Tuesday, July 5, 2011

धर्मदास की शक्तियाँ

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड के पास गया, पेड़ से शव को उतारा और यथावत् उसे अपने कंधे पर डालकर स्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के बेताल ने कहा, ‘‘राजन, कार्य को साधने में तुम जो आग्रह दिखा रहे हो, वह बड़ा ही प्रशंसनीय है। परंतु तुमने इस तथ्य पर कभी ग़ौर किया कि क्या तुम इसमें कभी सफल हुए? मेरी दृष्टि में तो नहीं। फिर क्योंकर इतना कठोर परिश्रम करते जा रहे हो? तुम्हें सावधान करने के लिए मैं धर्मदास की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जो शक्ति संपन्न होते हुए भी अपने भाई को अपने समान शक्तिशाली बना नहीं सका, माँ की इच्छा भी पूरी कर नहीं पाया। मुझे इस बात का डर है कि तुम भी उसकी तरह कहीं विफल न हो जाओ। थकावट दूर करते हुए धर्मदास की कहानी सुनो।'' फिर वेताल यों सुनाने लगाः

फिर वेताल यों सुनाने लगाः वीरदास शैलवर गाँव का निवासी था। वह चार एकड़ जमीन का मालिक था। उसके तीन बेटे थे। दूसरा बेटा रामदास और तीसरा बेटा कृष्णदास नादान थे। बड़ा बेटा धर्मदास खेती करना नहीं चाहता था। उसने पिता से कह दिया कि मैं गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूँ। पर वीरदास ने अपने बेटे की इच्छा को मानने से इनकार कर दिया। धर्मदास घर छोड़कर चला गया। वीरदास ने उसका पता लगाने की कोशिश की पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ।
कुछ सालों के बाद वीरदास सख्त बीमार पड़ गया और उसकी वाक् शक्ति जाती रही। बड़े-बड़े वैद्यों ने जांच करने के बाद कह दिया कि इस रोग की कोई दवा है ही नहीं। इसके बाद रामदास और कृष्णदास को उनके हाथों धोखा खाना पड़ा, जिनका उन्होंने विश्वास किया था। कर्ज बढ़ता गया और आखिर खेत और घर भी बेचने की नौबत आ गयी।
इस बीच धर्मदास, सर्वश्रेय नामक गुरु के यहाँ रहकर शिक्षा प्राप्त करने लगा। उन्होंने धर्मदास को कितनी ही विद्याएँ सिखायीं, कितनी शक्तियाँ प्रदान कीं। उन शक्तियों के बल पर वह अपने परिवार की दुस्थिति को जान गया। उसने गुरु से इसका जिक्र किया।
गुरु सर्वश्रेय ने उससे कहा, ‘‘तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी है। जो भी तुम्हें सिखाना था, मैंने सिखा दिया। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपनी शक्तियों से दूसरों की भलाई करना। पर, माँ गुरु से भी महान होती है। मेरे आदेश का पालन तभी संभव होगा, जब तुम्हारी माँ तुम्हें इसकी अनुमति देगी। इसलिए तुरंत शैलवर जाना, अपना घर संभालना और अपनी जिम्मेदारी निभाना। माँ की अनुमति लेने के बाद ही तुम गाँव छोड़कर जा सकते हो। अपने परिवार में से किसी एक को जब तक अपनी शक्तियाँ नहीं सौंपोगे, तब तक तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते।''

गुरु के कहे अनुसार धर्मदास शैलवर गया, पूरे परिवार को उसने धैर्य बंधाया और यों सबके दिलों में आशा भर दी। उसने खेती के बारे में रामदास को यथोचित सलाहें दीं। कृष्णदास से अनाज की एक दुकान खुलवायी। फलस्वरूप फसल भी अच्छी हुई और अनाज के व्यापार में अच्छा लाभ भी हुआ। यह देखते हुए, गाँव के लोग कहने लगे कि धर्मदास के पास अमोघ शक्तियाँ हैं। क्रमशः धर्मदास की माँ को भी गांवों के लोगों की बातों में विश्वास होने लगा। एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ‘‘बेटे, घर छोड़कर गये और शक्तिपूरित होकर लौट आये। अब अपने पिता की बीमारी का इलाज तुम्हें करना होगा। फिर से उन्हें वाक् शक्ति देनी होगी। यह तुमसे ही संभव है, क्योंकि तुम्हारे पास अचूक शक्तियाँ हैं।''
‘‘माँ, पिताजी को अगर स्वस्थ होना हो तो इसके लिए विद्युत द्वीप के तुलसी पौधे की जड़ चाहिये। गुरु की आज्ञा है कि एक बार अगर मैं गाँव छोड़कर निकल जाता हूँ तो किसी भी हालत में गांव लौटना नहीं चाहिये। इसलिए भाई कृष्णदास को अपने साथ ले जाऊँगा। मार्ग मध्य में उसे अपने समान शक्तिवान बनाऊँगा। उसके द्वारा तुलसी पौधे की जड़ भेजूँगा। तुम्हारी अनुमति हो तो निकलता हूँ।'' धर्मदास ने कहा।
तब उसकी माँ ने कहा, ‘‘ठीक है, विद्युत द्वीप जाने के लिए निकलो। गुरु की कोई भी आज्ञा माँ के प्रेम से महान नहीं है, उसे जीत नहीं सकती।''
धर्मदास, कृष्णदास को अपने साथ लेकर निकल पड़ा। गांव के बाहर आते ही कृष्णदास ने अपने बड़े भाई से कहा, ‘‘भैय्या, तुममें अद्भुत शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। ऐसा कुछ करना, जिससे वे शक्तियाँ मुझे भी प्राप्त हों।''
‘‘विद्युत द्वीप पहुँचते -पहुँचते अगर तुम्हें विश्वास हो जाए कि मुझमें अद्भुत शक्तियाँ हैं, तो तुम उन्हें पा सकते हो।''
इतने में एक बैलगाडी वहाँ आयी। गाडीवाले जनक ने गाड़ी रोकी। धर्मदास ने अपने भाई से कहा, ‘‘विद्युत द्वीप पहुँचने तक तुम्हें गाड़ी में यात्रा करनी नहीं चाहिये। तुम पैदल चलकर आना।'' कहता हुआ वह गाड़ी में बैठ गया।

कृष्णदास आधे दिन तक चलता रहा। अपने भाई को देखकर रुक गया, जो एक पेड के नीचे बैठा हुआ था। वह बहुत ही थक गया था। उसे भूख लग रही थी। इतने में शैलबर लौट रहा बापट वहाँ आया और कहने लगा ‘‘मैं बहुत भूखा हूँ। पर किसी के साथ मिलकर खाने की मेरी आदत है और मेरा नियम भी।'' कहते हुए उसने गठरी खोली जिसमें स्वादिष्ट आहार-पदार्थ थे।
धर्मदास ने तुरंत कहा, ‘‘भाई को एक महान और पुण्य कार्य पर अपने साथ ले जा रहा हूँ। जब तक वह कार्य पूरा नहीं होता तब तक उसे उपवास रखना होगा।'' यों कहकर उसने बापट के साथ खाना खा लिया।
थोडी देर बाद जब बापट चला गया तब धर्मदास ने कृष्णदास से कहा, ‘‘अंधेरा छाने जा रहा है। भरपेट खाने के कारण मुझे नींद आ रही है। नियम के अनुसार तुम्हें सोना नहीं चाहिये। तुम जागे रहो और अच्छी तरह से रखवाली करना। इसमें दोनों की भलाई है।'' कहते हुए वह निद्रा की गोद में चला गया।
कृष्णदास रात भर जागा रहा और प्रातःकाल दोनों भाई फिर से निकल पड़े। वे एक नदी तट के पास पहुँचे। नदी में नाव तो थी, पर मल्लाह नहीं था। नदी के बीच में अचानक एक टीले पर बिजली कौंधी।
उस टीले को दिखाते हुए धर्मदास ने कृष्णदास से बताया, ‘‘वही विद्युत द्वीप है। हर दिन वह चमकता रहता है, इसीलिए उसका नाम विद्युत द्वीप पड़ा। इतने में मल्लाह वहाँ आया। और कहने लगा,'' मैं विद्युत द्वीप जा रहा हूँ। चाहो तो तुम दोनों भी आ सकते हो।''
धर्मदास ने भाई से कहा, ‘‘पिता के नाम का स्मरण करते हुए नदी में कूद पड़ो। तैरते हुए वहाँ पहुँच जाना। वहाँ मैं तुम्हारा इंतजार करूँगा।''
कुछ और सोचे बिना बड़े भाई के कहे मुताबिक कृष्णदास नदी में कूद पड़ा। वह बिल्कुल थक गया। वह कुछ बोल भी नहीं पा रहा था। तब तक धर्मदास वहाँ पहुँच चुका था।
जब कृष्णदास थोड़ा-बहुत ठीक हो गया, दोनों तुलसी पौधे की जड की खोज में निकल पड़े। एक जगह पर, उन्होंने अपने ही गांव के गोपी को देखा, जो किसी पौधे के लिए कुदाल से ज़मीन खोद रहा था। वहाँ उनके आने की वजह जानकर उसने कुदाल उन्हें देनी चाही।
कृष्णदास उससे कुदाल लेने ही जा रहा था तब धर्मदास ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘तुलसी के पौधे की जड़ हाथों से ही उखाड़नी चाहिये। यह नियम है और उसका उल्लंघन मत करना।''


थोड़ी देर और आगे जाने के बाद उन्हें तुलसी के बड़े-बड़े पौधे दिखायी पड़े। हाथों में दर्द हो रहा था, फिर भी कृष्णदास ने अपने ही हाथों से जड़ उखाड़ी।
बड़े भाई ने छोटे भाई की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी पितृ भक्ति प्रशंसा योग्य है। मुझमें अगर शक्तियाँ हों तो अब से उनमें से आधी शक्तियाँ तुम्हारी हो गयीं। अब तुम हवा में उड़कर घर पहुँच सकते हो।''
परंतु, ऐसा नहीं हुआ। कृष्णदास ने उड़ने की बहुत कोशिश की, पर उड़ नहीं पाया। धर्मदास ने लंबी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘लगता है कि तुम्हें मेरी शक्तियों पर विश्वास नहीं है। कर भी क्या सकते हैं? पिताजी को स्वस्थ करने के लिए तुमने तुलसी की जड़ पा ली, यही गर्व की बात है। घर लौटो और इस जड़ के बल पर पिताजी को फिर से बोलने की शक्ति प्रदान करो। मैं गुरु की आज्ञा का पालन करने जा रहा हूँ।''
नदी तट पर पहुँच चुकने के बाद दोनों भाई अलग-अलग रास्तों पर चले गये। उत्साह भरा कृष्णदास घर पहुँचा। तुलसी की जड़ का सेवन करते ही उसका पिता बोलने लगा।
कृष्णदास ने सोचा कि तुलसी की जड को पाने के लिए उसने जो-जो कष्ट उठाये, जो-जो मुसीबतें झेलीं, अगर इसका ब्योरा जनक, बापट और गोपी खुद देंगे तो अच्छा होगा। उसने दूसरे दिन उन तीनों को बुलवाया। जनक ने पहले वीरदास से कहा, ‘‘तुम्हारा बड़ा बेटा धर्मदास कोई साधारण मनुष्य नहीं है। मैंने अपनी आँखों से देखा कि वह हवा में उड़ रहा है। और हमारे पहुँचने के पहले ही पहुँच चुका है।''
कृष्णदास यह सुनकर हक्का-बक्का रह गया । बापट ने आकर कहा, ‘‘गॉंव लौटते हुए पेड़ के नीचे बैठे धर्मदास को देखा। गठरी खोलता हूँ तो देखता हूँ कि उसमें स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ हैं।
इतने में गोपी भी कहने लगा,'' भाई कृष्णदास की नाव के पीछे-पीछे पानी पर चलते हुए धर्मदास चले आ रहे थे। मैंने यह दृश्य अपनी आँखों देखा।''
यह सब सुनते हुए कृष्णदास का सिर चकरा गया। बडे भाई ने उसकी इतनी भलाई की, पर उसकी समझ में नहीं आया कि उसे वह क्यों पहचान नहीं पाया। उसे लगा कि यह सब हुआ, उसके स्वार्थ व अहंकार के कारण ही। उसमें पश्चाताप की भावना घर करने लगी। इसके दूसरे ही क्षण उसमें कुछ नवीन शक्तियाँ प्रवेश करने लगीं।

वेताल ने यह कहानी सुनाने के बाद राजा विक्रमार्क से पूछा, ‘‘राजन्, कृष्णदास अपने बडे भाई की अपूर्व शक्तियों को प्रारंभ में पहचान नहीं पाया, इसका कारण उसमें भरा स्वार्थ और अहंकार ही है या कोई और कारण है? विद्युत द्वीप जाने के पहले उसकी माँ ने उससे कहा था कि वहाँ से लौटने के बाद यहीं मिल-जुलकर रहेंगे और यह भी कहा था कि किसी भी गुरु की आज्ञा माँ के प्यार को जीत नहीं सकती। परंतु धर्मदास घर नहीं लौटा। क्या यह माँ के आदेश का अतिक्रमण नहीं है? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘धर्मदास ने, अपने छोटे भाई कृष्णदास को अपनी शक्तियाँ सौंपनी चाहीं। पर कृष्णदास को अपने बड़े भाई की शक्तियों में विश्वास नहीं था । तुलसी के पौधे की जड़ को ले आने के लिए जिस क्षण धर्मदास ने कृष्णदास को चुना, उसी क्षण से उसमें अहंकार भर गया। और वह समझने लगा कि मैं महान हूँ। इसी वजह से वह बड़े भाई की शक्तियों को पहचान नहीं पाया।
कोई भी शक्तिमान अपनी शक्तियाँ अयोग्य को चाहे भी तो सौंप नहीं सकता। अब रही माँ की बात। कोई भी माँ यह नहीं चाहती कि उसका बेटा कर छोड़कर जाए, कहीं और रहे। यही तो मातृप्रेम है।
किन्तु धर्मदास लोक क्षेम के लिए घर छोड़कर चला गया। वह भी, अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद। यद्यपि धर्मदास ने माँ की इच्छी पूरी नहीं की, फिर भी यह उसका अपराध माना नहीं जा सकता, क्योंकि उसका लक्ष्य महान था।
राजा का मौन-भंग करने में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
आधार ‘‘वसुंधरा'' की रचना।




No comments:

Post a Comment