मांचाल नामक गांव में बलभद्र नामक एक संपन्न किसान रहा करता था। वह बड़ा ही क्रोधी स्वभाव का था। गांव में वह किसी की परवाह नहीं करता था। कितना भी बड़ा आदमी क्यों न हो, क्रोध-भरे स्वर में ही उससे बातें किया करता था। उससे कोई कहता कि तुम यह अच्छा नहीं कर रहे हो तो वह फट से जवाब देता, ‘‘तुम कौन होते हो, मुझे सबक सिखानेवाले? क्या तुम काशी में विद्याभ्यास करके लौटे हो? या रामेश्वरम हो आये हो? चल,चल, आपना काम देख ।’’
सर्दी के दिनों में एक दिन तड़के ही वह चार-पांच ग्रमीणों के साथ आग के पास बैठकर हाथ-पांव सेंक रहा था। साथ ही बैठे हुए मिठ्ठू ने अचानक देखा कि बलभद्र ने जो दुपट्टा ओढ़ रखा था, उसके किनारे में आग लग गयी। पर डर के मारे उसने मुंह नहीं खोला। स्वभाव से वह कायर था।
मिठ्ठू को अच्छी तरह से मालूम था कि बलभद्र कितना तुनक-मिजाज है और चिड़चिड़े स्वभाव का है। जब आग ने ज़ोर पकड़ लिया तो पहले से ही उसे सावधान करने के उद्देश्य से मिठ्ठू ने कहा ‘‘बलभद्र, एक बात कहना चाहता हूँ, कहूँ?’’
आँखें लाल करते हुए बलभद्र ने उसकी ओर गुर्रा कर कहा, ‘‘तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मुझसे कुछ कहने पर तुल गये? सावधान, मुंह से एक बात भी निकाली तो तुम्हारी जीभ काट दूँगा।’’ उसने कह क्या दिया, देख भी लिया कि दुपट्टा आधे से ज्यादा जल चुका है। उसने तुरंत दुपट्टे को दूर फेंक दिया और मिठ्ठू से कहने लगा, ‘‘अरे मूर्ख, दुपट्टे में आग लग गयी है और यह देखते हुए भी बताने में तुमने इतनी देर लगा दी।’’
इसपर मिठ्ठू ने कहा, ‘‘करूँ भी क्या? तुम तो तुनक-मिजाज हो। बात-बात पर नाराज़ होते रहते हो, दुत्कारते रहते हो, मैं तो बताना चाहता था, पर तुम्हारी नाराज़ी ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। न ही मेरा विद्याभ्यास काशी में हुआ है, न ही मैं रामेश्वरम हो आया हूँ।’’
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