-धीरे उनमें भारत की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने की प्रेरणा दी। उन्होंने महसूस किया कि शत्रुओं के दुर्ग में प्रवेश करके उसके बल के मूल आधारों को जानने के लिए यह सुवर्ण मौक़ा है।
परंतु कुछ देशभक्त भारतीयों ने यह कहकर उन्हें सावधान किया कि अवश्य ही इस पवित्र लक्ष्य के लिए हमें लड़ना है, लेकिन यह अंतिम लक्ष्य के लिए अवरोध न बने और वे इसके लिए ब्रिटेन में किसी प्रकार का आतंक न फैलाएँ।
फिर भी मदनलाल धिंग्र अपने आपको काबू में नहीं रख सके। किसी भी स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए तैयार होकर उन्होंने कर्नल विलि की हत्या कर दी और फांसी के तख्ते पर चढ़ गये। फांसी के पूर्व उसने घोषणा की कि भारतीय युवकों को दिये गये अमानुष मृत्यु दंड के प्रतिकार के रूप में ही मैंने यह कार्य किया। उन युवकों ने मातृभूमि की मुक्ति के लिए ही यह काम किया और अंग्रेज़ी सरकार ने इसे अपराध मानकर उन्हें मृत्यु दंड दिया।''

इसके बाद गुप्तचर संस्थाओं और पुलिस के अधिकारी लंदन के भारतीय विद्यार्थियों पर टूट पड़े, फिर भी सावरकर ने गुप्त कार्यकलापों को बरकरार रखा। उन्होंने इस दौरान अनेक ग्रंथों की रचना की। उनमें से मुख्य है, ‘‘1857 का भारतीय स्वतंत्रता संग्रम''। वहाँ की गुप्तचर संस्थाओं ने उस ग्रंथ को क्रांतिकारी, उकसानेवाला तथा द्रोहपूर्ण पाया। उसकी छपाई के पूर्व ही उस ग्रंथ को निषिद्ध कर दिया गया । किन्तु उपरांत शासकों की आँखों से बचाकर इस ग्रंथ की छपाई हॉलेंड में की गयी और हज़ारों प्रतियाँ गुप्त रूप से भारत में भेजी गयीं।
एक दिन शाम को भारत में हलचल मचा देनेवाला एक समाचार प्रकाशित किया गया। सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर पर काला पानी का दंड सुनाया गया। इससे एक युवक क्रोधित हो उठा और इसके प्रतिकार के रूप में नासिक के जिला कलेक्टर, ब्रिटिश अधिकारी जैक्सन को उसने गोली से मार डाला। देश-विदेश की अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित इस समाचार ने खलबली मचा दी।
इस घटना के मूल में जो व्यक्ति है, उसपर कठोर कार्रवाई करने का निर्णय लिया गया। सबकी दृष्टि सावरकर पर केंद्रित हुई। मित्रों तथा शुभचिन्तकों ने सावरकर को यह कहकर मनाया कि अब तुम्हारा इंग्लैंड में रहना उचित नहीं, किसी भी क्षण तुम पकड़े जा सकते हो। उनकी बात मानकर सावरकर फ्रांस चले गये। फिर भी यह देखते हुए कि उनके आदमी नाना प्रकार के कष्ट सह रहे हैं, तरह-तरह की बाधाओं का सामना कर रहे हैं, उन्होंने यही उचित समझा कि फ्रांस में न रहूँ और फिर से इंग्लैंड चला जाऊँ। बहुत ही जल्दी वे इंग्लैंड लौट आये।
जैसे ही, उन्होंने इंग्लैंड में क़दम रखा, पुलिस ने उन्हें घेर लिया और क़ैद कर लिया । उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। ब्रिटिश न्यायालयों ने आज्ञा दी कि वे तुरंत भारत भेज दिये जायें। बलवान, सुशिक्षित सैनिकों के साथ तथा कुछ स्काटलैंड यार्ड के अधिकारियों के संरक्षण में इस क्रांतिकारी को लेकर फ्रांस से होते हुए एक जहाज भारत जाने की ओर निकल पड़ा।

वह 1910 का साल था। सावरकर 26 वर्ष के थे। यद्यपि वे इंग्लैंड में चार सालों तक ही रहे, फिर भी उन्होंने इस दौरान भारतीय विद्यार्थियों को उत्साहित किया और उन्हें मातृभूमि के हित प्राणों को अर्पित करने के लिए तैयार किया। उनमें देशभक्ति जगायी।
जहाज जब आगे बढ़ रहा था तब सावरकर इस सोच में पड़ गये कि शत्रुओं से कैसे छुटकारा पाऊँ। उनसे बचकर निकलने पर ही आंदोलन चालू रखा जा सकेगा। उधर ब्रिटिश अधिकारी भी इसी कोशिश में लगे हुए थे कि वह किसी भी हालत में बचकर निकल न पाये।
रात होते-होते जहाज मार्सिली नामक फ्रेंच शहर पहुँचा। किनारे से दूर जहाज रोका गया और लंगर उतारा गया। सावरकर में आशा जगी, विश्वास पैदा हुआ। उन्होंने तुरंत ही पहरेदार को बुलाकर पूछा, ‘‘भाई, ज़रा शौच गृह में ले चलोगे?'' पहरेदार उसे कमरे की तरफ़ ले गया। उनके कमरे के अंदर जाने के बाद पहरेदार दरवाज़े के पास खड़ा हो गया। उस कमरे का दरवाजा शीशे का था। और दरवाजे के सामने बाहर एक आइना लटक रहा था। अंदर जो हो रहा था- वह आइने में प्रतिबिंबित होता था। कमरे की छत में छोटा-सा छेद था, जिसमें से आदमी निकल सकता था। सावरकर ने अपना कुर्ता निकाला और उससे अंदर के शीशे के दरवाजे को ढक दिया। फिर छेद में से होते हुए वे छत पर चढ़ गये और वहाँ से पानी में कूदकर तैरते हुए जाने लगे।
पहरेदार को संदेह हुआ तो उसे असली बात का पता लग गया। तैरते हुए जानेवाले सावरकर पर उसने बंदूक चलायी। लगातार वह गोलियाँ दागता रहा। उन गोलियाँ से बचते हुए, उस ठंडे पानी में डूबते हुए, तैरते हुए सावरकर ने फ्रांस की भूमि पर क़दम रखा और लंबी सांस ली । अब वे आज़ाद थे। इस बात पर उन्हें खुशी हुई कि अब उन्हें कोई पकड़ नहीं सकता।
पर थोड़ी ही देर में ‘‘पकड़ो उस द्रोही को'', चिल्लाते हुए ब्रिटिश सैनिक आने लगे। उन्होंने दौड़ना शुरू कर दिया। वे तब तक बहुत थक गये थे। पूरी ताक़त लगाकर वे दौड़ने लगे। अकस्मात् सामने से आते हुए एक फ्रेंच सैनिक से टकरा गये। उन्होंने फ्रेंच भाषा में कहा, ‘‘साहब, मैंने ब्रिटिश का राजनैतिक क़ैदी मात्र हूँ। फ्रांस में मैने क़दम रखा है। मैं अब बिल्कुल आज़ाद हूँ। आपकी सरकार से रक्षा माँगने का पूरा अधिकार मुझे है। मुझे अपने अधिकारियों के पास ले चलिये।''
तब तक ब्रिटिश सैनिक वहाँ पहुँच गये थे। उन्होंने फ्रेंच सैनिक को सोने की अशर्फियाँ भेंट स्वरूप दीं। उस फ्रेंच सैनिक ने सावरकर को उनके सुपुर्द कर दिया।
भारत में पहुँचने के बाद सुनवाई शुरू हो गयी। सावरकर पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने लोगों को उकसाने के लिए भाषण दिये, प्रजा को गुमराह किया आदि। इस अपराध में उन्हें पचास सालों का कठोर दंड दियागया । और 1911 में उन्हें अंडमान सेल्युलर जेल में भेज दियागया ।
वहाँ की विकट परिस्थितियों के बीच राजनैतिक क़ैदी नारकीय यातनाएँ सह रहे थे। हथकड़ियों के साथ हाथ उठाकर उन्हें खड़ा रखते थे। कोल्हू के बैलों की तरह चार क़ैदियों को बांधते थे और बैलों का काम उनसे करवाते थे। उन्हें कोड़ों से पीटते थे। इन यातनाओं को सह न सकने के कारण कुछ क़ैदी मर जाते थे। ब्रिटिश अधिकारी जिन वाहनों को उपयोग में लाते थे, उन्हें बैलों और घोड़ों की जगह पर इन क़ैदियों से खिंचवाते थे। क़ैदी इन गाड़ियाँ को ऊँची-नीची जगहों पर जब खींच नहीं पाते थे, तब वे ‘‘तेज़ी, तेज़ी से जाओ'' कहते हुए उन्हें चाबुक से मारते रहते थे। क़ैदी को क़लम और कागज़ को उपयोग में लाना मना था। इसलिए सावरकर उमड़ती हुई कविताओं को कांटों, कीलों से जेल की दीवारों पर लिखते थे।
सावरकर के आजीवन जेल की सज़ा को घटाते हुए दस सालों के बाद वे अलीपुर व रत्नगिरि जेल में लाये गये। आख़िर 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। आधुनिक भारत देश में अद्भुत धैर्य-साहस को प्रदर्शित करनेवाले देशभक्त वे वीर सावरकर के नाम से पुकारे जाने लगे।
सन् 1966 में 26 फरवरी को उनका निधन हो गया। महान पवित्र लक्ष्य के लिए उन्होंने जो आंदोलन चलाया, उन्होंने जो धैर्य, साहस प्रदर्शित किये, जो त्याग किये, वे इतिहास में शाश्वत रूप से रह जायेंगे।





वह अपने पिता को लवण के समान प्यार करती थी

एक बार एक अभिमानी राजा था। उसके सात बेटियाँ थीं। जब वे विवाह-योग्य बड़ी हो गईं तब राजा ने उनके विवाह के पूर्व यह जानने का निश्चय किया कि वे सब अपने पिता को कितना प्यार करती हैं।
छः बेटियों ने एक के बाद एक तत्काल कहा, ‘‘पिता, हमलोग आप को मधुरतम चीनी के समान प्यार करते हैं,'' ‘‘पिता हम आप को शहद के समान प्यार करते हैं'', ‘‘पिता हम आप को मधुरतम मिठाई के समान प्यार करते हैं।''
उनके उत्तर सुनकर राजा अत्यन्त आनन्दित हुआ। लेकिन अपनी सबसे छोटी बेटी की चुप्पी पर हैरान था। उसने उसे बुलाकर बगल में बिठाया और पूछा, ‘‘बताओ, मेरी छोटी बिटिया कि तुम मुझे कितना प्यार करती हो?''
राजकुमारी ने पिता की ओर देखा और कहा, ‘‘पिता, मैं आपको हृदय की बहुत गहराई से प्यार करती हूँ।'' उसने बहुत मीठी आवाज में जवाब दिया, ‘‘मैं आपको लवण के समान प्यार करती हूँ।''
राजा अपनी सबसे छोटी और सबसे प्यारी बेटी का उत्तर सुनकर अवाक् रह गया। उसने अपनी पीड़ा के उद्गार प्रकट करते हुए कहा, ‘‘तुम मामूली नमक की तरह, जो गरीब से गरीब के पास भी उपलब्ध रहता है, यदि मुझे प्यार करती हो तो हृदय की गहराई से बहुत प्यार कैसे कर सकती हो। सच बता, मेरी बेटी, तुम मुझे कितना प्यार करती हो?''
राजकुमारी ने पुनः कहा, ‘‘मैं आपको सच बताती हूँ मेरे प्रिय पिता, मैं आपको नमक की तरह प्यार करती हूँ।''

राजा उसकी बातों पर क्रोधित हो उठा। उसने निश्चय किया कि वह बड़ी बेटियों का विवाह राजाओं और राजकुमारों से करेगा। और सबसे छोटी बेटी के लिए एक लकड़हारे को चुना जो जंगल में एक छोटे से झोंपड़े में रहता था। राजकुमारी अपने पिता के इस निर्णय को सुन कर चुपचाप बहुत रोई। लेकिन उसने संकल्प किया कि यह एक दिन अपने पिता को विश्वास दिला देगी कि वह उसे बहुत प्यार करती है। इसलिए उसने चुपचाप महल छोड़ दिया और लकड़हारे की झोंपड़ी में जाकर रहने लगी।
विवाह के बाद पहले दिन जब लकड़हारा लकड़ी काटने के लिए जंगल जाने की तैयारी कर रहा था तब उसने कहा, ‘‘मेरे प्रिय पति, तुम यह गाँठ बाँध लो कि आज से तुम हर रोज मेरे लिए जंगल से कोई उपहार जरूर लाओगे। और तुम देखोगे कि हम लोग शीघ्र ही फलेंगे-फूलेंगे।''
लकड़हारा, जो राज घराने की अपनी बीवी से सहमा हुआ था, तुरन्त उसके कथनानुसार करने को राजी हो गया। उस दिन लकड़हारा बल्कि देर से लौटा। सूरज डूब चुका था पर तब भी वह जंगल में ही था और राजकुमारी को देने के लिए तब तक उसे कुछ नहीं मिला था। जब वह अन्धेरे में चलता हुआ वापस आ रहा था, तब कोई लम्बी मोटी सी चीज उसके पाँव से टकराई। उसने उसे एक मजबूत रस्सी समझ कर उठा लिया और घर ले जाकर अपनी पत्नी को दे दिया। राजकुमारी ने उसे दीये की रोशनी में देखकर कहा, ‘‘अरे, यह तो मरा हुआ साँप है!''
लकड़हारा घबरा गया। ‘‘कैसी भयंकर भूल हो गई! मरे हुए साँप का अब क्या करें?'' उसने सहमते हुए कहा।
‘‘छप्पर पर फेंक दो। सुबह देखेंगे कि क्या करना है।'' राजकुमारी ने कहा।
अब, ऐसा हुआ कि उस दिन रानी जो अपनी सबसे छोटी और सबसे प्रिय बेटी के प्रति राजा का कठोर व्यवहार देख कर बहुत दुखी थी, महल के बाग में टहल रही थी। घूमते समय किसी चीज से ठोकर लगने के कारण वह लड़खड़ा गई और मूल्यवान हीरे के साथ जड़ा हुआ उसका हार गले से निकल कर जमीन पर गिर गया। रानी इतनी शोक-विह्वल थी कि उसे यह पता नहीं चला कि हार गिर गया है। वह सम्भल कर फिर टहलने लगी। तब तक अन्धेरा होने लगा था। रानी महल में वापस चली गई।


शीघ्र ही, महल के उद्यान के ऊपर से उड़ते हुए एक गरुड़ ने नीचे चमकती हुई कोई चीज देखी। उसने झपट्टा मार कर हार को चोंच से उठा लिया और जंगल की तरफ उड़ गया। लकड़हारे की झोंपड़ी के ऊपर से उड़ते समय उसके छप्पर पर उसने एक मरा हुआ साँप देखा। उसने हार को छप्पर पर छोड़ दिया और मरा हुआ साँप उठा कर उड़ गया।
तब तक रानी को पता चल गया कि उसका हार कहीं खो गया है। राजा ने उसे विश्वास दिलाया कि उसका हार निश्चित रूप से वापस मिल जायेगा। उसने राज्य भर में ढिंढोरा पिटवाया कि जो भी रानी का हार वापस लाकर देगा उसे मुँह माँगा पुरस्कार दिया जायेगा।
दूसरे दिन सुबह जब लकड़हारा अपने छप्पर पर से मरे हुए साँप को हटाने गया तब वह वहाँ चकाचौंध कर देने वाली रोशनी देखकर डर गया। वह दौड़ता- चिल्लाता अन्दर आया, ‘‘राजकुमारी, राजकुमारी! आओ, देखो, छप्पर पर रोशनी चमक रही है। लगता है, आग लग गई है!''
राजकुमारी दौड़ती हुई बाहर आई। उसने छप्पर पर देखा और वह जोर से हँसती हुई बोली, ‘‘प्रिय पति, वह आग नहीं है। यह मेरी माँ का हीरे का अमूल्य हार है। भाग्य से यह हमलागों के पास आ गया है। मेरे पास एक अनूठी योजना है। समय आ गया है जब मेरे पिता मुझे समझेंगे।''
जब राजकुमारी अपने पति से बात कर ही रही थी कि उन्होंने मुनादी की ढोल पीटने की आवाज सुनी। ‘‘सुनो, सुनो!, सब लोग सुनो! रानी का अमूल्य हीरे का हार खो गया है। जिसे भी यह मिले और राजा को वह लौटा दे तो उसे मुँह माँगा इनाम दिया जायेगा। सब लोग सुनो, भाई, सब लोक सुनो!''
राजकुमारी ने अपने पति से कहा, ‘‘अभी तुरन्त हार के साथ महल में जाओ। मेरे पिता, राजा को यह नहीं बताना कि तुम कौन हो और इनाम में धन-दौलत नहीं माँगना। परन्तु जोर देकर अनुरोध करना कि वे हमलोग के साथ भोजन करें।
लकड़हारा तुरन्त महल के लिए रवाना हो गया। महल के द्वारपाल ने उसके हाथ में हार को देखकर उसे अन्दर पहुँचा दिया। लकड़हारे ने राजा को झुक कर सलाम किया और कहा, ‘‘महाराज, मैं रानी का हार लेकर आया हूँ। भाग्य ने इसे मेरे दरवाजे पर लाकर छोड़ दिया।''

राजा ने हार को अपने हाथ में लिया और उसकी जाँच-परख की। यह वास्तव में रानी का ही हार था। ‘‘हमलोग इसे लाकर वापस करने के लिए तुम्हारे कृतज्ञ हैं।'' राजा वे लकड़हारे से कहा। ‘‘यह बताओ कि तुम कौन हो और हम तुम्हें इस एहसान के लिए क्या इनाम दें।''
लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘‘मैं एक मामूली गरीब लकड़हारा हूँ और इनाम में सिर्फ यही मांगता हूँ कि महाराज कल मेरे और मेरी पत्नी के साथ मेरी झोंपड़ी में अकेले आकर भोजन करें।''
राजा को आश्चर्य हुआ परन्तु उसके सामने कोई चारा नहीं था, इसलिए उसे निमंत्रण को स्वीकार करना पड़ा। अतः दूसरे दिन शाम को राजा लकड़हारे की झोंपड़ी पर पहुँचा। राजकुमारी ने, जिसने अपनी पहचान छिपाने के लिए चेहरे पर घूंघट डाल लिया था, राजा को झुककर अभिवादन किया। वह चुपचाप उसे अन्दर ले गई और बैठने को कहा। फिर वह विविध प्रकार के मिष्टान्न ले आई। उसे खा लेने के बाद वह कुछ और मिठाइयाँ तथा अन्य मीठे पकवान लेकर आई। और हर बार वह राजा को सब मिठाई खा लेने पर जोर देने लगी। राजा अब ज्यादा मिठाई खा नहीं सकता था।
‘‘मुझे माफ करना। अब ज्यादा मिठाई खाने के लिए न कहो। मैं बीमार हो जाऊँगा। उसके बदले कुछ नमकीन खाने को नहीं दे सकती?''
यह सुनते ही राजकुमारी ने अपना घूंघट हटा लिया। ‘‘पिता'', उसने कहा, ‘‘जब मैंने कहा था कि मैं आप से नमक के समान प्यार करती हूँ, चीनी और शहद की तरह नहीं, तब आप मुझ पर क्रोधित हो गये थे। और अब आप मिठाई से परहेज कर नमकीन माँग रहे हैं।''
राजा लज्जित होकर अपना सिर झुका लिया। ‘‘माफ कर दो, मेरी बेटी!'' उसने कहा।
‘‘मैं नमक का महत्व नहीं समझ सका। तुम सचमुच मुझे मेरी अन्य बेटियों से अधिक प्यार करती हो।''
राजकुमारी ने पिता को गले से लगा लिया। राजा ने अपनी बेटी की योग्यता और बुद्धिमानी को समझते हुए उसे और उसके पति को अपने राज्य का एक भाग दे दिया। राजकुमारी और उसके लकड़हारे पति ने राज्य के अपने हिस्से पर बुद्धिमानी और सुचारु रूप से शासन किया।



राम की चाह

राम लक्ष्मीपुर का निवासी है। मज़दूरी करते हुए अपना और अपने परिवार के सदस्यों का पेट भर रहा है। उस गाँव में हर रोज़ मज़दूरी नहीं मिलती और अगर मिल भी जाए तो उसकी आमदनी नहीं के बराबर होती है।
इस आमदनी से वह अपने और अपने परिवार का पेट भर नहीं पाता और न उन्हें ठीक से कपड़े पहना पाता। यों वे इस दुःस्थिति में अपना जीवन गुज़ार रहे हैं। एक दिन रात को राम ने सपने में देखा कि वह वडा खा रहा है, जो उसे बहुत प्रिय है। नींद में ही उसके मुँह में पानी भर आया।
सवेरे उठते ही उसने सपने के बारे में पत्नी सीता से कहा। सीता ने लंबी साँस खींचते हुए कहा, ‘‘मांड का पानी पीने को हम तरस रहे हैं और तुम्हें वडा खाने की इच्छा हो रही है । बहुत खूब !'' इसके बाद मिट्टी के एक बरतन में वह मांड ले आयी और पति के सामने रखती हुई बोली, ‘‘मैं तुमसे कितनी ही बार कह चुकी हूँ कि शहर जाना और कोई काम ढूँढ़ना। पर तुम मेरी बात सुनते ही नहीं। इस व में ही रहेंगे तो हमारी ज़िन्दगी ऐसी ही होगी।''
राम गाँव छोड़कर जाना चाहता नहीं। इससे वह डरता भी है। इसलिए जब-जब पत्नी यह बात उठाती है, वह टाल देता है और कहता है, ‘‘देखेंगे''। इस बार भी उसने यही जवाब दिया और हाथ मुँह धोने के लिए पिछवाड़े में चला गया। इतने में पड़ोसी किसान मंगल के सात महीनों का बेटा रेंगता हुआ वहाँ आया और मांड के बरतन को नीचे गिरा दिया।
राम ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वजह से मांड का पानी भी पी नहीं पाया। मेरे नसीब में शायद यही लिखा है।'' ‘‘जाने दो न! बेचारा मासूम बच्चा है। उसे क्या मालूम! अभी-अभी तो वह रेंगना सीख रहा है। ग़लती हमारी है। हमें सावधान रहना था।'' सीता ने कहा। भूखा ही वह मज़दूरी ढूँढ़ने गाँव में गया।

वहाँ उसे कहीं भी कोई मज़दूरी नहीं मिली। पटवारी के घर से होते हुए जब वह गुज़रने लगा तब वडों के पकने की सुगंध आयी। राम के मुँह में पानी भर आया। तभी घर से बाहर आते हुए पटवारी से उसने कहा, ‘‘मालिक, कोई काम हो बताइये। करूँगा।'' ‘‘आज हमारे पिताजी का श्राद्ध है। सब व्यस्त हैं। ठीक है, तुम कुएँ से पानी खींचकर उस हौज को भर देना।'' कहते हुए वह बाहर चला गया। पानी कुएँ में बहुत नीचे था ।
फिर भी अपनी पूरी ताक़त लगाकर उसने हौज को पानी से भर दिया। एक घंटे के बाद पटवारी की पत्नी ने उसे दो रुपये दिये और जाने को कहा। ‘‘मालकिन, दो वडा हो तो दीजियेगा।'' राम ने माँगा।
‘‘वडे सबके सब ख़त्म हो गये। जो आये थे, पूरा खा लिया। हमारे लिए भी नहीं बचा।'' पटवारी की पत्नी ने अपनी लाचारी जताते हुए कहा। राम निराश होकर दलिया खरीदने सेठ की दुकान में गया।
‘‘अरे राम, मेरी पत्नी वडे बनाने के लिए चक्की चला रही है, चार-पाँच वडे खाकर जाना। इतने में उन अनाज के बोरों को अंदर रख देना।'' राम खुशी से फूल उठा। बोरे ढोकर अंदर डाल दिया।
इतने में लोई पीसती हुई सेठ की पत्नी को ओखली के नीचे से आये बिच्छू ने डंक मारा। वह रोने-बिलखने लगी। सेठ ताला लगाकर तुरंत उसे वैद्य के पास ले गया।


अपने नसीब को कोसता हुआ राम दलिया लेकर घर पहुँचा। सीता बादाम के पत्ते में छे वडे लाकर उसके सामने रखती हुई बोली, ‘‘लो, तुम्हारा सपना साकार हो गया।'' राम उन्हें देखते ही खुशी से फूल उठा और पूछा, ‘‘किसने दिये? कहाँ से मिल गये?''
‘‘पड़ोसी मंगल का बेटा घुटनों के बल चल रहा है न। हमारी परिपाटी के अनुसार जब बच्चा देहली पार करता है, तब वडे पकाये जाते हैं। उनका इकलौता बेटा जो है। इसीलिए मंगल की पत्नी ने इस खुशी में हमें भी दिया।'' सीता ने कहा।
‘‘मैं सब खा लूँ तो फिर हमारे बच्चों का क्या होगा?'' राम ने पूछा। ‘‘तुम बहुत चाहते हो, इसीलिए मैंने छिपा रखा। उनके आने के पहले ही खा लेना।'' सीता ने कहा। राम की आँखों में आँसू भर आये। वडे पत्नी को वापस देते हुए उसने कहा, ‘‘नहीं, उन्हें भी आने दो। सब मिलकर खायेंगे।'' इतने में मंगल का बेटा रेंगता हुआ आया और राम को देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ा।
राम ने उसे उठा लिया और उसे चूमते हुए कहा, ‘‘नन्हा बच्चा रेंगता हुआ जब देहली पार करता है, तो उसका आनंद ही कुछ और होता है। जिस मर्द को कमाना है, वह अगर देहली पार नहीं करता तो उससे अनिष्ट होता है। अधिक संतान पैदा करके मैं तकलीफें झेल रहा हूँ। इन बच्चों के भविष्य के लिए कुछ न करूँ और इसी गॉंव में रह जाऊँ तो यह मेरी बेवकूफी ही होगी। इससे बढ़कर अविवेक और क्या होगा ! जैसा तुमने कहा है, मैंने शहर जाने का निश्चय कर लिया है। सवेरे ही मुझे जगा देना। और हाँ, मार्ग में कुछ खाने के लिए रात में ही दलिया उबाल देना।''
पति की बातें सुनकर सीता फूला न समायी। उसने मन ही मन भगवान से प्रार्थना की कि उसके पति को शहर जाते ही कुछ अच्छा काम मिल जाये जिससे बच्चों को ठीक से खाना-कपड़ा मिल सके और ऐसे बुरे दिन फिर न देखने पड़ें।



किससे पूछें

सूरज और चांद बचपन से ही दोस्त हैं। दोनों ने धर्मपुरी के ज्ञानानंद विद्यालय में शिक्षा पायी। सूरज अध्यापक बना तो चांद उसी शहर में स्थित ज़मींदार के दिवान में उच्च पद पर काम करने लगा।


ऐसे तो दोनों घने दोस्त हैं, परंतु एक विषय में उनकी विचारधारा बिलकुल ही भिन्न है। किसी भी विषय पर औरों से चर्चा करने के बाद ही सूरज किसी निर्णय पर आता है। वह तभी संतृप्त होता है, जब दूसरे लोग भी उसे मानते हैं, स्वीकार करते हैं।


परंतु चांद किसी भी विषय को लेकर स्वयं गहराई से सोचता है और उसके बाद ही वह किसी निर्णय पर आता है। चाहे वह निर्णय ग़लत भी हो, उसपर डटा रहता है। वह किसी और से विचार-विमर्श नहीं करता और न दूसरे की टिप्पणी की वह परवाह करता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि दूसरों को सुनाने से वह मामला और पेचीदा हो जायेगा और अनावश्यक ही शंका उत्पन्न होगी।


दोनों दोस्त हफ्ते में कम से कम एक बार मिलते हैं। हर शनिवार की शाम को वे श्रीकृष्ण का मंदिर जाया करते हैं। मंदिर की सीढ़ियों से उतरते हुए उस हफ्ते की विशेष बातों पर बातें किया करते हैं।


जब एक दिन वे दोनों भगवान के दर्शन करने के लिए सीढ़ियॉं चढ़ रहे थे, तब मंदिर से उतरते हुए एक आदमी ने उनसे कहा, ‘‘मंदिर के दरवाज़े बंद हैं। पुजारी नहीं हैं,’’ कहता हुआ वह आदमी उतर गया। ‘‘इतनी दूर तक हमारा आना बेकार हो गया,’’ सूरज ने कहा। ‘‘किसी की बात को लेकर इतना परेशान क्यों होते हो?’’ चांद ने कहा।

नारायण पांडे की वाक् शुद्धि

माधव पांडे गदानगर का निवासी था। वह बड़ा ही राम भक्त था। उसकी पत्नी जानकी का स्वभाव और अभिरुचियाँ पति के ही जैसे थे। उनका बेटा नारायण पांडे गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहा था।
माधव पांडे राम की कथाएँ सुनाता था। कई लोग हर दिन इन कथाओं को सुनने उसके घर आया करते थे। संतुष्ट होकर जाने के पहले वे लोग थोडा-बहुत जो देते थे, उसी से वह अपना घर चलाया करता था।
नगरपाल गीर्वाणी उसकी राम कथाएँ सुनना चाहता था। एक दिन उसने माधव पांडे को बुलाया और कहा, ‘‘तुम्हारी कथाएँ सुनने की बड़ी इच्छा है। हर दिन मेरे दरबार में आना और सभिकों को कथाएँ सुनाना। जितना धन चाहते हो, दूँगा।''
माधव पांडे ने कहा, ‘‘यजमान्, आप धन देकर राम कथाएँ सुनना चाहते हैं। अगर मैं आपके दरबार में आऊँ और कथाएँ सुनाऊँ तो इसका यह मतलब हुआ कि मैं धन के लिए ही यह काम कर रहा हूँ। किन्तु मैं उन्हीं राम भक्तों को ये कथाएँ सुनाता हूँ, जो भक्ति-भाव से मेरे घर आते हैं। आप चाहें तो मेरे घर आकर वे कथाएँ सुन सकते हैं। आपसे मैं प्रतिफल भी नहीं मांगूँगा।''
गीर्वाणी नाराज़ हो उठा। पर कुछ कह नहीं पाया और चुप रह गया। माधव पांडे के पुत्र नारायण पांडे ने शिक्षा समाप्त की और दरबार में नौकरी पाने के लिए गीर्वाणी से मिला। गीर्वाणी ने खुश होते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे पिता केवल राम कथाएँ सुनाते हैं। तुम उपनिषद, वेद, अष्टादशपुराण, प्रबंध काव्य, नाटकों की कथाएँ आदि हर दिन मेरे दरबार में सुनाते रहना। लोग अगर तुम्हारे पिता से कथाएँ सुनना बंद कर दें और तुम्हारी कथाएँ सुनने मेरे दरबार में आने लगें तो तुम्हें बडी धन-राशि दूँगा।''

नारायण पांडे ने कहा, ‘‘रसीले ढंग से कथाएँ सुनाने की मेरी तीव्र इच्छा है। पर, आप चाहते हैं कि मैं अपने पिता से प्रतिस्पर्धा करूँ। यह मुझे समुचित नहीं लगता।''
‘‘मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि केवल पांडित्य में अपने पिता से प्रतिद्वंद्विता करो। अपनी कमाई से तुम सुखी रह सकते हो और अपने माता-पिता को भी सुखी रख सकते हो। इसमें अनुचित क्या है?'' गीर्वाणी ने पूछा।
नारायण पांडे को ये बातें सही लगीं। घर लौटने के बाद जब उसने यह विषय अपने पिता से कहा, तो उसने कहा, ‘‘जो तुम्हें सही लगता है, करना। केवल धन ही को महत्व मत देना।''
नारायण पांडे, गीर्वाणी के दरबार में काम पर लग गया। गीर्वाणी ने उसके बारे में विस्तृत रूप से प्रचार कराया। इस वजह से नारायण पांडे से कथाएँ सुनने बड़ी संख्या में लोग दरबार में आने लगे। गीर्वाणी ने उसे बड़ी रक़म दी और उसका सत्कार किया।
नारायण पांडे ने उसी नगर में एक बड़ा घर खरीदा। लक्ष्मी नामक एक सुंदर लड़की से शादी की और आराम से ज़िन्दगी गुज़ारने लगा। परंतु, इससे पिता माधव पांडे को संतुष्टि नहीं मिली। क्रमशः उसकी कथाएँ सुनने आनेवालों की संख्या घटती गयी। वह चिंतित हो उठा। इस स्थिति में, श्री राम उसे सपने में दिखायी पड़े और बोले, ‘‘चक्रपुर में मेरा मंदिर उजड़ गया है। वहाँ चले जाना और मेरी पूजा करना।''
जैसे ही वह जागा, उसने लोगों से पूछकर चक्रपुर के बारे में जानकारी प्राप्त की। मालूम हुआ कि वह गदानगर से दूर पर्वतों के बीच में स्थित है। वहाँ की भूमि खेती के योग्य है, पर वर्षा के अभाव के कारण वहाँ पीने के लिए भी पानी नहीं मिलता। इसी वजह से ग्रमीण वह प्रदेश छोड़कर चले गये और कहीं बस गये। अब उस गाँव में कुछ जंगली रहते हैं। राम के मंदिर की देखभाल करनेवाला कोई नहीं रहा।
माधव पांडे पत्नी समेत चक्रपुर पहुँच गया। जंगल के सरदार को जब उनके आने का कारण मालूम हुआ तो उसने माधव पांडे से कहा, ‘‘तुम दोनों उस उजड़े मंदिर में पूजा करोगे तो हम एक हफ्ते तक तुम दोनों की देखभाल करेंगे। इस बीच कोई चमत्कार हो जाए तो तुम लोग यहीं रह सकते हो। अन्यथा तुम्हें गाँव में रहने नहीं देंगे।''

माधव पांडे और जानकी राम मंदिर गये। मंदिर में दीप जलाये और पूजा की। रात को जब वे वहीं सो गये तब सपने में श्रीराम प्रत्यक्ष हुए और माधव पांडे से कहा, ‘‘तुम्हारी भक्ति-श्रद्धा पर मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुम्हें जो चाहिये, माँगो।''
माधव पांडे ने श्रीराम को प्रणाम करके कहा, ‘‘इस हफ्ते में ग्रमीणों को अपनी कोई महिमा दिखाइये।''
‘‘ठीक है, जैसे ही नींद से जागोगे, तुम्हें तुम्हारे बग़ल में चंदन की एक अच्छी लकड़ी दिखायी देगी। पहले उसे अपने दायें हाथ में लो। तब तुम्हें ज्ञात होगा कि कब क्या किया जाए। फिर उसे बायें हाथ में लेना। तुम जो कहोगे, वह होकर रहेगा। चंदन की लकड़ी केवल तुम्हारे वारिसों के उपयोग में ही आयेगी।'' यों कहकर श्रीराम अदृश्य हो गये।
जागने पर माधव पांडे ने बग़ल में चंदन की लकड़ी पायी। उसने अपने सपने के बारे में पत्नी को भी बताया। दोनों पास ही के सरोवर में जाकर नहाये। माधव पांडे ने बायें हाथ में चंदन की लकड़ी ली और कहा, ‘‘यह मंदिर बिल्कुल ही संगमरमर का नवीन मंदिर बन जाए।''
देखते-देखते वह उजड़ा मंदिर संगमरमर के मंदिर में परिवर्तित हो गया। इस चमत्कार को देखकर सभी ग्रमीण माधव के पैरों पर गिर पड़े।
इस बीच गदानगर में चंद परिवर्तन हुए। जब समाचार फैल गया कि नारायण पांडे ने कथाएँ सुनाकर पर्याप्त धन कमा लिया तो कलाकार नर्तकियाँ वहाँ आ पहुँचीं। इससे नारायण पांडे की कथाओं में नगरवासियों की कोई अभिरुचि नहीं रही। आमदनी बहुत कम हो गयी। उसने यह बात गीर्वाणी से बतायी।
गीर्वाणी ने कहा, ‘‘तुम अपने पिता के इकलौते बेटे हो। यहाँ रहकर करोगे भी क्या? चक्रपुर जाओ और उन्हीं के साथ रहना।'' व्यंग्य-भरे स्वर में उसने कहा।
नारायण पांडे भांप गया कि गीर्वाणी के मन में अब उसके लिए कोई सद्भावना नहीं है। वह पत्नी को लेकर दूसरे ही दिन चक्रपुर गया। बेटे और बहू को देखकर माधव पांडे और जानकी बेहद खुश हुए। माधव पांडे ने बेटे को थोड़ी दूर ले जाकर चंदन की महिमा के बारे में उसे बताया। फिर कहा, ‘‘स्वयं भगवान श्रीराम तुम्हें यहॉं ले आये। अपना हृदय राम भक्ति से भर लो। जैसे ही तुम योग्य बन जाओगे, इस मंदिर की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप दूँगा।''

चंदन की लकड़ी की महिमा के बारे में नारायण पांडे ने अपनी पत्नी लक्ष्मी को भी बताया। यह सुनते ही लक्ष्मी के मन में दुर्बुद्धि जगी कि उसका पति इस मंदिर का पुजारी बने। वह एक दवा जानती थी, जिसे खानेवाला एक महीने तक पलंग पर ही अस्वस्थ होकर लेटा रहेगा और फिर उसके बाद ठीक हो जायेगा। लक्ष्मी ने अपने ससुर को वह दवा खिलायी। माधव पांडे तुरंत अस्वस्थ हो गया और पलंग पर लेटा रहा।
वैद्यों ने माधव पांडे की परीक्षा की और कहा, ‘‘यह बीमारी ख़तरनाक नहीं है, इसकी कोई दवा भी नहीं है। बस, पानी में भीगना मत।''
पिता के बीमार पड जाने के कारण नारायण पांडे मंदिर का पुजारी बन गया। इसी को मौक़ा समझकर लक्ष्मी ने पति से कहा, ‘‘अपनी वाक् शुद्धि का सबूत प्रजा को दो और उनकी प्रशंसा पाओ।''
पत्नी के कहे अनुसार नारायण पांडे ने पहले दिन मंदिर में आये लोगों से कहा, ‘‘मुझमें वाक् शुद्धि है। आपमें से जिन्हें जो माँगना है, माँगो।''
कुछ लोगों ने चाहा कि उनके व्यापार में वृद्धि हो, कुछ ने निधियाँ चाहीं। यों तरह-तरह की इच्छाएँ लोगों ने प्रकट कीं। वे सब फलीभूत हुईं। परंतु नारायण पांडे की पत्नी लक्ष्मी अकस्मात् पक्षाघात की शिकार हो गई। कारण जानने के लिए नारायण पांडे ने चंदन की लकड़ी हाथ में ली तो उसका सारा शरीर जलने लगा। वह बहुत ही परेशान हो उठा। ऐसे समय पर गाँव के सब लोग उसके पास आये और कहने लगे, ‘‘आपके पिता ने हम सबकी भलाई की। वे अब बहुत ही अस्वस्थ हैं। उनकी पीड़ा हमसे देखी नहीं जाती। हम चाहते हैं कि जब तक आपके पिता स्वस्थ न हो जाएँ तब तक हमारे गाँव में वर्षा न हो।''


उनकी प्रार्थना के प्रभाव के कारण उस गाँव में वर्षा नहीं हुई। तालाब सूख गये। लोगों से ये तकलीफ़ें सही नहीं गयीं। तो वे फिर नारायण पांडे के पास आये और उन्हें बचाने की प्रार्थना की। नारायण पांडे उन सबको लेकर पिता के पास गया और अनजाने में उससे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करने की विनती की। उसने चंदन की लकड़ी को पिता के हाथ में रखा। उसकी सहायता से माधव पांडे पूरा विषय जान गया और कहा, ‘‘बेटे, पश्चाताप से बढ़कर कोई प्रायश्चित्त नहीं। अपने मन में श्रीराम को भर लो और निस्वार्थ होकर अपना कर्तव्य निभाओ।'' यह कहकर उसने चंदन की लकड़ी बेटे को दी।
नारायण पांडे ने चंदन की लकड़ी को क्या पकड़ा, उसके बदन की जलन गायब हो गयी। तब उसने जनता से कहा, ‘‘आप सबकी प्रार्थना है कि मेरे पिता स्वस्थ हो जाएँ। आप सब यही चाहते हैं कि जब तक वे स्वस्थ न हो जायें तब तक वर्षा न हो। वर्षा के अभाव का यही कारण है। उनके स्वस्थ होने में एक महीना लग सकता है। तब तक उन्हें हम गाँव से दूर रखेंगे। तब यहाँ वर्षा होगी।''
जनता ने यह मान लिया। नारायण पांडे स्वयं माँ सहित पिता को रामापुर ले गया। जैसे ही वह चक्रपुर लौटा, भारी वर्षा हुई। लोगों ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी वाक्शुद्धि अद्भुत है। भविष्य में तुम्हीं राम मंदिर के पुजारी बनो ।''
इसके एक महीने के बाद नारायण पांडे की पत्नी लक्ष्मी स्वस्थ हो गयी। पति-पत्नी दोनों मिलकर रामापुर गये। तब तक माधव पांडे बिल्कुल स्वस्थ हो गयाथा । पत्नी समेत नारायण पांडे ने पिता के पैर छूते हुए कहा, ‘‘पिताश्री, मैं पितृ द्रोही हूँ। देव पूजाओं के योग्य नहीं हूँ। आप चक्रपुर आइये और पूजा की जिम्मेदारियाँ स्वयं संभालिये।''
माधव पांडे ने प्यार से अपने बेटे को गले लगाया और कहा, ‘‘बेटे, तुममें वाक् शुद्धि है। स्वार्थ जब तक अपना फन नहीं फैलाता, तब तक वह रहेगी । स्वार्थ से छुटकारा पाना हो तो स्वानुभव चाहिये। श्रीराम की कृपा से वह तुम्हें प्राप्त होगा। भविष्य में सतर्क रहना। अब तुम पुजारी होने के सर्वथा योग्य हो।'' यों उन्होंने आशीर्वाद दिया।





मज़ाक

चारुलता और हेमलता अड़ोस-पड़ोस में रहती हैं। दोनों अधेड़ उम्र की हैं। शिक्षित भी हैं। उनके पति कुशल व दक्ष हैं, इसलिए व्यापार करते हुए खूब कमा रहे हैं। जब उनके पति अपने-अपने काम पर चले जाते हैं, तब वे जल्दी-जल्दी अपने घर के काम निबटाने में जुट जाती हैं। घर के काम पूरा होते ही, दोनों औरतें, किसी न किसी के चबूतरे पर बैठ जाती हैं और गपशप करती रहती हैं। देखने में वे दोनों बहुत गहरे दोस्त लगती हैं, पर एक-दूसरे का मज़ाक उड़ाने का मौक़ा ढूँढ़ती रहती हैं।


एक दिन शाम को आराम से बैठकर बातें करते समय, अपने पति के बारे में बोलती हुई चारुलता ने कहा, ‘‘इधर कुछ समय से मेरे पति मेरे प्रति पहले की तरह प्रेम नहीं दिखा रहे हैं, मेरा आदर नहीं कर रहे हैं।’’ हेमलता ने मन ही मन सोचा कि इसे चिढ़ाने का यह अच्छा मौका है। इसलिए उसने कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘क्या ऐसी बात है? किन्तु देखा, मेरे पति का बर्ताव। तुम्हारे पति के बर्ताव के बिलकुल विरुद्ध। पहले से भी ज्यादा वे मेरे प्रति और प्रेम दिखा रहे हैं, मेरा आदर कर रहे हैं। आये दिन कुछ न कुछ मेरे लिए भेंट ला रहे हैं।’’


यह सुनते ही चारुलता ने तपाक से कहा, ‘‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं। तुम्हारे पति पुरावस्तुओं के व्यापारी जो ठहरे।’’ इस पर हेमलता को कोई जवाब देते न बना।



सुनहला चाँद

जलपोतों के एक धनी व्यापारी के सात बेटे और एक बेटी थी। बेटों की शादी हो चुकी थी और वे सब व्यापार में पिता की मदद कर रहे थे। व्यापारी पूरे परिवार के साथ एक बड़े भवन में रहता था। सबसे छोटी बेटी तपोई सबकी आँखों का तारा थी। परिवार के सभी सदस्य उसे बहुत प्यार करते थे। विशेष रूप से उसके पिता उसकी हर इच्छा पूरी करने का प्रयास करते। फिर भी, तपोई ने ऐसा कभी प्रकट नहीं होने दिया कि वह एक धनी पिता की एकलौती बेटी है और वह साधारण खिलौनों के साथ ही खेलने में मस्त रहती थी।
एक दिन, तपोई "घर-घर'' खेल रही थी और मिट्टी के छोटे-छोटे बर्तनों में खाना पकाने की कोशिश कर रही थी। तभी उधर से गुजरती हुई एक बूढ़ी औरत उसके पास आई और मुस्कुराती हुई बोली, "प्यारी बच्ची, क्या तुम्हें मिट्टी के खिलौनों के साथ खेलने में शर्म नहीं आती, जबकि तुम्हारे पिता के पास इतना धन है कि वे तुम्हें एक सुनहला चाँद लाकर दे सकते हैं।
'' तपोई ने खेलना बन्द कर दिया, और अन्दर जाकर शान्तिपूर्वक सोचने लगी। मिट्टी के खिलौनों और गुड़ियों से खेलने में क्या खराबी है? उसने अपने आप से सवाल पूछा। यदि उसके पिता एक सुनहला चाँद लाकर उसे दे भी दें तो वह उसका क्या करेगी? अधिक से अधिक, वह अपनी सहेलियों से यह कहेगी कि उसके पास एक सुनहला चाँद है। "क्या वे मुझसे ईर्ष्या करेंगे अथवा मुझ पर केवल हॅंस भर देंगे?''
उसकी सबसे छोटी भाभी नीलेन्दी उसके पास आकर उसके साथ जमीन पर बैठ गई और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोली, "तपोई, क्या मुझसे नहीं बोलोगी? बोलो न, क्या बात है? मैं तुम्हारी समस्या का समाधान निकालूंगी। चलो, बोलो न मेरी छोटी प्यारी बच्ची!'' वह उसके के बालों को सहलाने लगी।

तपोई ने सोचा कि इस पर भरोसा किया जा सकता है। "वह बूढ़ी औरत! उसने मुझे मिट्टी के खिलौनों के साथ खेलते देखकर मेरा मजाक उड़ाया। उसने कहा कि यदि मैं चाहूँ तो मेरे पिता मुझे एक सुनहला चाँद दे सकते हैं। क्या मैं एक सुनहला चाँद पिता से माँग लूँ, भाभी?''
"ओह! तो यह है तुम्हारी समस्या! अच्छ, ठीक है। मैं माँ से बात करूँगी और वे पिता जी को बतायेंगी। निश्चय ही, वे तुम्हारे लिए सुनहला चाँद ला देंगे। जो भी खिलौना और गुड़िया है, उसी से खेलो।'' नीलेन्दी ने उसे प्यार से थपथपाया ।
जब व्यापारी भोजन के लिए घर पर आया, उसकी पत्त्नी ने धीरे से तपोई की अभिलाषा की चर्चा की। वह सिर्फ मुस्कुराया और बोला, "जब मैं आराम करता हूँ तब उसे मेरे पास भेज देना। मैं उससे पूछूँगा कि उसे कितना बड़ा सुनहला चॉंद चाहिये।'' उसकी पत्नी को इस बात की खुशी हुई कि व्यापारी को क्रोध नहीं आया और तपोई पर नाराज नहीं हुआ। वह जानती थी कि वह बेटी को बहुत प्यार करता है।
वह अभी मुश्किल से लेटा ही था कि तपोई आ गई। "पिताजी, क्या आपने मुझे बुलाया?''
व्यापारी ने तपोई से यह नहीं पूछा कि उसके मन में यह विचार कैसे आया। उसने सिर्फ यह जानना चाहा कि सुनहला चाँद कितना बड़ा होना चाहिये। "क्या खाने के प्लेट के बराबर?''
तपोई को अब जवाब देने में शर्म आने लगी। "तुम इसके साथ खेलना चाहती हो, यही न? मुझे मालूम है, इसे कितना बड़ा होना चाहिये। तुम्हें यह जल्दी ही मिल जायेगा।'' उसने प्यार से तपोई के सिर और मुखड़े को सहलाया और छाती से लगाते हुए कहा, "जाओ, अब खाना खा लो, मेरी अच्छी बच्ची!''
व्यापारी ने स्थानीय सुनार को एक सुनहला प्लेट बनाने का आदेश दे दिया। सुनार ने तुरन्त उसे बनाना शुरू कर दिया। दुर्भाग्यवश इसी बीच व्यापारी की मृत्यु हो गई। जब सुनहला चाँद बनाकर दे दिया गया तब उसकी माँ की भी मृत्यु हो गई। अब तपोई की सुनहला चाँद से खेलने की रुचि जाती रही । वह यह सोचकर परेशान रहने लगी कि सुनहले चाँद की उसकी इच्छा के कारण ही शायद उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई है।

तपोई ने सोचा कि इस पर भरोसा किया जा सकता है। "वह बूढ़ी औरत! उसने मुझे मिट्टी के खिलौनों के साथ खेलते देखकर मेरा मजाक उड़ाया। उसने कहा कि यदि मैं चाहूँ तो मेरे पिता मुझे एक सुनहला चाँद दे सकते हैं। क्या मैं एक सुनहला चाँद पिता से माँग लूँ, भाभी?''
"ओह! तो यह है तुम्हारी समस्या! अच्छ, ठीक है। मैं माँ से बात करूँगी और वे पिता जी को बतायेंगी। निश्चय ही, वे तुम्हारे लिए सुनहला चाँद ला देंगे। जो भी खिलौना और गुड़िया है, उसी से खेलो।'' नीलेन्दी ने उसे प्यार से थपथपाया ।
जब व्यापारी भोजन के लिए घर पर आया, उसकी पत्त्नी ने धीरे से तपोई की अभिलाषा की चर्चा की। वह सिर्फ मुस्कुराया और बोला, "जब मैं आराम करता हूँ तब उसे मेरे पास भेज देना। मैं उससे पूछूँगा कि उसे कितना बड़ा सुनहला चॉंद चाहिये।'' उसकी पत्नी को इस बात की खुशी हुई कि व्यापारी को क्रोध नहीं आया और तपोई पर नाराज नहीं हुआ। वह जानती थी कि वह बेटी को बहुत प्यार करता है।
वह अभी मुश्किल से लेटा ही था कि तपोई आ गई। "पिताजी, क्या आपने मुझे बुलाया?''
व्यापारी ने तपोई से यह नहीं पूछा कि उसके मन में यह विचार कैसे आया। उसने सिर्फ यह जानना चाहा कि सुनहला चाँद कितना बड़ा होना चाहिये। "क्या खाने के प्लेट के बराबर?''
तपोई को अब जवाब देने में शर्म आने लगी। "तुम इसके साथ खेलना चाहती हो, यही न? मुझे मालूम है, इसे कितना बड़ा होना चाहिये। तुम्हें यह जल्दी ही मिल जायेगा।'' उसने प्यार से तपोई के सिर और मुखड़े को सहलाया और छाती से लगाते हुए कहा, "जाओ, अब खाना खा लो, मेरी अच्छी बच्ची!''
व्यापारी ने स्थानीय सुनार को एक सुनहला प्लेट बनाने का आदेश दे दिया। सुनार ने तुरन्त उसे बनाना शुरू कर दिया। दुर्भाग्यवश इसी बीच व्यापारी की मृत्यु हो गई। जब सुनहला चाँद बनाकर दे दिया गया तब उसकी माँ की भी मृत्यु हो गई। अब तपोई की सुनहला चाँद से खेलने की रुचि जाती रही । वह यह सोचकर परेशान रहने लगी कि सुनहले चाँद की उसकी इच्छा के कारण ही शायद उसके माता-पिता की मृत्यु हो गई है।

"कौन? वह शैतान छोकरी? और तुम सब उसे खुश रखने के लिए पसीना बहा रहे हो ! यह सोचना बेवकूफी होगी कि वह तुम्हारे पतियों को तुम्हारे बारे में अच्छी बात कहेगी। तुम उसे किसी काम पर जरूर लगा दो।'' वह बुढ़िया पास में जाकर उसके कान में फुसफुसाई, "मैं बताऊँगी क्या करना है। उसे भेड़ चराने के लिए जंगल में भेज दो। या तो कोई लोमड़ी खा जायेगी या साँप काट लेगा। तुम कह देना कि बीमारी से मर गई।''
जब बुढ़िया चली गई तब बड़ी बहू ने अन्दर जाकर दूसरी बहुओं को भिखारिन के बारे में बताया। सभी बहुओं को बुढ़िया की सलाह अच्छी लगी। लेकिन नीलेन्दी को नहीं। पर अकेली वह क्या कर सकेगी? उस दिन से तपोई का भाग्य विपरीत हो गया और जिन्दगी मुसीबतों से भर गई। उसे हर तरह का घरेलू काम करना पड़ा। उसके काम में, उसकी भाभी कुछ न कुछ नुख्स ज़रूर निकालती। उसे भर पेट खाना भी नहीं मिलता था। वह आधा पेट खाकर यह प्रार्थना करती हुई सो जाती, "हे मंगलादेवी, कृपा करके मेरे भाइयों को शीघ्र वापस ला दो।''
एक दिन उसकी सबसे बड़ी भाभी ने उसे बुलाकर कहा, "आज भेड़ों को चराने के लिए जंगल में ले जाओ। यह रहा तुम्हारा भोजन।''
तपोई ने किसी प्रकार अपने आँसुओं को रोका। तपती धूप में वह पैदल जंगल कैसे जायेगी? भेड़ों को चरने के लिए छोड़ने के बाद वह भोजन करने बैठी। लेकिन भोजन के पैकेट में थोड़ा सा चावल और लकड़ी का बुरादा भरा पड़ा था। उसने खाना छोड़ दिया और शाम को घर भूखी ही लौटी। दूसरे पाँच दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। सातवें दिन नीलेन्दी ने भोजन का पैकेट दिया जिसमें भर पेट खाने के लिए काफी खाना था। दिन और सप्ताह गुजरते गये। जिस दिन नीलेन्दी खाना देती, उस दिन को छोड़ कर बाकी दिनों में तपोई को भूखी रहना पड़ता। एक दिन शाम को भेड़ों के झुण्ड से एक मेमना गायब हो गया। तपोई ने उसे इधर-उधर खोजा, उसका नाम लेकर पुकारा। कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला। अन्धकार हो रहा था और फैले बादल मंडरा रहे थे। इसलिए तपोई मेमने की अधिक खोज न कर शेष भेड़ों को लेकर घर वापस चली गई।

सबसे बड़ी भाभी उस पर बरस पड़ी और उसे मारने के लिए एक मोटी लकड़ी लेकर दौड़ी। तपोई डर कर जंगल की तरफ भाग गई। जंगल में घना अन्धकार था। तपोई ने डर से चिल्लाती हुई मंगलादेवी से प्रार्थना की, "माँ त्राहि माम, त्राहि माम! दया करो, माता! मेरे भाइयों को शीघ्र बुला दो माँ! मुझसे अब दुख सहा नहीं जाता।'' वह बार-बार रोती-बिलखती रही और मंगलादेवी को रक्षा के लिए बुलाती रही।
संयोग से, सातों भाइयों का पोत जंगल से गुजरते हुए वापस आ रहा था। भाइयों को एक लड़की की रोती-बिलखती आवाज सुनाई पड़ी। उन्हें सन्देह हुआ कि इतनी अन्धेरी रात में कौन रो रही होगी। दो भाई जहाज से उतरकर जंगल में उधर देखने गये जहाँ से रोने की आवाज आ रही थी। उन्होंने एक लड़की को देखा लेकिन उसे पहचानने और जानने में देर लगी कि यह उन्हीं की बहन तपोई है।
"तपोई, तुम इस समय जंगल में कैसे आई?'' दोनों भाइयों ने पूछा। तपोई ने अपनी दुख भरी कहानी सुनाई। भाइयों ने उसे सान्त्वना दी और वे अपने साथ पोत में ले गये। अन्य पाँचों भाइयों ने भी उसका बड़े प्यार से स्वागत किया। उन सब ने यह अनुभव किया कि नीलेन्दी को छोड़ कर बाकी सभी भाभियों ने इसके साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया है।
पोत के पहुँचने की खबर पाकर सभी बहुएँ उत्तेजित हो अपने पतियों का स्वागत करने के लिए समुद्र तट पर पहुँचीं। सबसे बड़ी बहू ने सबको यह हिदायत कर दी थी कि भाइयों के पूछने पर तपोई के बारे में उन्हें क्या बताना है। उन्हें बल्कि तपोई को सबके पीछे, गहनों और महॅंगे लिबास में सजी धजी देखकर ताज्जुब हुआ। अपनी पित्त्नियों को देखकर सभी भाइयों की भौहें चढ़ गईं। घर पहुँचकर उन सबने सारे उपहार नीलेन्दी को दे दिये और अन्य पत्त्नियों को अपनी बहन के साथ दुर्व्यवहार के लिए कोड़ों से पिटाई की। बहुत दिनों तक भाइयों ने तपोई को राजकुमारी की तरह रखा।
दन्तकथाओं के अनुसार तपोई की कहानी करीब पाँच शताब्दी पुरानी है। उड़िया लड़कियाँ आज भी "तपोई त्योहार'' मनाती हैं और उपवास रख कर मंगलादेवी से आशीर्वाद माँगती हैं ।





धर्म की जीत



लक्ष्मीपुर नामक गाँव में अनुपम नामक एक धनी रहा करता था। धन के साथ साथ वह कितने ही उपजाऊ खेतों का मालिक भी था। गरीब किसानों से वह खेती करवाया करता था और इसके लिए आवश्यक पूंजी भी उन्हें देता था। किसान प्यार से उसे ज़मींदार कहकर बुलाते थे। बिना किसी कमी के वे आराम से ज़िन्दगी गुजार रहे थे। अनुपम के पूर्वज महान मल्लयोद्धा थे। वह भी स्वयं उत्तम कोटि का मल्लयोद्धा था। अपने पूर्वजों की स्मृति में वह हर साल मल्लयुद्ध प्रतियोगिताएँ चलाया करता था। विजेताओं को वह पुरस्कार प्रदान करता था और उन्हें प्रोत्साहन देता था। इस वजह से अनुपम का नाम सब लोग जानते थे।

लक्ष्मीपुर, समस्तपुर ज़मींदारी के गाँवों में से एक था। समस्तपुर के ज़मींदार कृष्णभूपति ने अनुपम के बारे में सुना। उसने दिवान से कहा, ‘‘लक्ष्मीपुर हमारी ज़मींदारी का एक हिस्सा ही है न? सुना है कि अनुपम ने हमसे भी अधिक ख्याति कमायी। हम अगर इसे ऐसा ही बरक़रार रहने देंगे तो वह और मशहूर हो जायेगा। चूँकि हम ज़मींदार हैं, इसलिए ऐसा कोई उपाय सोचिये, जिससे उसके खेत हमारे अधीन हो जायें।’’

इस पर दिवान ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘प्रभु, ऐसे विषयों में बैर से बढ़कर मैत्री ही सही होगी। अनुपम की एक सुंदर बेटी है। हमारे युवराज भी शादी की उम्र के हो गये हैं। अनुपम की पुत्री को अपनी बहू बना लीजिये।’’

कृष्ण भूपति को यह सलाह अच्छी लगी। ठाठ-बाट से वह लक्ष्मीपुर गया। अनुपम ने सादर उसका स्वागत किया। दोनों ने कुछ देर तक गाँव की हालत पर आपस में चर्चा की। आख़िर कृष्ण भूपति ने विवाह का प्रस्ताव रखा।

अनुपम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘प्रभु, आप ज़मींदार हैं। मैं सामान्य हूँ। मेरा मानना है कि मेरी बेटी ज़मींदार के परिवार में समा नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि अपने एक जिगरी दोस्त के बेटे के साथ उसकी शादी करने का बहुत पहले ही वचन दे चुका हूँ। कुछ ही दिनों में उनका विवाह भी संपन्न होगा। क्षमा कीजिये।’’



ज़मींदार कृष्ण भूपति नाराज़ हो उठा। बग़ल ही में बैठे दिवान ने कहा, ‘‘घर में लक्ष्मी आयी है और तुम उसे ठुकरा रहे हो। यह भूल भी रहे हो इस विवाह के लिए सहमति न देने पर तुम पर क्या बीतेगा।’’

अनुपम भयभीत हो गया। उसने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मुझे सोचने के लिए थोड़ा समय दीजिये।’’

ज़मींदार परिवार सहित लौट आया । उनके चले जाने के बाद अनुपम ने इसके परिणामों पर खूब सोचा-विचारा। उसे लगा कि ज़मींदार से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसने यह भी निर्णय लिया कि जो भी हो, दोस्त के बेटे के साथ ही उसकी बेटी की शादी होगी। उसने अपने इस निर्णय को तुरंत कार्यान्वित भी किया। दोस्त के बेटे से बेटी की शादी करा दी।

ज़मींदार ने इसे अपमान माना। उसने दिवान से कहा, ‘‘आपकी सलाह पर मैं लक्ष्मीपुर गया। देख लिया न, क्या हुआ? आपको मालूम है कि मुझे अनुपम की बेटी नहीं मुझे उसकी जायदाद चाहिये। घोषणा कर दीजिये कि आज ही उसकी संपत्ति हमारे अधीन हो जायेगी।’’ क्रोध-भरे स्वर में उसने कहा।

उस समय युवराज शांतिवर्मा भी वहाँ उपस्थित था। उसने पिता से कहा, ‘‘अनुपम ने आपका ही नहीं, मेरा भी अपमान किया। उसने मुझे दामाद बनाने से इनकार करके बड़ा अपराध किया। मैं खुद उसे सबक़ सिखाऊँगा। इसके लिए मैंने एक उपाय भी सोच रखाहै ।’’

तब शांतिवर्मा ने उस उपाय पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘‘आप तो जानते ही हैं कि मल्लयुद्ध में मेरी बराबरी का कोई है नहीं। उस वृद्ध अनुपम को मैं आसानी से हरा सकता हूँ। मल्लयुद्ध के नियमों के अनुसार, मैं अनुपम को प्रतियोगिता के लिए बुलाऊँगा। मैं शर्त रखूँगा कि अगर वह हार जाए तो अपनी जायदाद मेरे सुपुर्द करे। यह नाइन्साफी लगे, पर यह अचूक उपाय है।’’


जैसा सोचा था, मल्लयुद्ध की प्रतियोगिता में शांतिवर्मा ने प्रसिद्ध मल्लयोद्धाओं को भी आसानी से हरा दिया। तब उसने सबके सामने घोषणा की, ‘‘ये प्रतियोगिताएँ तभी सफल मानी जाएँगी, जब मेरा मुकाबला श्री अनुपम से हो। श्री अनुपम अगर जीत जाएँ तो मैं उन्हें बराबर का ज़मींदार मानूँगा। अगर उनकी हार हो जाए तो उनकी जायदाद मेरी हो जायेगी और वे एक सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिताएँगे।’’

यह सुनते ही अनुपम के किसानों, ग्रामीणों तथा वहाँ उपस्थित और लोगों ने इसका ज़ोरदार विरोध किया। इसे अन्याय कहते हुए वे चिल्लाने लगे। अनुपम ने नाराज़ लोगों को शांत करते हुए कहा, ‘‘आप शांत हो जाइये। हाँ, मानता हूँ कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ, फिर भी मुझमें लड़ने की शक्ति है। उनकी चुनौती स्वीकार करूँगा। मेरा पूरा विश्वास है कि धर्म की विजय होगी।’’ कहते हुए वह आगे आया।

अनुपम के मुख की दीप्ति और तेजस्व को देखकर एक क्षण के लिए शांतिवर्मा चौंक उठा। अंदर ही अंदर उसमें डर पैदा हो गया। ‘‘धर्म की विजय होगी’’ उसके कानों में गूँजने लगा।
अनुपम और शांतिवर्मा के बीच मल्लयुद्ध शुरू हो गया। पर, विचित्र बात यह हुई कि पहले ही दौर में युवराज ज़मीन पर गिर गया। वह अपने को असहाय महसूस करने लगा। मन ही मन उसने ठान लिया कि अनुपम को जीतना असंभव है। उसने लोगों को संबोधित करते हुए और अपनी हार मानते हुए कहा, ‘‘उम्र, बल, प्रशिक्षण की दृष्टि से मुझे ही जीतना चाहिये था, परंतु पहले ही दौर में श्री अनुपम ने मुझे ज़मीन पर पटक डाला, इसका कारण शायद उनका धर्म बल ही होगा।’’

कृष्णभूपति ने सोचा भी नहीं था कि मल्लयुद्ध का यह परिणाम होगा। उसे पूरा विश्वास था कि उसका बेटा ही जीतेगा। इस परिणाम को लेकर वह बेहद दुखी हुआ। कर भी क्या सकता था? उसने अनुपम को बधाई दी और युवराज सहित समस्तुपर लौट गया। अनुपम यथावत् किसानों का आदर करता रहा, भरसक उनकी सहायता करता रहा और यों लंबे अर्से तक उसने सुखी जीवन बिताया।

बच्चों में भगवान

एक जमाने में विदर्भ देश में महेन्द्र नामक एक नामी जादूगर था। उसने राजाओं- महाराजाओं को प्रसन्न कर अनेक उपाधियाँ प्राप्त कीं और अपार धनार्जन भी किया। लेकिन वह बड़ा दानी था, इसलिए उसकी कमाई का अधिकांश भाग उसके हाथों ही ख़र्च हो गया।
महेन्द्र का पुत्र जितेन्द्र जादूगरी विद्या में अपने पिता से अधिक प्रवीण था। मगर उसके जमाने में जादूगरी के प्रति आदर घट गया था। आमदनी कम हो जाने पर भी जितेन्द्र अपने पिता जैसे दान देकर निर्धन बन गया।
जितेन्द्र के दो पुत्र थे। उसने अपने दोनों पुत्रों को जादूगरी सिखाई। जितेन्द्र ने इस विचार से यह विद्या अपने पुत्रों को सिखाई कि एक तो वह उनका पेशा है और दूसरी बात यह है कि फिर से शायद जादूगरी की लोकप्रियता बढ़ जाये।
जितेन्द्र का बड़ा पुत्र रामभद्र हद से ज़्यादा धन ख़र्च करता था। बचपन में उसे अपने पिता से सदा बिना माँगे धन मिला करता था। मगर हालत के बदल जाने के कारण उसके माँगने पर पिता जब धन न देते तो वह घर में ही चोरी करने लग गया । यह बात मालूम होने पर जितेन्द्र ने गुस्से में आकर रामभद्र को पीटा। रामभद्र रूठकर घर से चला गया और फिर लौटकर कभी नहीं आया।
क्रोध में जितेन्द्र ने रामभद्र को पीटा थामगर वह उसको अपने प्राणों से ज़्यादा प्यार करता था। उसके भाग जाने पर उसके माता-पिता उसी की चिंता में बीमार पड़े और कुछ ही दिनों में मर गये। तब जितेन्द्र का दूसरा पुत्र लक्ष्मीचन्द अकेला रह गया।
लक्ष्मीचन्द दृढ़ चित्तवाला था। वह गाँवों में घूमते, गलियों में जादू दिखाते, थोड़ी-बहुत कमाई से संतुष्ट होकर दिन बिताने लगा।

एक दिन लक्ष्मीचन्द एक गली में अपने जादू का प्रदर्शन कर रहा था। उसे देखने कई बच्चे वहाँ पर जमा हुए। लक्ष्मीचन्द यह जानता था कि उन बच्चों के द्वारा उसे ज़्यादा पैसे मिलनेवाले नहीं हैं। फिर भी अपना जादू उन्हें दिखाकर सबको प्रसन्न चित्त बना रहा था।
इतने में बगल के घर से एक लड़के के दहाड़ मारकर रोने की आवाज़ सुनाई दी। लक्ष्मीचन्द ने अपने जादू का प्रदर्शन रोक दिया और उस घर में पहुँच कर देखा कि एक गृहिणी अपने चार साल के लड़के को बुरी तरह से पीट रही है।
लक्ष्मीचन्द के कारण पूछने पर उस गृहिणी ने बताया कि उस लड़के का पिता हाल में बीमार पड़ गया था। उस गृहिणी ने भगवान से मनौती की थी कि यदि उसके पति की बीमारी दूर हो जाएगी तो घर भर के लोग एक सप्ताह दुपहर तक उपवास करके भगवान के दर्शन कर तब भोजन करेंगे। भगवान की कृपा से बीमारी ठीक हो गई। जैसे-तैसे छे दिन बीत गये। आज लड़के को दुपहर तक खाना खिलाये बिना रोकना मुश्किल हो गया। वह लड़का भूख के मारे रो रहा है। उस गृहिणी को भगवान के दर्शन करने के लिए जाना था। समझाने-बुझाने पर भी वह मानता न था, इसलिए उसे पीट रही है।
लक्ष्मीचन्द को लगा कि लड़के को भूखा रखने के साथ पीटना भी कितना अन्याय है। उसने उस गृहिणी से कहा, ‘‘माई! लोग कहते हैं कि बच्चों में भगवान निवास करते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि यदि आप इस बच्चे में भगवान को नहीं देख पातीं तो किस भगवान को देखने आप जा रही हैं?''
इस पर उस गृहिणी ने ख़ीझकर कहा, ‘‘इसीलिए तुम्हारी ज़िंदगी ऐसी हो गई है! यदि तुम्हें इसके भीतर सचमुच भगवान दिखाई देते हैं तो इसको संभाल लो। मैं भगवान के दर्शन करके लौटूँगी, तब तुम्हें भी खाना खिलाऊँगी।''
लक्ष्मीचन्द ने मान लिया, मीठी बातों तथा जादू के खेल दिखाकर उस बच्चे को भुलावे में रखा। गृहिणी ने लौटकर लक्ष्मीचन्द की तारीफ़ की और उसको भी खाना खिलाया।
खाने के बाद लक्ष्मीचन्द ने उस गृहिणी से कहा, ‘‘माई! अपने पुत्र से भी ज़्यादा जिन्हें मानती हैं, वे आप के भगवान कहाँ पर हैं? उन्हें देखने की मेरी भी बड़ी इच्छा है।''

गृहिणी ने हँसकर कहा, ‘‘भगवान का मतलब क्या तुम साधारण भगवान को समझते हो? वह तो प्रत्यक्ष देवता है! तुमसे बात करेगा। सवालों का जवाब देगा। तुम पर स्नेह बरसा कर तुम्हारी तक़लीफ़ों को दूर करेगा।''
लक्ष्मीचन्द का कुतूहल और बढ़ गया। वह उस जगह गया जहाँ पर भगवान के सशरीर विराजमान होने की बात गृहिणी ने बताई। वहाँ पर बड़ी भीड़ जमा थी। सब लोग मौन बैठे थे। एक ऊँचे आसन पर दाढ़ी और मूँछवाले एक साधु बैठा हुआ था। वह जनता को उपदेश दे रहा था कि सच्चे मार्ग पर चलो। जो लोग विपत्तियों में थे, उन्हें अपने निकट बुलाकर समझा रहा था कि उसने जनता के दुखों को दूर करने के लिए ही यह अवतार लिया है। बीच-बीच वह व्यक्ति हवा में ही भभूत की सृष्टि करके लोगों पर छिड़क रहा था। जब-तब हवा में उड़कर थोड़े क्षण वैसे ही रहता था। इस पर भक्त उच्च स्वर में पुकार रहे थे, ‘‘हे परमात्मा! हमारा उद्धार करो।''
लक्ष्मीचन्द को यह सब विचित्र-सा प्रतीत हुआ। साधु ने जो विद्याएँ प्रदर्शित कीं, वे सब वह भी जानता था। मगर वह एक साधारण जादूगर ही रह गया और यह साधु भगवान बन बैठा है। इस रहस्य का पता लगाने के लिए लक्ष्मीचन्द अर्द्ध रात्रि को एकांत में उस साधु से मिला।
‘‘तुम कौन हो?'' साधु ने लक्ष्मीचन्द से पूछा।
‘‘मैं एक जादूगर हूँ। मैंने आपके प्रदर्शन देखे हैं। उन्हें देख लोग महिमा मान रहे हैं। उन्हीं प्रदर्शनों को करते रहने पर भी मुझे भर पेट खाना मिलना मुश्किल प्रतीत हो रहा है। लोग आप को भगवान बता रहे हैं। उसी रहस्य का पता लगाने आया हूँ।'' लक्ष्मीचन्द ने कहा। उसने उस दिन का अपना अनुभव भी साधु को बताया।
‘‘इसमें रहस्य की कोई बात नहीं है कि मैं भगवान का अवतार हूँ! मुझे सहज रूप में जो शक्तियाँ प्राप्त हैं, उन्हें तुमने परिश्रम करके एक विद्या के रूप में सीख लिया है। तुम्हारे प्रदर्शन के लिए उपकरणों की आवश्यकता है। मेरे लिए उनकी ज़रूरत नहीं।'' साधु ने जवाब दिया।
‘‘ऐसी बात है! तब तो मैं अपनी उंगली काट लेता हूँ। क्या उसको आप फिर से चिपका सकते हैं?'' लक्ष्मीचन्द ने पूछा।



पन्ना दाई का अनुपम त्याग

लगभग पाँच सौ साल पहले राणा संग्रम सिंह ने राजस्थान के मेवाड़ पर शासन किया। वे अपने धैर्य, साहस व धर्मनिष्ठ शासन के लिए सुप्रसिद्ध थे। उनका नाम सुनते ही प्रजा उनके प्रति आदर भाव दर्शाती थी।
बाबर ने भारत पर हमला किया और 1526 अप्रैल 1 को प्रथम पानीपत युद्ध में इब्राहिम लोदी को हरायातथा दिल्ली और आगरा को भी अपने अधीन करके उन्होंने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। फिर उसकी दृष्टि राजस्थान पर पड़ी।
राजपूत सैनिकों ने जमकर मुग़ल सैनिकों के साथ लड़ाई लड़ी। उनकी बहादुरी और साहस बहुत ही प्रशंसनीय था। किन्तु अपनी ही सेना के दलनायक के द्रोह के कारण राणा संग्रम को पास ही के पर्वतों में जाकर छिप जाना पड़ा। किसी भी हालत में वे मुग़ल सेना को हराना चाहते थे, उन्होंने इसके लिए भरसक प्रयत्न किये। पर 1527 में राणा की मृत्यु हो गई। इसके बाद बाबर ने सोचा कि राजपूत वीरों को और सताना उचित नहीं होगा, इसलिए वे दिल्ली चले गये। बाबर को इस बात का डर भी था कि राजपूत योद्धाओं से और लड़ने से उसे ही नुकसान होगा और उसके कितने ही सैनिक मारे भी जायेंगे।
राणा संग्रम सिंह का ज्येष्ठ पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का राजा बना। किन्तु पड़ोसी राज्य के युवराज से जो लड़ाई हुई, उसमें वह मारा गया। तब उसका छोटा भाई विक्रमजीत सिंहासन पर आसीन हुआ।
वह दुरहंकारी और विनोद प्रिय था। जनता के क्षेम के विषय में वह सोचता ही नहीं था। वह सदा मल्ल युद्धों तथा अन्य क्रीड़ाओं में ही दिलचस्पी लेता था। सामंतों व प्रमुखों की इज्ज़त करता नहीं था। इस वजह से मेवाड़ में अराजक परिस्थितियाँ उत्प हो गयीं। इस मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए गुजरात सुल्तान बहादुरशाह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को घेर लिया।


राजपूत योद्धाओं ने डटकर सामना किया, पर जीतने की आशा न थी । इस संकटपूर्ण स्थिति से बचने की कोई उम्मीद नहीं रही। अतः चित्तौड़ के किले की चौदह हज़ार स्त्रियों ने चिता जलाकर उसमें साहसपूर्वक प्रवेश करके प्राण त्याग दिये।
इस वीरोचित कार्य को करवाया, राणा संग्रमसिंह की वीर पत्नी ने, जो युवराज उदय सिंह की माँ रानी कर्नावती थी। उदयसिंह उस समय शिशु था। पिता की मृत्यु के बाद उसका जन्म हुआ। शत्रुओं से बचाने के लिए उदयसिंह सुरक्षित स्थान में भेज दिया गया। इसके उपरांत यद्यपि मुगलों ने विक्रमजीत को सिंहासन सौंपा पर प्रजा उसके दुःशासन को सह नहीं पायी।
सिंहासन का वारिस उदयसिंह जब तक बालिग़ न हो, तब तक शासन का भार कौन संभाले? राजपूत प्रमुखों ने चाहा कि राणा संग्रमसिंह के भाई पृथ्वीराज का बेटा बनवीर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले। उसने प्रमुखों की सलाह को स्वीकार किया।
शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने के बाद बनवीर में दुराशा जगी कि वही भविष्य में भी राजा बना रहे। इसके लिए उसने राजा संग्रहसिंह के दोनों पुत्रों को मार डालना चाहा। प्रजा की घृणा व द्वेष का शिकार बनकर जब विक्रमजीत भाग रहा था तब बनवीर ने उसे मार डाला। अब शिशु उदयसिंह मात्र जीवित था। उस शिशु का भी अंत करने के लिए क्रूर, दुष्ट बनवीर ने एक व्यूह रचा।
प्रशांत रात थी। चित्तौड़ किले के अंतःपुर से मधुर लोरी सुनायी दे रही थी। पा दाई सोये हुए राजकुमार का पालना हिलाती हुई लोरी गा रही थी। उसका भी अपना एक शिशु था, जो राजकुमार की उम्र का ही था।
आधी रात के समय एक नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और पा के कानों में कुछ कहा। उसकी बातें सुनते ही पा दाई का चेहरा फीका पड़ गया।


वह एकदम घबरा गयी। उसने तुरंत अपने बेटे को पालने में लिटाया। पालने में सोये राजकुमार के आभूषणों व वस्त्रों को अपने बच्चे को पहनाया। भवन के रसोइये को बुलाया और उससे फलों की टोकरी ले आने को कहा। राजकुमार को बड़ी ही सावधानी से उस टोकरी में सुलाया और उस टोकरी को पत्तों से ढक दिया। रसोइये से उसने विनती की कि वह शिशु को क़िले से बाहर ले जाए।
थोड़ी देर बार दुष्ट राज प्रतिनिधि बनवीर वहाँ आया। उसने शिशु के शरीर में तलवार भोंकी और उसे सदा के लिए सुला दिया। बिना विलंब किये वह तेज़ी से वहाँ से चला गया। युवराज को मरा समझकर राजा के परिवारवाले ज़ोर-ज़ोर से रोने बिलखने लगे। किन्तु ऐसी स्थिति में भी पा दाई ने पुत्र शोक को निगल डाला और राजभवन से तुरंत बाहर आयी।
जब वह नदी के तट पर पहुँची तब विश्वासपात्र रसोइया टोकरी सहित पा की प्रतीक्षा कर रहा था। अच्छा हुआ, शिशु अब भी सोया हुआ था। वे तुरंत डोला गये और युवराज के लिए आश्रय माँगा। युवराज के प्रति यद्यपि सहानुभूति थी, पर दुष्ट बनवीर से वे डरते थे, इसलिए उन्होंने आश्रय देने से इनकार किया। वहाँ के शासक ने अपनी असहायता जताते हुए उन्हें वहाँ से भेज दिया।
किसान औरत के वेष में शिशु को लेकर रसोइये के साथ वह डोंगरपुर जाने निकली। आशा-निराशा के बीच परेशान वह पर्वत पर के भवन में पहुँची। किन्तु वहाँ भी उसे निराश होना पड़ा। सामंत राजा रावल अयुस्कुर्न ने भी उन्हें वहाँ से भेज दिया, क्योंकि वह भी निर्दयी व क्रूर बनवीर से डरता था।
मेवाड़ के भविष्य के राजा को बचाने के लिए पा ने हर प्रकार का प्रयत्न किया। उसका एकमात्र लक्ष्य था, युवराज की रक्षा करना। इसके लिए उसने सब प्रकार के कष्ट सहे। वह पर्वतों व जंगलों को पार करती हुई अरावली पर्वत श्रेणियों में स्थित कोमुल्मेर की ओर जाने लगी। रसोइया अकस्मात् बीमार पड़ गया। स्थानीय दयालु भीलों ने रसोइये की सहायता करने का वचन दिया और पा को रास्ता दिखाया।
सवेरे-सवेरे छोटे-से पर्वत पर कोमुल्मेर का राजभवन बादल महल जब पा को दिखायी पड़ा, तब उसमें नयी आशाएँ पैदा हुईं। राजा अत्सासाह ने उसपर दया दिखायी और उसका आदर किया। पा ने चित्तोड़ की दुर्गति का वर्णन किया और कहा, ‘‘इस शिशु राजकुमार को सुरक्षित इस स्थल पर आश्रय देंगे तो मेरा मन शांत होगा''।

उस समय उसकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं। अत्सासाह कुछ बता नहीं पाये। वे किसी निर्णय पर नहीं आ पा रहे थे। तब उसकी माँ ने अपने बेटे से कहा, ‘‘इसको लेकर इतना क्यों सोच रहे हो? यह शिशु राणा संग्रमसिंह का पुत्र है। जिनमें राजा के प्रति विश्वास और प्रेम है, उन्हें डरना नहीं चाहिये। तुम्हारे सामने जो पा खड़ी है, वह एक साधारण दाई है। उसने जो अद्वितीय त्याग और असमान धैर्य दिखाया और जो कठोर कष्ट सहे, उन्हें जानने के बाद भी इतना संकोच क्यों कर रहे हो? यह दुविधा कैसी?''
तब राजा ने शिशु को अपने हाथ में लिया और आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘इस शिशु राजकुमार की रक्षा का भार मुझ पर है। तुम निश्चिंत जा सकती हो।''
इस आश्वासन से पा के चेहरे पर खुशी छा गयी। उसका अशांत मन शांत हुआ। उसने शिशु को एक बार अपने हाथों में लिया, हृदय से लगाया और फिर से राजा को सौंपा। आँसू भरे नयनों से उसने एक और बार राजा को प्रणाम किया। शिशु की माँ रानी को उसने वचन दिया था कि वह हर हालत में राजकुमार की रक्षा करेगी। उसने वह वचन निभाया। इसी तृप्ति को लेकर वह भवन से बाहर आयी।
सात साल गुज़र गये। अत्सासाह का बेटा भी उदयसिंह की उम्र का ही था। दोनों साथ-साथ पलने लगे। अत्सासाह का मित्र एक राजपूत प्रमुख उसके राजभवन में अतिथि बनकर आये। उदयसिंह को देखते ही चकित होकर उसने पूछा, ‘‘यह राजकुमार कौन है?'' अत्सासाह को सच बताना पड़्रा। राजपूत प्रमुख ने उदयसिंह को नमस्कार किया। बहुत ही कम अवधि में ही सबको यह बात मालूम हो गयी। मेवाड़ के प्रमुखों और आसपास के नेताओं ने न्यायबद्ध युवराज को अपना समर्थन जताया।
अति दुष्ट और दुरहंकारी बनवीर के प्रति प्रजा में तीव्र विरोध शुरू हो गया। छोटे युवराज के नेतृत्व में बड़ी सेना ने चित्तौड़ के किले को घेर लिया। बनवीर की सेना उनका सामना नहीं कर सकी। बनवीर डर के मारे भाग गया। जनता के आनंद व उत्साह के बीच राणा उदयसिंह 1587 में मेवाड़ सिंहासन पर आसीन हुए।




व्यापारी की जिम्मेदारी

हरिनारायण अनाज का व्यापार करता था और खूब कमाता था। वह दानी भी था और भगवान में उसका अटूट विश्वास था। उसने एक धर्मार्थ सराय का निर्माण करवाया; और सराय में अन्नदान भी करता था। मंदिर में अक्सर धार्मिक प्रवचनों का प्रबंध भी करता था।
एक दिन जब वह भोजन कर रहा था, तब उसकी पत्नी सरस्वती ने कहा, ‘‘हमारे तीनों लड़के अब वयस्क हो गये हैं। व्यापार का पूरा भार आप कब तक संभालते रहेंगे? तीनों में से किसी एक को व्यापार की जिम्मेदारी सौंप दें तो अच्छा होगा।''
‘‘मैं भी यही सोच रहा हूँ। साथ ही सोच में हूँ कि किसको यह व्यापार सौंपने से वह दक्षता से संभालेगा और हमारी परंपरा को क़ायम रखेगा।'' हरिनारायण ने कहा।
‘‘तीनों बेटे अच्छे स्वभाव के हैं। किसी को भी सौंपिये। वह जिम्मेदारी के साथ उसे संभालेगा'', सरस्वती ने अपनी राय दी।
‘‘अपने बेटों के बारे में तुम्हारी राय सही है। पर, व्यापार करने के लिए अच्छे गुण मात्र का होना पर्याप्त नहीं है। अ़क्लमंदी के साथ-साथ व्यापार के प्रति रुचि भी होनी चाहिये। यह जानने के लिए हमारे तीनों बेटों की परीक्षा लेनी होगी। उनकी योग्यता तुम्हीं देखोगी।'' हरिनारायण ने कहा।
दूसरे दिन हरिनारायण ने अपने तीनों बेटों को बुलाया। तीनों को एक-एक रुपया दिया और कहा, ‘‘इस एक रुपये से शाम तक कोई अच्छा काम करके आओ। इससे मालूम हो जायेगा कि तुम तीनों में से कौन दक्ष हो।''
शाम को जब वह घर लौटा, तब उसने देखा कि उसके तीनों बेटे उसी की प्रतीक्षा में हैं।

उसने बड़े बेटे सोमशेखर से पूछा,‘‘तुमने उस एक रुपये से क्या अच्छा काम किया?''
‘‘मैंने राम के मंदिर के पास एक भूखी औरत को देखा। वह रुपया मैंने उसे दे दिया'', सोमशेखर ने कहा। हरिनारायण ने मुस्कुराते हुए दूसरे बेटे कमल की ओर देखा।
‘‘हमारे व्यापार की अच्छी वृद्धि हो, इसके लिए मैंने मंदिर में पूजा करवायी और वह रुपया पुजारी की थाली में डाल दिया,'' कमल ने कहा।
हरिनारायण ने उसी प्रकार की मुस्कान लिये छोटे बेटे नारायण से पूछा, ‘‘तुमने क्या किया?''
नारायण ने चुपके से अपनी जेब से एक रुपये का सिक्का निकाला और अपने पिता के सामने रख दिया। ‘‘रुपया खर्च किये बिना तुमने उसे ऐसे ही सुरक्षित रखा?'' हरिनारायण ने पूछा।
‘‘नहीं पिताजी, आपने जो रुपया दिया, उसे लेकर बगीचे में गया और उससे चार नींबू खरीदे। बाज़ार में बैठकर मैं लोगों से कहने लगा कि यह एक विशेष प्रकार का नींबू है और उन्हें दो रुपयों में बेच दिया। एक रुपये का जो फायदा हुआ, उसमें से आधे रुपये की मिठाई खरीदी और उसे एक भूखे बच्चे को दिया। बाकी आधा रुपया भगवान की हुँडी में डाल कर प्रार्थना की वे सब पर दया करें। शेष बचा पूंजी का रुपया ले आया हूँ।'' नारायण ने धीरे-से कहा।
हरिनारायण उसकी होशियारी और दयालुता पर बड़ा ही मुग्ध हुआ और निर्णय कर लिया कि व्यापार नारायण को ही सौंपूँगा। फिर दोनों बेटों की ओर मुड़कर कहा, ‘‘किसी भी अच्छे काम को करने के लिए धन की ज़रूरत होती है। विशेषकर व्यापार के लिए यह नितांत आवश्यक है। इसलिए जिसे व्यापार करना है, उसे पहले लाभ कमाना चाहिये। नारायण ने यह काम किया। कमाने के बाद फिर करो दान धर्म। तुममें से एक संभालो, हमारा अपना धर्मार्थ सराय, दूसरा संभाले, हमारे राममंदिर की जिम्मेदारियों को। नारायण व्यापार संभालेगा और दोनों उसे सहयोग देकर व्यापार की और वृद्धि करेंगे।''
दोनों भाइयों ने सहर्ष स्वीकार किया। पति के इस निर्णय पर सरस्वती बहुत ही खुश हुई।