Sunday, July 3, 2011

जयंत की चिकित्सा

धुन का पक्का विक्रमार्क पुनः पेड़ के पास गया, पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर डालकर यथावत् श्मशान की ओर बढ़ने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, मैं यह नहीं जानता कि किस न्याय की रक्षा के लिए इतना अथक परिश्रम किये जा रहे हो। शांति तथा सुरक्षा के परिरक्षण में न्यायाधिकारों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। देखा गया है कि परोपकारी, निस्वार्थी, निष्पक्ष न्यायाधिकारी भी कभी-कभी निरपराधियों को दंड देते हैं।
ऐसे न्यायाधिकारियों के विषय में शासकों को चाहिये कि वे जागरुकता बरतें। तुम्हें सावधान करने के लिए एक ऐसे ही न्यायाधिकारी की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। दोषी ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया, पर सत्यदीप नामक इस न्यायाधिकारी ने उसे छोड़ दिया और निर्दोष को जेल में डाल दिया। अपनी थकावट दूर करते हुए उसकी कहानी सुनो।'' वेताल फिर यों कहने लगा़:

रमाकांत चक्रपुरी का निवासी था। जयंत उसका इकलौता पुत्र था। माता-पिता ने बड़े ही लाड़-प्यार से उसे पाला-पोसा। आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार करने से वह विलासी बन गया। बड़ों ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। पच्चीसवें साल में ही उसकी त्वचा में झुर्रियाँ पड़ने लगीं और बाल सफ़ेद होने लगे।
इससे माँ-बाप घबरा गये और उन्होंने उसे वैद्य को दिखाया। वैद्यों ने परीक्षा के बाद कहा, ‘‘हमारी समझ में नहीं आता कि असल में यह बीमारी है क्या? इसलिए हम इसकी चिकित्सा करने में असमर्थ हैं।'' ऐसे समय पर गुरुपाद नामक एक मुनि उस गाँव में आये। गाँव के बहुत-से लोग अपनी समस्याएँ मुनि से बताते थे।
वे उनके हल का मार्ग सुझाते थे। रमाकांत भी जयंत को उस मुनि के पास ले गया। उस समय जयंत की हालत बहुत ही दयनीय थी। किसी की सहायता के बिना वह चलने की स्थिति में भी नहीं था। मुनि ने उसकी स्थिति पर दया दिखायी और कहा, ‘‘मैं एक मंत्र का उपदेश करूँगा।
अकेले ही तुम्हें समीप के किसी जंगल में जाना होगा और उस मंत्र को जपते हुए तपस्या करनी होगी। तब अश्विनी देवताएँ प्रत्यक्ष होंगे और वे तुम्हें वैद्य शास्त्र के रहस्य बताएँगे। उनकी सहायता पाकर अपने रोग की चिकित्सा करो। इसके बाद वैद्य वृत्ति को अपनाओ और परोपकार करो।'' फिर उन्होंने मंत्रोपदेश दिया। मुनि के कहे अनुसार जयन्त पास ही के जंगल में गया।
अपने साथ वह समीर नामक एक नौकर को भी ले गया। वह मालिक की ज़रूरतें पूरी और उसकी सेवाएँ करने लगा। जयंत मुनि से उपदेशित मंत्र का जप करने लगा और श्रद्धापूर्वक तपस्या करने लगा। यों छे महीने गुज़र गये। एक दिन अश्विनी देवता प्रत्यक्ष हुए और उसे एक तालपत्र ग्रंथ को देते हुए कहा, ‘‘हम तुम्हारी तपस्या पर संतुष्ट हुए, इसीलिए यह वैद्य ग्रंथ तुम्हें दे रहे हैं।

इसे पढ़ने पर अपने ही रोगों के बारे में नहीं, बल्कि अनेक रोगों की चिकित्सा पद्धति के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करोगे। परंतु याद रखना, यह दवा उन्हीं के काम आयेगी, जो सच बताएँगे और जिन्हें अपनी ग़लतियों पर पछतावा होगा। चिकित्सा शुरू करने के तीन महीनों के अंदर ही तुम्हारा रोग दूर हो जायेगा।
परंतु, तब तक तुम्हें अपने परिवार से मिलना नहीं चाहिये।'' यों कहकर वे देवता अदृश्य हो गये । जयंत ने अपनी चिकित्सा के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया। समीर से वह जड़ी-बूटियाँ जंगल से मँगाता था और अपने लिए आवश्यक गोलियाँ बनाता था। बिना चूके वह उनका उपयोग करता था।
एक दिन समीर जब जड़ी-बूटियाँ बटोर रहा था, तब एक हट्टे-कट्टे आदमी ने उसे देखा और कहा, ‘‘मुझे सक्षेम चक्रपुरी पहुँचा दोगे तो तुम्हें सौ अशर्फियाँ दूँगा।'' आगंतुक के कंधे में थैली लटक रही थी।
समीर ने उससे कहा, ‘‘इतनी दूर चले आये हो और चक्रपुरी पास ही तो है। क्यों नहीं चले जाते? जंगल पार करने के लिए तुम्हें किसी आदमी की ज़रूरत ही क्या है?'' ‘‘अकस्मात मेरी दृष्टि में खराबी हो गयी है। मैं ठीक से देख नहीं पाता।'' उसने कहा। ‘‘तो ठीक है, मेरे साथ आना। मेरे मालिक किसी भी रोग की चिकित्सा कर सकते हैं'', समीर ने कहा।
उसे वह अपने आश्रम में ले गया। जयंत ने उस आदमी की बीमारी के बारे में जानकारी पायी। फिर कहा, ‘‘एक गोली खाओगे तो तुम्हारी बीमारी दूर हो जायेगी। पर, इसके पहले तुम्हें अपने बारे में सच बताना होगा। अब तक तुमने जो अपराध किये, उसपर तुम्हें पश्चात्ताप करना होगा।''
उसने अपने बारे में सब कुछ बताया। उसका नाम प्रतीक था। वह सत्यपुर नगर का रहनेवाला एक चोर था। वह पकड़ा नहीं गया और नगर का एक बड़ा आदमी भी माना जाने लगा, इसलिए एक गरीब किसान ने अपनी बेटी गौरी की शादी उससे करायी।
शादी के बाद गौरी को जब मालूम हुआ कि उसका पति एक बड़ा चोर है, तो उसने उसे कोसा। प्रतीक भी समझ गया कि अगर किसी दिन पकड़ा जाऊँ तो उसका पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जायेगा ।

उसने इसलिए चोरी छोड़ दी और व्यापार करने लगा। आमदनी ऐसे तो कम थी, पर ज़िन्दगी बिना किसी कमी के गुज़र रही थी। एक दिन अचानक ही उसकी दृष्टि मंद हो गई, उसे स्पष्ट दिखायी नहीं दे रहा था। वह एक वैद्य से मिलने गया। उसने परीक्षा के बाद कुछ गोलियाँ दीं और कहा, ‘‘इनका उपयोग करो।
थोड़े दिनों तक ये काम आयेंगीं। पर, कुछ दिनों के बाद तुम्हारे अंधे हो जाने का ख़तरा है। अब जो कमाते हो, सुरक्षित रखना। उन दिनों यह कमाई तुम्हारे काम आयेगी।'' प्रतीक ने यह बात पत्नी से बतायी तो उसने कहा, ‘‘अब तक हम सम्मान के साथ ज़िन्दगी गुज़ारते रहे। हमें धन इकठ्ठा करना हो तो तुम्हें चोरियाँ करनी होंगी, जिससे आगे हम ज़िन्दगी काट सकें । और यह सब कुछ हो, तुम्हारे अंधे हो जाने के पहले ही।''
भविष्य को लेकर प्रतीक में भय उत्पन्न हो गया। लाचार होकर प्रतीक फिर से चोरियाँ करने गया। हफ़्ते भर में उसने काफी गहने और धन प्राप्त किया। न्यायाधिकारी सत्यदीप को शिकायत मिली कि सत्यपुर नगर में चोरियाँ अधिकाधिक हो रही हैं। सत्यदीप को संदेह हुआ कि बड़ा माना जानेवाला कोई व्यक्ति ही ये चोरियाँ कर रहा है।
उसने घोषणा करवायी कि नगर के सब बड़े आदमियों के घरों की तलाशी ली जाए। नगर भर में सत्यदीप परोपकारी, सत्यवान और निष्पक्ष न्यायाधिकारी माना जाता था। प्रतीक यह घोषणा सुनकर डर गया। उसे लगा कि किसी भी दिन वह पकड़ा जा सकता है। इसलिए पत्नी की सलाह के अनुसार वह गहनों को बेचने के लिए जंगल से होते हुए चक्रपुरी जाने निकला।
बीच जंगल में उसकी दृष्टि धुँधली होने लगी। तभी उसने समीर को देखा। प्रतीक ने पूरा विवरण दिया और कहा, ‘‘मेरी दृष्टि फिर से सुधर जायेगी तो मैं चोरी कभी नहीं करूँगा।'' जयंत ने उसे एक गोली दी, जिसे खाते ही उसकी दृष्टि बिलकुल ठीक हो गयी।
उसने जयंत को प्रणाम किया और कहा, ‘‘स्वामी, आप भगवान समान हैं, शक्तिमान हैं। मैं सत्यपुर वापस जाऊँगा और अपनी ग़लती स्वीकार करके जिनके-जिनके गहने हैं, उन्हें लौटा दूँगा।

इसके पहले मुझे चक्रपुर जाना होगा और अपने चाचा को देख आना होगा, जो बहुत बीमार हैं। वे मुझसे मिलना भी चाहते हैं । जब तक मैं नहीं लौटूँ तब तक ये गहने और रक़म अपने पास सुरक्षित रखिये। लौटकर इन्हें ले लूँगा।'' कहकर उसने गहने व रक़म जयंत के सुपुर्द किया और चक्रपुरी जाने निकल पड़ा।
इतने में, सत्यपुर के बड़े आदमियों ने अफ़वाह फैलायी कि असली चोर जंगल में घूम रहे हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके घरों पर छापा हो। इसे सच मानकर सत्यदीप ने नगर में तलाशी छोड़ दी और कुछ सैनिकों को लेकर जंगल में प्रवेश किया। वहाँ उसे जयंत के आश्रम में गहने मिले।
जयंत ने सत्यदीप को बताया कि ये गहने उसके पास कैसे आये और साथ ही उसे यह भी बताया कि अश्विनी देवताओं के अनुग्रह से उसे वैद्य ग्रंथ कैसे प्राप्त हुआ। परंतु पूछताछ के बाद भी उसने न ही प्रतीक का नाम बताया और न ही उसकी बीमारी के बारे में।
सत्यदीप ने उसकी बातों का विश्वास नहीं किया। उसे और समीर को बंदी बनाकर जेल में डाल दिया। उनकी रखवाली के लिए आवश्यक प्रबंध भी किया। इसके बाद उसने जयंत की कहानी की घोषणा करवायी कि जो लोग लंबे समय से बीमार हैं, वे जेल में आकर चिकित्सा करवा सकते हैं।
जिन्होंने यह घोषणा सुनी, वे जेल गये, अपनी ग़लतियाँ स्वीकार कीं और जयन्त की चिकित्सा से स्वस्थ भी हो गये। किन्तु विशेष बात यह है कि उसने रोगियों के अपराधों को जाहिर नहीं किया। अब रोगियों की क़तार लग गयी। थोड़े दिनों के बाद प्रतीक चक्रपुरी से लौटा और सत्यदीप से मिला।
अपना अपराध स्वीकार किया और उससे विनती कि उसे कैद किया जाए और जयंत को छोड़ दिया जाए। सत्यदीप ने कहा, ‘‘तुमने अपना अपराध स्वीकार किया, इसका यह मतलब हुआ कि तुममें परिवर्तन हुआ है, इसलिए तुम्हें जेल में नहीं डालूँगा। पर, कुछ समय तक जयंत को जेल में ही बंदी बनाकर रखूँगा।''
वेताल ने यह कहानी बतायी और कहा, ‘‘राजन्, यह जानते हुए भी कि प्रतीक दोषी है, उसे क़ैद नहीं कियागया । यह जानते हुए भी कि जयंत निर्दोष है, उसे जेल में ही रखने का निर्णय लियागया ।

क्या यह निर्णय न्यायाधिकारी का अन्याय नहीं है? क्या यह निर्णय यह नहीं बताता कि सत्यदीप न्याय करना नहीं चाहता, वह क्रूर स्वभाव का है, अन्याय का समर्थक है? ‘‘ऐसे सत्यदीप को लोग परोपकारी मानते हैं, उसे सच्चा न्यायाधिकारी मानते हैं, यह लोगों का अज्ञान नहीं है? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
तब विक्रमार्क ने कहा, ‘‘दोषियों को जेल में बंद करते हैं, उन्हें सुधारने के लिए, उनमें परिवर्तन लाने के लिए। तब तक प्रतीक में अच्छा परिवर्तन हुआ। ऐसी स्थिति में उसे जेल में डालने से क्या फ़ायदा? इसी वजह से न्यायाधिकारी ने उसे छोड़ दिया।
अब रही जयंत की बात। न्यायाधिकारी ने उसके साथ कोई अन्याय नहीं किया उल्टे उपकार ही किया। इसकी इज्जत की। नाम मात्र के लिए उसे जेल में बंद रखा, परंतु साथ ही उसके लिए सभी सुविधाओं का प्रबंध किया। जयंत की अद्भुत चिकित्सा पद्धति के बारे में घोषणा करवायी।
जयंत के हाथों इलाज चाहिए तो अपराधियों को अपने अपराध मानने होंगे, जिनके बारे में केवल उसी को जानकारी है। ऐसे अपराधी फिर से अपराध नहीं करेंगे। ऐसे अपराधियों को सज़ा भी नहीं होगी, क्योंकि उनमें अब परिवर्तन हो गया ।
न्यायाधिकारी चाहता था कि कुछ दिनों तक ही सही, जयंत जेल में रहे और सत्यपुर के अपराधियों को वह सुधारे, उनमें परिवर्तन ले आये । इसीलिए उसने जयंत को बंदी बनाये रखा। साथ ही एक और विशेष रहस्य भी है। न्यायाधिकारी चाहता था कि नियम भंग जब तक न हो, तब तक जयंत सत्यपुर में रहे, जिससे वह अपने माँ-बाप व सगे संबंधियों से नहीं मिल पायेगा। तद्वारा उसने दो महत्वपूर्ण कार्य साधे।
इन कारणों से लोगों का यह कहना कि सत्यदीप परोपकारी है, निर्दोष है, निष्पक्ष है, सरासर सही और समर्थनीय है।'' राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा। -आधार ‘‘वसुंधरा'' की रचना







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