Sunday, July 3, 2011

अपराध रहित नगर

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया; पेड़ पर से शव को उतारा, उसे अपने कंधे पर डाल लिया और यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, मैं नहीं जानता कि तुम किस संकल्प को पूरा करने के लिए आधी रात को इस प्रकार कष्ट झेलते जा रहे हो। एक विषय अच्छी तरह से याद रखना, जब समय साथ नहीं देता तब बड़े संयम के साथ लिये जानेवाले निर्णय भी निरर्थक साबित होते हैं। उस दौरान विवेक संपन्न व्यक्ति भी जो निर्णय लेते हैं, वे अपने साथ-साथ अपनों को भी कष्ट में डाल देते हैं। मैं नहीं चाहता कि तुम ऐसी ग़लती कर बैठो। इसीलिए तुम्हें सावधान करने के लिए मनोहरी नामक एक युवती की कहानी सुनाऊँगा। ध्यानपूर्वक सुनना।'' फिर वेताल मनोहरी की कहानी यों सुनाने लगा:

मातंग देश के जयपुर नामक एक छोटे से नगर में शमनक नामक एक ईमानदार व्यापारी रहता था। सुशीला उसकी पत्नी थी, मनोहरी उसकी पुत्री और कौशिक व चैतन्य उसके पुत्र थे।
मणिपुर नामक एक बड़ा नगर इस नगर से थोड़ी दूरी पर ही था। उस नगर का पालक था, सुमंत। वह संतानहीन था, इसलिए दूर के रिश्तेदार शमनक के बेटे चैतन्य को गोद लेना चाहताथा । शमनक और सुशीला अपनी संतान को बेहद चाहते थे । इसलिए उन्होंने सुमंत के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सुमंत उनके इस निर्णय पर नाराज़ तो हुआ, पर अपनी नाराज़ी को प्रकट होने नहीं दिया।
एक बार मणिपुर के मंदिर में श्रीरामनवमी के उत्सव बहुत बड़े पैमाने पर संपन्न हुए। शमनक पत्नी और संतान सहित उन्हें देखने वहाँ आये। सुमंत ने उनका आदर सत्कार किया और उन्हें अपने ही घर में ठहराकर सभी सुविधाओं का प्रबंध किया। इसे सही मौक़ा समझकर सुमंत ने फिर से चैतन्य को गोद लेने की बात उठायी। पर शमनक ने फिर इनकार कर दिया। इस पर सुमंत नाराज़ हो उठा और उनपर चोरी का अपराध थोपकर उन्हें राज्य-बहिष्कार की सज़ा दी।
शमनक पत्नी और संतान सहित बदरिकारण्य पहुँचा और वहीं एक आश्रम का निर्माण करके रहने लगा। कंद, मूल, फल खाते हुए वे अपना जीवन यापन करने लगे। वे उसके आदी भी हो गये। बच्चों को यह जीवन बिलकुल अच्छा नहीं लगा और कभी-कभी शिकायत भी करने लगे। तब शमनक ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘‘शकुनि ने पांडवों को द्यूत में हराया। पांडव जानते थे कि उनके साथ अन्याय हुआ फिर भी शर्त्त के मुताबिक वे जंगल गये और अज्ञातवास का भी पालन किया। इसके बाद उन्होंने युद्ध में कौरवों को हराया और राज्य हस्तगत किया। किसी भी विषय में समय का प्रमुख स्थान है। जब तक हमारे लिए अच्छे दिन नहीं आते, तब तक हम लोगों को यहीं रहना होगा।''
नौ साल बीत गये। शमनक के बच्चे बड़े हुए। बालिग मनोहरी के सौंदर्य को देख उसके माता-पिता उसके विवाह की चिन्ता करने लगे।

ऐसी स्थिति में मातंग देश का नया राजा माणिक्यवर्मा शिकार करने जंगल आया। वह एक हिरण का पीछा करते हुए भटक गया। प्यास के मारे वह एक सरोवर ढूँढ़ रहा था तो उसने अचानक मनोहरी को देखा। उसके अद्भुत सौंदर्य को वह देखता ही रह गया। अपनी प्यास को भी भुलाकर उसने मनोहरी से कहा, ‘‘सुंदरी, मैं मातंग का राजा माणिक्यवर्मा हूँ। शिकार करने आया और भटक गया। तुम्हारे अद्भुत सौंदर्य को देखकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया हूँ। तुम्हें स्वीकार हो तो मैं तुमसे विवाह करने को तैयार हूँ।''
मनोहरी ने लज्जा के मारे सिर झुकाते हुए कहा, ‘‘राजन्, मेरे पिता ही मेरे लिए सब कुछ हैं। उनकी अनुमति के बिना मैं कोई निर्णय नहीं लेती। मेरा नाम मनोहरी है। पास ही हमारा आश्रम है। वहाँ आकर मेरे पिता से बात कीजिये।'' वह राजा को अपने आश्रम में ले आयी।
माणिक्यवर्मा ने, शमनक से अपने मन की बात बताई और उन सबको अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया।
शमनक घर के अंदर गया और यह विषय पत्नी और अपनी संतान से बताया। उसने उनसे कहा, ‘‘अगर उन्हें मालूम हो जाए कि हम राज्य बहिष्कार की सज़ा भुगत रहे हैं तो पता नहीं, ये उस नगरपालक के अन्याय का विरोध करेंगे या नहीं। उस स्थिति में हो सकता है, ये मनोहरी से विवाह नहीं करें। मनोहरी से विवाह हो जाए तो यह हमारा भाग्य होगा। मनोहरी राजा से विवाह करे और महारानी बने, यह मेरी तीव्र इच्छा है। इसलिए अभी बहिष्कार की बात उनसे छिपायेंगे। समय आने पर सुमंत की पोल खोलेंगे और इस अरण्यवास से बाहर निकलेंगे।''
मनोहरी ने इसपर आपत्ति उठायी और कहा, ‘‘यहाँ आप सब कष्ट सहते रहें और वहाँ मैं रानी बनकर सुख भोगूँ, यह नहीं हो सकता।''
माँ सुशीला ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘तुम अपनी जिद पर डटी रहोगी तो हम जंगल में ही रह जायेंगे और कष्ट झेलते रहेंगे। जहाँ तक अरण्यवास की बात है, केवल तुम्हारे भाई ही असंतुष्ट हैं, हमें यहाँ रहने में कोई आपत्ति नहीं। अतः तुम अपने भाइयों को भी अपने साथ ले जाना और मौक़ा मिलने पर इस समस्या का परिष्कार करना।''

मनोहरी को माँ की बात सही लगी।
शमनक घर से बाहर आया और माणिक्यवर्मा से कहा, ‘‘राजन्, इस विवाह के लिए हम अपनी सहमति देते हैं। पर, अभी मैं और मेरी पत्नी आपके साथ नहीं आ सकते । हम इस अरण्य को छोड़ नहीं सकते। कुछ समय तक हम यहीं रहेंगे। मेरे पुत्र कौशिक, चैतन्य मेरी पुत्री मनोहरी के साथ जायेंगे।''
राजा ने अपनी सहमति दी। कौशिक, चैतन्य तुरंत फूल तोड़कर ले आये और सुशीला ने उनसे मालाएँ बनायीं। वर-वधू ने एक-दूसरे को मालाएँ पहनाईं । पत्नी और सालों को लेकर राजा राजधानी के लिए निकल पड़े।
अंतःपुर पहुँचने के बाद माणिक्यवर्मा ने मनोहरी से कहा, ‘‘अब से तुम्हारी बात मेरे लिए शिलासन के समान है । जो भी तुम माँगोगी, तुम्हें दूँगा। असाध्य को भी साध्य बनाकर अपने प्रेम को प्रमाणित करूँगा ।'' ‘न' के भाव में सिर हिलाते हुए मनोहरी ने कहा, ‘‘मैं गरीब हूँ। पढ़ा भी बहुत ही कम है। शिलासन जैसी इच्छा प्रकट करने की योग्यता मैं नहीं रखती।''
माणिक्यवर्मा ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे माता-पिता ने राज सुखों का त्याग किया। तुमने मेरे वरदान का त्याग किया। तुम सबके व्यक्तित्व महान हैं, इसलिए तुम लोग दरिद्र हो ही नहीं सकते। अब रही पढ़ाई की बात। वह कभी भी सीखी जा सकती है।'' उसने तुरंत सालों को राजोचित विद्याएँ सिखाने के लिए समर्थ गुरुओं को नियुक्त किया। मनोहरी को राजनीति तथा राज मर्यादाएँ सिखाने के लिए श्रीवाणी नामक विदुषी की नियुक्ति की।
बहन और भाई गुरुओं के प्रति श्रद्धा-भक्ति दिखाते हुए और शिक्षा के प्रति रुचि दर्शाते हुए छे ही महीनों में कितने ही विषयों में निष्णात बने। यह सुनकर माणिक्यवर्मा ने हर्ष विभोर हो मनोहरी से कहा, ‘‘अब ही सही, अपनी इच्छा बताना। मेरे प्रेम को साबित करने के लिए एक मौक़ा दो।''
‘‘मेरे भाई नगरपालक बनें, यह मेरी इच्छा है। परंतु, इसके पहले वे किसी उत्तम नगरपालक से आवश्यक शिक्षा पायें और तभी उन्हें वे पद मिलें।'' मनोहरी ने यों अपनी इच्छा प्रकट की।


माणिक्यवर्मा ने खूब सोच-विचार कर कहा, ‘‘नगरपालक समर्थ हो तो नगर में अपराध कम होंगे। इसका यह मतलब हुआ कि जिस नगर में अपराधों की संख्या कम होती है, उसका नगर पालक उत्तम है।''
मनोहरी ने फ़ौरन कहा, ‘‘यह बात सच है, परंतु किसी नगर में छोटे-मोटे अपराध ज़्यादा हो सकते हैं। किसी और नगर में बहुत ही खतरनाक एक ही हत्या हो सकती है। अतः अपराधी की संख्या की तुलना में, उनका स्तर प्रधान है। इसकी जानकारी पाने के लिए दंड ही सूचक हैं। जिस नगर में आजीवन कारावास, राज्य बहिष्कार, मौत की सज़ा कम अमल में लाये जाते हैं, उसी नगर का नगरपालक उत्तम माना जा सकता है। इसके लिए, पिछले दस सालों से जो दंड अमल में लाये गये, उनकी जानकारी पानी होगी।''
माणिक्यवर्मा को मनोहरी का सुझाया उपाय सही लगा। उसने सब नगरों को समाचार भिजवाया कि पिछले दस सालों में जिस-जिस नगर में जो-जो दंड अमल में लाये गये हैं, उनका विवरण उसे भेजा जाए। यह जानकर हर नगर पालक में यह आशा जगी कि माणिक्यवर्मा इन विवरणों पर पूरा ध्यान देंगे और उसे उत्तम पालक घोषित करेंगे। इसके लिए उन्होंने कारावास जैसे कई दंड रद्द किये। अपराधों से संबंधित पुराने चिट्टों में परिवर्तन किये और नये चिट्टे लिखवाये।
मणिपुर के नगरपालक सुमंत ने तो गुप्तचरों के द्वारा अन्य नगरों के विवरण मँगवाये। अपने चिट्टे में दर्ज करवाया कि अन्य नगरों की तुलना में उसके नगर में कम अपराध हुए हैं। दर्ज हुए विवरणों के अनुसार पिछले दस सालों में आजीवन कारावास, राज्य बहिष्कार, मृत्यु दंड एक भी बार हुए नहीं।
सभी नगरों से माणिक्यवर्मा को चिट्टे मिले। उनके परिशीलन के बाद उसने कहा, ‘‘इन्हें पढ़ने के बाद मालूम हुआ कि सब नगरपालकों में से नरेंद्र अधम है और सुमंत उत्तम है। तुम्हारे भाइयों को आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें सुमंत के पास भेजूँगा।''
‘‘ऐसा मत कीजिये प्रभु। मेरे भाइयों को नरेंद्र के पास भेजिये। मेरे माता-पिता जो अब जंगल में हैं उन्हें सादर राजधानी ले आने का गौरव सुमंत को दीजिये।'' मनोहरी की विनती माणिक्यवर्मा ने मान ली।

वेताल ने मनोहरी की कहानी सुनायी और अपने संदेह व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘राजन, जब कि सभी नगरपालकों में से नरेंद्र अधम नगरपालक है, तो अपने भाइयों को प्रशिक्षण प्राप्त करने उसी के पास भेजने का मनोहरी का निर्णय कहाँ तक समुचित है? उसके माँ-बाप को राज्य बहिष्कार का दंड दिया है सुमंत ने। ऐसी स्थिति में इससे क्या रहस्य खुल नहीं जायेगा? इससे मनोहरी के परिवार को हानि नहीं होगी? जान-बूझकर विपत्ति मोल लेनी नहीं होगी? मेरे इन संदेहों के उत्तर जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने कहा, ‘‘अपने नगर में जो अपराध हो रहे हैं, या हुए हैं, उनका पूरा व सही विवरण प्रस्तुत किया है नरेंद्र ने। वही एकमात्र ईमानदार नगरपालक है। शेष सभी धोखेबाज हैं। सुमंत के चिट्टे को पढ़ते ही अक्लमंद मनोहरी को सच मालूम हो गया। नगरपालन के लिए ईमानदार नगरपालकों से शिक्षा प्राप्त करने में ही अच्छाई होगी। इसीलिए उसने अपने भाइयों को नरेंद्र के पास भेजने के लिए ही इच्छा प्रकट की। सुमंत ने जो चिट्टा भेजा, उसमें उसके माता-पिता के राज्य बहिष्कार का दण्ड दर्ज नहीं हुआ था । इसका यह मतलब हुआ कि उसने उसके माता-पिता के साथ अन्याय किया। या यह साबित हो जाता है कि उसने चिट्टा बदल दिया। यह रहस्य खुल जाए तो उसका अपराध भी आप ही आप साबित हो जायेगा। बदनामी होगी तो सुमंत की। तद्वारा उसने माता-पिता को जंगल से सादर ले आने का भार सुमंत पर ड़ाला। एक अहंकारी अधिकारी को इससे बड़ा दंड व अपमान क्या हो सकता है? साथ ही यह निस्संदेह अन्य अधिकारियों के लिए चेतावनी भी होगी। ऐसा निर्णय लेकर उसने अपने अधिकार का दुरुपयोग नहीं किया पर साथ ही प्रतिकार भी लिया। तद्वारा उसने माँ-बाप को मुक्ति दिलायी और देश का कल्याण भी किया। मनोहरी सच्चे अर्थों में विवेकवती है।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड पर जा बैठा।
(आधार सुभद्रा की रचना)




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